नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 11 जुलाई यानी आज सुनवाई हो रही है. इस मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने की. मामले में प्रक्रियात्मक निर्देश जारी करते हुए मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि इस मामले में दो अगस्त से हर रोज सुनवाई की जायेगी.
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Supreme Court’s five-judge Constitution bench says hearing of a batch of pleas challenging the abrogation from of Article 370 from Jammu and Kashmir will start from August 2. pic.twitter.com/eTJ1oFw9SJ
— ANI (@ANI) July 11, 2023 " class="align-text-top noRightClick twitterSection" data="
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सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ की अध्यक्षता कर रहे सीजेआई ने कहा कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई 2 अगस्त से शुरू होगी. मंगलवार को कोर्ट को जानकारी दी गई कि आईएएस अधिकारी शाह फैसल और कार्यकर्ता शेहला रशीद अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के खिलाफ अपनी याचिकाओं को आगे नहीं बढ़ाना चाहते हैं और अदालत के रिकॉर्ड से अपना नाम हटाना चाहते हैं, अदालत ने याचिकाकर्ताओं के रूप में उनके नाम हटाने के उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया है. सुप्रीम कोर्ट का कहना है, अब मामले का शीर्षक 'इन रे: संविधान का अनुच्छेद 370' होगा.
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#WATCH | "We have a very strong, rock-solid case. We hope that we will succeed and the judges will not take a second to set aside those decisions..." says National Conference leader Hasnain Masoodi on Supreme Court hearing today on abrogation of Article 370 pic.twitter.com/xcxxK9c9c8
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इससे पहले शाह फैसल मुख्य याचिकाकर्ता थे. उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ ने दस्तावेज दाखिल करने, पक्षों द्वारा लिखित दलीलें देने के लिए 27 जुलाई की समय सीमा तय की. उच्चतम न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय ने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त करने को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं की सूची से अपना नाम हटाने के लिए कार्यकर्ता शेहला राशिद शोरा के आवेदन पर विचार की मंजूरी दी.
अनुच्छेद 370 को निरस्त करने को चुनौती देने वाली याचिकाएं आखिरी बार मार्च 2020 में सुनवाई के लिए सूचीबद्ध की गई थीं. पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने मामले को बड़ी पीठ के पास भेजने से इनकार कर दिया. उस सुनवाई के दौरान, पीठ ने कहा कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 और 35ए की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं का एक और बैच पहले से ही सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. पीठ ने अनुच्छेद 370 से जुड़े सभी मामलों की सुनवाई एक साथ करने का फैसला किया.
संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लगभग चार साल बाद, भारत का सर्वोच्च न्यायालय 11 जुलाई को जम्मू और कश्मीर की विशेष स्थिति को रद्द करने के केंद्र सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है.
पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी.वाई. के साथ जस्टिस संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, बी.आर. गवई और सूर्यकांत मंगलवार को इस मामले पर सुनवाई की. मंगलवार को दस्तावेज दाखिल करने और लिखित प्रस्तुतियां, मौखिक दलीलों के क्रम और समय के आवंटन के बारे में प्रक्रियात्मक निर्देश जारी किये गये. वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल के एक सवाल के जवाब में न्यायमूर्ति गवई ने बीते बुधवार को ही स्पष्ट किया था कि मामले में मौखिक दलीलों पर सुनवाई अगस्त में ही शुरू होगी.
पीठ ने यह भी तय किया कि नौकरशाह शाह फैसल की मुख्य याचिका वापस ली जा सकती है. फैसल ने 2018 में भारतीय प्रशासनिक सेवाओं (आईएएस) से इस्तीफा दे दिया था. उन्होंने जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को रद्द करने का विरोध किया था. वह सेवाओं में फिर से शामिल हो गए. हाल ही में उन्हें संस्कृति मंत्रालय में उप सचिव नियुक्त किया गया. बाद में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक आवेदन दायर कर अपनी याचिका वापस लेने की मांग की.
याचिकाओं को 2 मार्च, 2020 के बाद पहली बार सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया जा रहा है. उस समय न्यायमूर्ति एन वी रमना की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने मामले को बड़ी पीठ के पास भेजने से इनकार कर दिया था. इस मामले की सुनवाई करने वाली पिछली पीठ में से जस्टिस एनवी रमना और सुभाष रेड्डी सेवानिवृत्त हो चुके हैं. सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजीव खन्ना नवीनतम पीठ के नए सदस्य हैं.
