देहरादून: प्रशासनिक लिहाज से उत्तराखंड राज्य दो भागों में बंटा हुआ है. एक गढ़वाल मंडल है. दूसरा कुमाऊं मंडल है. कुमाऊं मंडल का इतिहास बेहद रोचक है. इतिहासकार बताते हैं कि वर्ष 1790 में गोरखा साम्राज्य नेपाल से आगे बढ़कर उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र पर कब्जा करता गया. 1804 तक आते-आते उसने हिमाचल के कांगड़ा तक का हिस्सा अपने अधीन कर लिया था.
सुगौली की संधि से वापस मिला था कुमाऊं: इसके बाद ब्रिटिश साम्राज्य ने गोरखा साम्राज्य से लड़ाई लड़ी. गोरखाओं को अंग्रेजों के सामने घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ा. वर्ष 1815 में हुई सुगौली की संधि के बाद गोरखा साम्राज्य की सीमा नेपाल तक सीमित कर दी गई. जिसके बाद ब्रिटिश साम्राज्य ने उत्तराखंड के कुमाऊं में बहने वाली मंदाकिनी नदी के दाहिनी तरफ का हिस्सा अपने शासन में रखा. इस तरह से कुमाऊं के साथ-साथ गढ़वाल का यह हिस्सा ब्रिटिश गढ़वाल के रूप में जाना जाने लगा. वहीं अलकनंदा नदी के बाई तरफ टोंस नदी तक का पूरा हिस्सा टिहरी नरेश को दे दिया गया.
आजादी के समय थे सिर्फ दो जिले: इस तरह से यह व्यवस्था देश की आजादी तक चलती रही. जब 1947 में देश आजाद हुआ तो उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा बना जिसमें गढ़वाल और कुमाऊं मंडल थे. कुमाऊं जिले की बात करें तो पहले कुमाऊं में आजादी के समय केवल 2 जिले थे. अल्मोड़ा और नैनीताल. वहीं 1960 में पिथौरागढ़, बागेश्वर और चंपावत जिले बनाए गए और बाद में उधम सिंह नगर भी कुमाऊं मंडल में जोड़ दिया गया.
क्या है कुमाऊं की डेमोग्राफी: उत्तराखंड में जातिगत समीकरणों की बात करें तो पूरे प्रदेश भर में वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 14. 50 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम आबादी है. इनमें से 10 परसेंट मैदानी इलाकों में और 4 परसेंट पहाड़ी जनपदों में निवास करती है. बताया जाता है कि उत्तराखंड के मैदानी इलाकों की 22 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम वोटर निर्णायक भूमिका निभाते हैं.
अकेले देहरादून जिले में 2011 के सेंसस के अनुसार 2 लाख मुस्लिम आबादी है. पहाड़ी जिले की बात करें तो सबसे ज्यादा पौड़ी जिले में 22 हजार मुस्लिम आबादी है. विशेष रूप से कुमाऊं मंडल में पड़ने वाले जिलों की बात करें तो पिथौरागढ़ में 6 हजार अल्मोड़ा में 7.5 हजार, नैनीताल में 1.2 लाख, बागेश्वर में 1400, चंपावत में 8693 और उधम सिंह नगर जिले में 3.72 लाख मुस्लिम आबादी है. वहीं कुमाऊं मंडल में हिंदू आबादी की बात करें तो हिंदू आबादी में से 40 फीसदी ठाकुर, 25 फीसदी ब्राह्मण, 19 फीसदी अनुसूचित जाति और 3 फ़ीसदी से कम अनुसूचित जनजाति के लोग निवास करते हैं.
राजनीतिक दृष्टि से कितना अहम कुमाऊं: उत्तराखंड की राजनीति में कुमाऊं के दखल की बात करें तो 70 विधानसभा सीटों वाले उत्तराखंड राज्य में 29 सीटें कुमाऊं मंडल से आती हैं. इसमें से केवल उधम सिंह नगर जिले की 9 सीटें और नैनीताल जिले की हल्द्वानी और रामनगर सीट मिलाकर 11 सीटें मैदानी हैं. बाकी की 18 सीटें पहाड़ी जनपदों में आती हैं.
उत्तराखंड राज्य गठन के बाद कुमाऊं के हिस्से में 29 विधानसभा सीटें आईं. इनमें से कई विधानसभा सीटों में परिसीमन भी हुआ है. मसलन पिंडर विधानसभा सीट को तोड़कर दो भागों में विभाजित किया गया. इसके अलावा पिथौरागढ़ जिले की ही कांडा विधानसभा सीट का भी परिसीमन हुआ. इसके अलावा मुक्तेश्वर और धारी विधानसभा सीटों में भी कुछ परिवर्तन कर इनके नाम बदले गए. फिर उधम सिंह नगर में पंतनगर, गदरपुर, रुद्रपुर और किच्छा जैसे इलाकों में आबादी के अनुसार परिसीमन कर अलग-अलग विधानसभा सीटें में बनाई गईं.
2002 के चुनाव: उत्तराखंड के पहले विधानसभा चुनाव 2002 में कांग्रेस जीत कर आई. कांग्रेस ने पूरे प्रदेश में 36 सीटें जीती थीं. इनमें कुमाऊं की 29 सीटों में से सबसे ज्यादा कांग्रेस को 15 सीटों पर जीत हासिल हुई. भाजपा केवल 7 सीटें कुमाऊं में जीत पाई थी. इसके अलावा यूकेडी ने 3 सीटें जीतीं और 2-2 सीटें निर्दलीय और बीएसपी की झोली में गिरीं. वर्ष 2002 में 36 सीटों से सरकार बनाने वाली कांग्रेस पार्टी का पूरे प्रदेश में वोट परसेंट 26.91% रहा था. जबकि दूसरे नंबर पर 19 सीटों के साथ रहने वाली भाजपा का वोट परसेंट 25.45% था.
