देहरादून: महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री की जिस कुर्सी के लिए सियासी खींचतान चल रही थी उस पर 'सरकार' ने अड़ंगा डाल दिया, जिससे राजनीतिक दलों की सत्ता भोगने की आस, आस ही रह गई. इस सियासी धमा-चौकड़ी में सत्ता के लिए सबसे ज्यादा लालायित दिख रही शिवसेना के शिविर में जहां अब सन्नाटा छा गया है तो वहीं एनसीपी 'हाथ' के साथ का इंतजार ही करती रह गई और महाराष्ट्र में देखते ही देखते राष्ट्रपति शासन लग गया. अब सभी दल ठगी हुई आंखों से एक दूसरे की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं.
सत्ता के संग्राम में अपनी सियासी ताकत आजमाने का ये पहला मामला नहीं है. इससे पहले देवभूमि उत्तराखंड भी इसी तरह के राजनीतिक हालात का गवाह रह चुका है. यहां भी सरकार में अपनी हैसियत और हनक दिखाने के लिए इसी तरह का खेल खेला गया था. समाचार चैनलों पर चल रही महाराष्ट्र की इस सियासी महाकवरेज के बाद उत्तराखंड के उन काले दिनों की यादें ताजा हो गई हैं, जब इतिहास में पहली बार प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा था. तब अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने के लिए सरकार के अपने ही 9 विधायक बागी हो गये थे. इनके बगावती तेवरों की आंच इतनी बढ़ गई थी कि इसकी तपिश दिल्ली तक महसूस की जाने लगी थी. नजीजतन प्रदेश में 3 महीने उहापोह की स्थिति बनी रही. राष्ट्रपति शासन लगा. उन दिनों राजधानी देहरादून मीडिया के गढ़ में तब्दील हो गई थी. सोशल मीडिया से लेकर समाचार पत्रों तक उस मामले ने खूब सुर्खियां बटोरी. आखिर में हाई कोर्ट के फैसले के बाद तत्कालीन हरीश रावत सरकार को फ्लोर टेस्ट का मौका दिया गया, जिसमें हरदा ने बीजेपी को चिढ़ाते हुए सरकार पर आये इस संकट से पार पाया.
उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगने का घटनाक्रम
- 18 मार्च: सुबह मसूरी विधायक गणेश जोशी शक्तिमान घोड़े को घायल करने के मामले में गिरफ्तार हुए. शाम को विधानसभा में कांग्रेस के 9 विधायकों ने विनियोग विधेयक पारित करने के लिए भाजपा के साथ मिलकर वोटिंग की मांग की.
- इसी दिन बागी विधायक भाजपा के साथ राज्यपाल से मिलकर विश्वास मत की मांग करने के बाद दिल्ली रवाना हुए.
- 19 मार्च: राज्यपाल ने सीएम हरीश रावत को 28 मार्च तक बहुमत साबित करने के लिए पत्र भेजा. सरकार ने भी बागी विधायकों के घर पर दल बदल कानून के तहत सदस्यता निरस्त करने का नोटिस भेजा.
- 20 मार्च: विधानसभा अध्यक्ष ने 28 मार्च को सदन बुलाने के लिए पत्र भेजा.
- 21 मार्च: भाजपा और कांग्रेस के बीच छिड़ी सियासी जंग राष्ट्रपति दरबार में पहुंची. भाजपा ने 18 मार्च को हुए हंगामे को आधार बनाकर सरकार बर्खास्त करने की मांग रखी.
- 22 मार्च: प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू होने की संभावनाएं बढ़ी. विधायक गणेश जोशी की जमानत याचिका मंजूर हुई.
- 23 मार्च: राज्यपाल ने विधानसभा अध्यक्ष को 28 मार्च को सदन में मर्यादा बनाए रखने के लिए संदेश भेजा ,संदेश से राष्ट्रपति शासन लगने के आधार को मिला और बल.
- 24 मार्च: बागी विधायकों ने दिल्ली में दावा जताया कि सरकार से कोई समझौता नहीं होगा. विधानसभा अध्यक्ष को कुछ बागियों ने नोटिस के भेजे जवाब.
- 25 मार्च: बागी विधायकों ने दल बदल कानून को आधार बनाकर सदस्यता समाप्त करने के नोटिस को हाईकोर्ट में चुनौती दी, लेकिन हाईकोर्ट ने स्पीकर के खिलाफ याचिका खारिज कर दी.
- 26 मार्च: सीएम हरीश रावत का विधायकों की खरीद फरोख्त का स्टिंग आया सामने. केंद्रीय कैबिनेट ने राष्ट्रपति को भेजी धारा 356 लागू करने की सिफारिश.
- 27 मार्च: प्रदेश में लगा राष्ट्रपति शासन.
- 28 मार्च: तत्कालीनसीएम हरीश रावत ने राष्ट्रपति शासन लागू करने के आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट की सिंगल बेंच में अपील की.
- 29 मार्च: कांग्रेस के 9 बागी विधायकों ने सदस्यता समाप्त करने के विरोध में हाई कोर्ट में दाखिल की याचिका.
- 30 मार्च: हाई कोर्ट की सिंगल बेंच ने हरीश रावत को सदन में बहुमत साबित करने का दिया निर्णय.
- 2 अप्रैल: तत्कालीन सीएम हरीश रावत ने एक और याचिका दाखिल कर बजट अध्यादेश को दी चुनौती.
- 7 अप्रैल: हाई कोर्ट की डबल बेंच ने फ्लोर के एकलपीठ के निर्णय को 18 अप्रैल तक किया स्थगित.
- 12 अप्रैल: एकलपीठ ने बागी विधायकों की याचिका पर 23 अप्रैल तक टाली सुनवाई.
- 18 अप्रैल: राष्ट्रपति शासन के खिलाफ दाखिल याचिका पर हाई कोर्ट में शुरू हुई सुनवाई.
- 21 अप्रैल: हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन समाप्त कर 29 अप्रैल को फ्लोर टेस्ट का दिया आदेश.
- 29 अप्रैल: तत्कालीन सीएम हरीश रावत ने फ्लोर पर साबित किया बहुमत.
देवभूमि में महीनों चले इस सियासी ड्रामे से जहां प्रदेश में सियासी अस्थिरता के हालात पैदा हुए वहीं नेतृत्व परिवर्तन को भी बल मिला, जिससे सत्तारूढ़ दल में फिर से नेता कुर्सी के सपने देखने लगे. वहीं बगावत करने वाले विधायकों की हसरतों पर पानी फिरा. ऐसे ही कुछ हालात अब महाराष्ट्र में भी हैं. यहां कुर्सी का सपना बीजेपी और शिवसेना की वर्षों पुरानी दोस्ती पर भारी पड़ा तो इसके साथ ही प्रदेश में कुछ बेमेल सियासी समीकरण भी उभरे. हां-ना करते-करते दलों को इतनी देर हो गई कि जनादेश को किनारे रखते हुए महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी गई.
महाराष्ट्र में भी सत्ता की ताकत पाने के लिए की जाने वाली दुआएं, अर्जियां, जिद सब राष्ट्रपति शासन पर आकर रुक गई हैं. हर कोई इससे निकलने के लिए संवैधानिक दांवपेंच टटोल रहा है. वहीं कुछ दिनों पहले लोकतंत्र के पर्व में आचमन कर आई जनता दूर खड़ी इस सियासी ड्रामे को देखकर अपने ही सवालों में उलझी है.