ये याचिकाएं किसने दायर की हैं?
इस मामले में वकीलों, कार्यकर्ताओं, राजनेताओं और सेवानिवृत्त सिविल सेवकों द्वारा लगभग 23 याचिकाएं दायर की गई हैं. इनमें वकील एमएल शर्मा, सोयब कुरेशी, मुजफ्फर इकबाल खान, रिफत आरा बट और शाकिर शब्बीर, नेशनल कॉन्फ्रेंस के लोकसभा सांसद मोहम्मद अकबर लोन और हसनैन मसूदी, सीपीआई (एम) नेता मोहम्मद यूसुफ तारिगामी, कार्यकर्ता शेहला रशीद, कश्मीरी कलाकार इंद्रजीत टिक्कू उर्फ इंदर सलीम और अनुभवी पत्रकार सतीश जैकब शामिल हैं. पूर्व एयर वाइस मार्शल कपिल काक, सेवानिवृत्त मेजर जनरल अशोक मेहता, पूर्व आईएएस अधिकारी हिंडाल हैदर तैयबजी, अमिताभ पांडे और गोपाल पिल्लई सहित पूर्व सैन्य अधिकारियों और नौकरशाहों और जम्मू-कश्मीर के लिए गृह मंत्रालय के वार्ताकारों के समूह के पूर्व सदस्य राधा कुमार ने भी केंद्र सरकार के इस फैसले को चुनौती दी है. पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, जम्मू और कश्मीर बार एसोसिएशन और जम्मू और कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस जैसे संघों और राजनीतिक दलों ने भी सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है.
चुनौती का कारण क्या था?
संविधान के अनुच्छेद 370 ने जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा दिया था. जिसने अन्य राज्यों की तुलना में राज्य के लिए कानून बनाने की संसद की शक्ति को काफी हद तक सीमित कर दिया था. यह प्रावधान 1947 में जम्मू-कश्मीर के पूर्व शासक महाराजा हरि सिंह द्वारा हस्ताक्षरित विलय पत्र के परिणामस्वरूप लागू किया गया था. 5 अगस्त, 2019 को, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने अनुच्छेद 370(1) के तहत, संविधान (जम्मू और कश्मीर पर लागू) आदेश, 2019 (सीओ 272) को समाप्त कर दिया. जिससे जम्मू और कश्मीर राज्य में संविधान के सभी प्रावधानों को लागू करने की अनुमति मिल गई.
अनुच्छेद 370 में संशोधन केवल जम्मू-कश्मीर संविधान सभा की सिफारिश के बाद ही किया जा सकता था. हालांकि, राष्ट्रपति के आदेश (सीओ 272) ने केंद्र सरकार को ऐसी सिफारिश के बिना अनुच्छेद 370 में संशोधन करने की अनुमति दी. यह संविधान के अनुच्छेद 367 के एक अन्य भाग में संशोधन करके किया गया था जो बताता है कि इसकी व्याख्या कैसे की जानी चाहिए.
संशोधन के परिणामस्वरूप, अनुच्छेद 370(3) में 'संविधान सभा' शब्द को 'राज्य की विधान सभा' के रूप में पढ़ा जाएगा. और 'जम्मू-कश्मीर सरकार' शब्द को 'जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल' के रूप में पढ़ा जाएगा. चूंकि उस समय जम्मू-कश्मीर राष्ट्रपति शासन के अधीन था, इसलिए जम्मू-कश्मीर विधान सभा की शक्तियां केंद्रीय संसद में निहित थीं. तदनुसार, सीओ 272 की घोषणा के कुछ घंटों बाद, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अनुच्छेद 370 (3) के तहत राज्यसभा में एक वैधानिक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की सिफारिश की गई.
6 अगस्त को, तत्कालीन राष्ट्रपति कोविंद ने राज्यसभा की सिफारिश को लागू करते हुए एक उद्घोषणा (सीओ 273) जारी की. परिणामस्वरूप, अनुच्छेद 370 के सभी खंड प्रभावी नहीं रहे. सिर्फ खंड 1 को छोड़कर, जिसे यह कहते हुए संशोधित किया गया था कि भारत का संविधान जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू होता है. इससे जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म हो गया.
