नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने गुरुवार को केंद्र सरकार से कहा कि वह समलैंगिक जोड़ों में संयुक्त बैंक खाता खोलने, पार्टनर नॉमिनी बनाने में आ रही समस्याओं या बाधाओं को दूर करने पर विचार करे, क्योंकि उनके विवाह को कानूनी रूप से मान्यता नहीं दी गई है.
शीर्ष कोर्ट ने कहा कि वह इस बात से असहमत नहीं है कि समलैंगिक विवाह पर कानून बनाना संसद का काम है लेकिन समलैंगिक जोड़े जिन समस्याओं का सामना करते हैं उनका कुछ समाधान होना चाहिए.
केंद्र सरकार की ओर से पेश एसजी तुषार मेहता ने अदालत के समक्ष कहा कि 'सरकार उनकी (समलैंगिकों) की चिंताओं को समझती है, 'हमें उस समस्या का समाधान खोजना होगा.'
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने पांच जजों की संविधान पीठ का नेतृत्व करते हुए समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की याचिका पर सुनवाई की. उन्होंने कहा कि 'हम चाहते हैं कि सरकार इसके लिए बयान दे.'
सीजेआई ने कहा कि वे बुधवार को मामले पर सुनवाई फिर से शुरू करेंगे और तब तक सॉलिसिटर जनरल को एलजीबीटीक्यू समुदाय के सामने आने वाली समस्याओं पर सरकार से प्रतिक्रिया प्राप्त होगी और अगर सरकार इस बारे में कुछ कर रही है.
सुनवाई के दौरान गुरुवार को एसजी ने बहुत कठिन विधायी संशोधनों पर तर्क दिया, जिसे समुदाय को विवाह के लिए मान्यता दिए जाने की स्थिति में लागू करना होगा. SG ने समझाया कि विभिन्न कानूनों के तहत पुरुष और महिला या पति और पत्नी के लिए अलग-अलग प्रावधान हैं और पुरुष और महिला या पति और पत्नी की शर्तों को बदलना होगा जो 'बेतुका' लगेगा.
उन्होंने कहा कि LGBTQ का आंदोलन कोई बीस-तीस साल पहले शुरू हुआ था इसलिए उनके पास समुदाय पर अन्य कानूनों की व्यवहार्यता की जांच करने के लिए इस समुदाय का कोई विश्वसनीय डेटा भी नहीं है.
इस पर सीजेआई ने एसजी को टोका और कहा कि ऐसा नहीं है. उन्होंने कहा कि हमारे कुछ बेहतरीन मंदिर बेहतरीन वास्तुकला को दर्शाते हैं, जिनमें हमारी संस्कृति की गहराई दर्शाई गई है, जिसमें ये समुदाय भी शामिल है.
सीजेआई ने कहा, 'हमारी संस्कृति की गहन प्रकृति को देखें...दुर्भाग्य से जो हुआ वह 1857 से हमारी विविध संस्कृति पर ब्रिटिश नैतिकता को थोपा गया था. हम बहुत समावेशी थे...इसीलिए हम इतने सारे निवेशकों के प्रति सहिष्णु भी थे.'
सीजेआई ने कहा कि अदालत न्यायपालिका के रूप में अपनी सीमा को समझती है लेकिन प्रशासनिक पक्ष पर इतने सारे मुद्दे हैं जिनके लिए यह एक सुविधाप्रदाता के रूप में कार्य करता है. CJI ने कहा कि वह चाहते हैं कि सरकार गैर प्रतिकूल तरीके से अदालत की सहायता करे.
न्यायाधीशों ने 'विशाखा' दिशानिर्देशों, घरेलू हिंसा पर अधिनियम आदि का उदाहरण दिया जहां अदालत ने दिशानिर्देश निर्धारित किए और फिर ऐसे मुद्दों पर अधिनियम पारित किए गए जो व्यापक रूप से चीजों को कवर करते थे जिसे अदालत संभवतः नहीं देख सकती थी.
शादी के रजिस्ट्रेशन का भी जिक्र : एसजी मेहता ने कहा कि दिक्कतों को दूर करने के लिए शादी की मान्यता जरूरी नहीं है. कोर्ट ने इस बात पर चर्चा की कि कैसे विवाह का पंजीकरण अनिवार्य नहीं था और ग्रामीण भारत के कितने लोग, उनके माता-पिता की पीढ़ी के लोग, यहां तक कि आज की पीढ़ी के लोग भी अपनी शादी का पंजीकरण नहीं कराते हैं. जस्टिस रवींद्र भट ने कहा कि उनकी शादी तक का रजिस्ट्रेशन नहीं है.
कोर्ट ने कहा कि विवाह की अवधारणा लंबे समय तक साथ रहने और उससे उत्पन्न होने वाले पहलुओं के कारण विकसित हुई थी. कोर्ट ने सॉलिसिटर जनरल मेहता को बताया कि उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि संसद को कानून बनाने का अधिकार क्यों है, लेकिन अब चूंकि कानून इतनी दूर चला गया है (377 का डिक्रिमिनलाइजेशन), तो सरकार साथ रहने पर क्या करना चाहती है. CJI ने कहा कि समलैंगिक जोड़ों को सुरक्षा, पहचान दी जानी चाहिए.
कोर्ट ने कहा कि यहां तक कि लिव इन रिलेशनशिप को भी पवित्रता नहीं दी जाती है लेकिन इसमें उत्पन्न होने वाले विभिन्न मुद्दों को कानून द्वारा निपटाया जाता है. इसी प्रकार समलिंगी जोड़ों को भी सुविधा प्रदान की जा सकती है.
कोर्ट में गुजरात की लड़की का भी हुआ जिक्र : एसजी ने कहा कि प्यार करने, साथ रहने, अपने साथी को चुनने का अधिकार, यौन अभिविन्यास एक मौलिक अधिकार है लेकिन विवाह को मान्यता देना मौलिक अधिकार नहीं है. उन्होंने कहा कि कई तरह के समारोह होते हैं जो लोग अपनी संगति का जश्न मनाने के लिए करते हैं लेकिन सभी को कानूनी मान्यता नहीं दी जाती है. उन्होंने एक गुजराती लड़की का उदाहरण दिया जिसने खुद से शादी की.
कोर्ट ने हालांकि कहा कि एक बार साथ रहने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता मिलने के बाद, ये राज्य का दायित्व है. एसजी ने कहा कि, 'बड़ी संख्या में ऐसे रिश्ते हैं... सभी को राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है.'
एसजी ने कहा कि जस्ता और पीतल दोनों धातु हो सकते हैं लेकिन उनके साथ अलग व्यवहार किया जाता है. उन्होंने तर्क दिया कि डिक्रिमिनलाइजेशन के बाद, कलंक को हटा दिया जाता है, जिस पर अदालत ने कड़ी आपत्ति जताई.
सीजेआई ने कहा कि 'उन्हें बहुत बुरी तरह से कलंकित किया गया है.' जस्टिस रवींद्र भट ने कहा कि अगर ऐसा नहीं होता तो वे खुलेआम कोठरी से बाहर आ जाते लेकिन ऐसा नहीं होता है.
मामला अगले सप्ताह बुधवार को फिर से शुरू होगा. राज्य सरकारें अपना पक्ष रखेंगी. सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस रवींद्र भट, जस्टिस एसके कौल, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस हेमा कोहली की पांच जजों की संविधान पीठ समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है.