2007 के चुनाव: वर्ष 2007 में हुए उत्तराखंड के दूसरे विधानसभा चुनाव में भाजपा ने बढ़त बनाई थी. पूरे प्रदेश में भाजपा 34 सीटें जीत कर लाई थी. इनमें सरकार बनाने वाली भाजपा 34 सीटों में से 16 सीटें कुमाऊं से जीत कर लाई. दूसरे नंबर पर रही कांग्रेस को कुमाऊं में केवल 10 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. 2007 विधानसभा चुनाव की एक खास बात यह भी है कि यह चुनाव केवल 69 सीटों पर लड़ा गया. क्योंकि (बाजपुर 59) विधानसभा पर चुनाव लड़ रहे कांग्रेस के प्रत्याशी जनक राज शर्मा जोकि उधम सिंह नगर के जिला पंचायत सदस्य भी रह चुके थे और कांग्रेस के बेहद प्रभावशाली नेता थे वह चुनाव प्रचार के दौरान एक सड़क दुर्घटना में दिवंगत हो गए थे. इसी कारण से चुनाव टल गए थे. इस तरह से 2007 विधानसभा चुनाव परिणाम में सरकार बनाने वाली भाजपा का वोट परसेंट 31.90% रहा और 21 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर रही कांग्रेस का वोट परसेंटेज 29.59% रहा था.
2012 के चुनाव: वर्ष 2012 में हुए तीसरे विधानसभा चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस ने भाजपा को मात दी. इस बार टक्कर कांटे की थी. कांग्रेस 32 सीटें जीतकर आई. भाजपा 31 सीटें जीतकर दूसरे नंबर पर रही. जीत कर आये बीएसपी के तीन और निर्दलीय तीन विधायकों की भूमिका बेहद अहम थी. 2012 में भाजपा भले ही कुमाऊं से 15 सीटें जीतकर लाई थी और कांग्रेस कुमाऊं में केवल 13 सीटें जीत पाई थी, लेकिन लालकुआं से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जीते हरीशचंद्र दुर्गापाल ने भी कांग्रेस को समर्थन दिया था. इस तरह से वर्ष 2012 में 32 सीटों के साथ सरकार बनाने वाली कांग्रेस का पूरे प्रदेश में वोट परसेंटेज 34.03% रहा और दूसरे नंबर पर 31 सीटों के साथ रहने वाली भाजपा का वोट परसेंट 33.13% था.
2017 के चुनाव: वर्ष 2017 में हुए चुनाव में भाजपा ने सारे रिकॉर्ड नेस्तनाबूद कर दिए. प्रचंड बहुमत के साथ 57 सीटें जीतकर उत्तराखंड में प्रचंड बहुमत की सरकार बनाई. इस दौरान मोदी लहर ने विपक्षियों की जड़ें हिला दी. 57 सीट लाने वाली भाजपा को कुमाऊं के लोगों का भी खूब आशीर्वाद मिला. पिछले विधानसभा चुनाव की मोदी लहर में भाजपा कुमाऊं में 23 सीटें जीतकर लाई और कांग्रेस की झोली में केवल 5 सीटें ही गिरीं. एक सीट निर्दलीय भीमताल से राम सिंह खेड़ा जीत कर ले गए. वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत लाने वाली भाजपा का वोट परसेंट बढ़कर 46.51% हो गया तो वहीं 11 के आंकड़े पर सिमटी कांग्रेस का वोट परसेंट 33.49% हो गया.
परिसीमन ने बदला गणित: 2004 में राष्ट्रीय परिसीमन आयोग का गठन हुआ. उत्तराखंड में भी परिसीमन की प्रक्रिया शुरू हुई. परिसीमन की फाइनल रिपोर्ट वर्ष 2008 में आयोग को सौंपी गई और उसके बाद पूरे देश में लागू होने के बाद उत्तराखंड में यह 2012 विधानसभा चुनाव में लागू हुई. 2012 के परिसीमन का आधार 2001 की जनगणना थी. विधानसभा सीटों को लेकर जहां मैदानों में एक लाख से अधिक जनसंख्या को एक विधानसभा सीट का मानक रखा गया. वहीं पहाड़ों पर इसे घटाकर एक लाख से कम 85 हजार तक की जनसंख्या वाले क्षेत्र को एक विधानसभा बनाने का मानक रखा गया.
पहाड़ के लिए इतनी रियायत रखने के बावजूद भी पहाड़ का नेतृत्व घटने लगा और अब तक जहां पहाड़ में 2001 के परिसीमन के अनुसार 40 सीटें थी और मैदान में 30 सीटें थी, लेकिन 2012 के परिसीमन में पहाड़ की 6 सीटें घटकर 34 हो गईं. मैदान की 6 सीटें बढ़कर 30 से 36 हो गईं. इसमें नंदप्रयाग, पिंडर जैसी कई विधानसभा सीटों को मर्ज कर दिया गया.
अभी और घटेगा पहाड़ का नेतृत्व: हर 20 साल के बाद परिसीमन होना है. जिसके अनुसार अब वर्ष 2026 में एक बार फिर से परिसीमन की प्रक्रिया शुरू होगी. उम्मीद है कि इसकी सिफारिशें 2030 या 31 तक लागू होंगी. अगर हम भविष्य की संभावनाओं की बात करें तो उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में लगातार पलायन बढ़ रहा है. यहां की जनसंख्या भी घट रही है. जो मानक परिसीमन आयोग का है उस मानक के अनुसार पहाड़ की विधानसभा सीटें एक बार फिर से घट सकती हैं. ऐसे में पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की परिकल्पना किस दिशा की ओर जा रही है यह सोचने वाली बात है.