इसके बाद, गृह मंत्री अमित शाह ने जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन विधेयक, 2019 पेश किया, जिसमें लद्दाख को एक केंद्र शासित प्रदेश (विधानमंडल के बिना) और जम्मू और कश्मीर को एक अलग केंद्र शासित प्रदेश (विधानमंडल के साथ) बनाने का प्रस्ताव था. 9 अगस्त, 2019 को राष्ट्रपति ने जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 (2019 अधिनियम) को अपनी सहमति दी, जिसने जम्मू और कश्मीर राज्य को विभाजित कर दिया. लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश में कारगिल और लेह जिले शामिल हैं, जबकि जम्मू और कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश में पूर्ववर्ती जम्मू और कश्मीर राज्य के सभी शेष क्षेत्र शामिल हैं.
याचिकाएं क्या कहती हैं?
याचिकाएं 5 और 6 अगस्त, 2019 के राष्ट्रपति आदेशों के साथ-साथ 2019 अधिनियम को चुनौती देती हैं, यह तर्क देते हुए कि वे 'असंवैधानिक, शून्य और निष्क्रिय' हैं. राष्ट्रपति के आदेशों को चुनौती देने के लिए, याचिकाकर्ताओं ने 'रंग योग्यता के सिद्धांत' का आह्वान किया है, जो अप्रत्यक्ष रूप से कुछ ऐसा करने की मांग करने वाले कानून को पारित करने पर रोक लगाता है जिसे सीधे करने की अनुमति नहीं है. अनुच्छेद 370(3) राष्ट्रपति को संविधान सभा की सहमति के बिना अनुच्छेद 370 में संशोधन करने से रोकता है.
समानता के अधिकार के उल्लंघन का आरोप
हालांकि, राष्ट्रपति के दो आदेशों ने वास्तव में विधानसभा की सहमति के बिना ऐसा किया, जिससे उन्हें संवैधानिक चुनौती का सामना करना पड़ा. याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया है कि 2019 अधिनियम असंवैधानिक है क्योंकि अनुच्छेद 3 संसद को संघीय लोकतांत्रिक राज्यों को केंद्र शासित प्रदेश जैसे कम प्रतिनिधि वाले रूप में डाउनग्रेड करने की शक्ति नहीं देता है. परिसीमन प्रक्रिया को इस आधार पर भी चुनौती दी गई है कि यह समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है.
बड़ा सवाल क्या स्वायत्त स्वशासन का अधिकार मूल अधिकार है
संविधान के भाग III के तहत एक मौलिक अधिकार कई याचिकाओं में यह भी तर्क दिया गया है कि संघीय लोकतंत्र में, स्वायत्त स्वशासन का अधिकार संविधान के भाग III के तहत एक मौलिक अधिकार है और कानून द्वारा स्थापित उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना इसे छीना नहीं जा सकता है. अर्ध-संघीय संतुलन के घोर उल्लंघन की ओर इशारा करते हुए, याचिकाकर्ताओं ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि इसे निरस्त करना बहुलवादी संघवाद के सिद्धांत के खिलाफ है.
जानें क्या हैं मामले की सुनवाई की पूरी टाइम लाइन?
पूर्व सीजेआई द्वारा इन याचिकाओं को 'शीघ्र सूचीबद्ध' करने के कई आश्वासनों के बावजूद, बड़ी पीठ को भेजे जाने से इनकार करने के आदेश के बाद मामला सुनवाई के लिए नहीं आया. इस मामले की आखिरी सुनवाई मार्च 2020 में हुई थी. पिछले साल, 25 अप्रैल और 25 सितंबर को, पूर्व सीजेआई एनवी रमना ने मामले को 'जल्दी' सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करने पर सहमति व्यक्त की थी. लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला. अप्रैल 2022 में, जब स्थानीय चुनाव आसन्न होने के आधार पर मामले को तत्काल सूचीबद्ध करने का उल्लेख किया गया. तो पूर्व सीजेआई ने टिप्पणी की थी कि मुझे देखने दो.
इसी तरह, मामले को 23 सितंबर, 2022 को वर्तमान सीजेआई के पूर्ववर्ती, न्यायमूर्ति यूयू के समक्ष शीघ्र सूचीबद्ध करने के लिए उल्लेख किया गया था. ललित ने वादा किया था कि 10 अक्टूबर को दशहरा अवकाश समाप्त होने के बाद इसकी सुनवाई होगी. इस मामले का जिक्र इस साल फरवरी और पिछले साल 14 दिसंबर में सीजेआई चंद्रचूड़ के सामने भी किया गया था. उस समय, सीजेआई ने याचिकाकर्ताओं को आश्वासन दिया था कि वह -जांच करेंगे और एक तारीख देंगे.