हैदराबादः ज्ञान के अर्थशास्त्र में किसी भी देश का विकास बगैर किसी अपवाद के शिक्षा में उसके निवेश और रणनीति से जुड़ा होता है. चाहे वह सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) बढ़ाने का हो या पर्याप्त प्रतिशत में युवाओं की क्षमता का दोहन हो या देश को पूरी तरह से एक पूर्ण विकसित राष्ट्र में बदलना हो, इसका निदान अवसरों को बढ़ाने और डिग्रियां देने व शिक्षण तंत्रों के लचीलेपन की रणनीति के बीच अच्छे तालमेल में निहित है.
भारत सरकार का पूरी शिक्षा प्रणाली को बहुप्रतीक्षित नई शिक्षा नीति (एनईपी) के माध्यम से पूर्ण रूप से दुरुस्त करने फैसला एक स्वागत करने वाला कदम है. इस नीति के मसौदे को डॉक्टर कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में बहुत ही जानेमाने लोगों ने परामर्श की लंबी प्रक्रिया के बाद तैयार किया है. दस्तावेज के मसौदे को सार्वजनिक करके लोगों के विचार आमंत्रित किए गए, इसके लिए समय भी बढ़ाया गया. अंत में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसकी मंजूरी दी और अब इसे जल्द ही संसद में पेश किया जाएगा.
देर आए, दुरुस्त आए
यह मानना मुश्किल है कि देश को अपनी शिक्षा नीति को दुरुस्त करने में करीब तीन दशक लग गए हैं. इस अवधि के दौरान पूरी दुनिया में बहुत सारी चीजें बदल गई हैं. कंप्यूटर से सक्षम बनी प्रौद्योगिकियों, शक्तिशाली संचार प्रणालियों और आरामदायक यात्रा पर निर्भरता बढ़ गई. युवाओं के बदलते नजरिए के साथ सरकार ने नहीं टाले जा सकने वाले बदलाव को बड़ी बारीकी से आकलन किया है. समिति ने एनईपी पर बहुत सावधानी पूर्वक काम किया है ताकि कम से कम अब वर्तमान पीढ़ी के सपनों को पूरा कर सके. बेहतर शिक्षा के लिए भारतीय युवाओं को दूसरे देशों में जाने से रोकने के लिए सरकार ने इस एनईपीके रूप में अपनी महत्वाकांक्षा को सामने रखा है.
पढ़ाने के माध्यम के रूप में मातृभाषा पर जोर
एनईपी को अपनाए जाने के साथ ही स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय के स्तर पर कई आवश्यक बदलाव होने जा रहे हैं. सरकार स्कूल के स्तर पर जो एक सबसे महत्वपूर्ण काम कर रही है, वह है कम से कम पांचवी कक्षा तक मातृ भाषा के माध्यम से स्कूलों में पढ़ाई, इसके अलावा जहां तक संभव हो इसी माध्यम को ऊंची कक्षाओं तक जारी रखने का प्रयास किया जाए. तेलुगु भाषी राज्यों में इंटरमीडिएट की जो शिक्षा लोकप्रिय है वह अब स्कूली शिक्षा का हिस्सा बन जाएगी. केंद्रीय शिक्षा प्रणाली और कई अन्य राज्यों में पहले से ही यह इसी रूप में प्रचलन में है.
कई छोटे देश अपनी मूल भाषा में शिक्षण की प्रक्रिया को बढ़ावा देकर काफी लाभ ले रहे हैं. जापान, जर्मनी, फ्रांस, कोरिया, चीन आदि जैसे देश इसके बेहतरीन उदाहरण हो सकते हैं. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में इन देशों के अनुसंधान का योगदान कई देशों से ज्यादा है. इनके अनुभवों से सीख लेना आवश्यक है.
उच्च शिक्षा के लिए उपयोगी गुणात्मक बदलावों को मिली स्वीकृति
समिति की ओर से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए समिति ने व्यापक परिवर्तन और अभूतपूर्व लचीलेपन वाले रुख का प्रस्ताव किया गया और मंत्रिमंडल ने उस प्रस्ताव को अनुमोदित कर दिया. अंडर ग्रेजुएट प्रोग्राम तीन या चार साल का हो सकता है और स्नातकोत्तर कार्यक्रम एक या दो साल का. स्नातक डिग्रीधारी छात्र चाहे तो सीधे शोध के लिए प्रेरित हो सकता है जिससे उसे पीएचडी की उपाधि मिलेगी. चार साल के डिग्री कार्यक्रम में काफी सख्ती बरती जाएगी ताकि पढ़ने वाले उसी समय खुद को पढ़ाई के दौरान किए जाने वाले परियोजना के कार्य अनुभव के साथ रिपोर्ट लिखने की क्षमता से खुद को लैस कर सकें.
मौजूदा व्यवस्था से अलग एक बड़ी बात यह है कि छात्रों को न केवल उस संस्थान में जिसमें वे दाखिला लेते हैं, उन्हें पाठ्यक्रमों की एक विस्तृत श्रृंखला उपलब्ध होगी बल्कि अन्य संस्थानों में भी उन्हें कम से कम आंशिक रूप से ही सही दाखिला लेने का मौका रहेगा. ये कुछ ऐसा है जो किसी युवा के लिए सपना रहा है. लचीलापन पाठ्यक्रम के एक हिस्से या पूरे पाठ्यक्रम को ऑनलाइन पूरी करने की अनुमति देता है.
शिक्षा के उत्कृष्टत केंद्रों का निर्माण और उन्हें विकसित करना
सरकार ने एनीईपी के माध्यम से मजबूत शिक्षा केंद्रों का निर्माण करने के अपने इरादे को सार्वजनिक किया है. इसका मकसद उन स्वायत्त कॉलेजों को प्रोत्साहित किया जाना है जो विश्वविद्यालयों से संबद्ध नहीं हैं. किसी संस्थान को स्वायत्त बनने के लिए उच्च मान्यता वाला स्कोर होना चाहिए. जो संस्थान सुनिश्चित करेंगे कि उनकी गुणवत्ता अच्छी है, उनका बुनियादी ढांचा अच्छा है और पढ़ाई के अच्छे प्रचलनों का पालन करते हैं, केवल वे ही अच्छा एक्रीडिटेशन स्कोर प्राप्त करेंगे.
जिन संस्थानों ने पहले से ही ऐसे सभी गुणों का प्रदर्शन किया है, पिछले 5 सालों के दौरान उनकी स्वायत्तता के स्तर को बढ़ाने के साथ और सशक्त किया गया है. इंस्टीट्यूशन ऑफ एमिनेंस (आईओई) योजना के माध्यम से पहले ही संस्थानों के सशक्तिकरण का एक बड़ा कदम लागू किया जा चुका है. इस योजना के तहत आईओईज को लक्ष्य दिया गया है कि वे कुछेक संस्थानों को दुनिया के कुछ बेहतरीन संस्थानों के बराबरी पर लाएं, जिससे भारत नालंदा और तक्षशिला के रुतबे को फिर से हासिल कर सके.
लक्ष्य कोविड-19 संकट को अवसर में बदलने का
एनईपी के जरिए जो प्रोत्साहन मिल रहा है उससे सरकारों को कोविड-19 महामारी को एक मौके के रूप में देखना चाहिए. कोरोना दुनिया भर की कई अकादमिक योजनाओं को पंगु बनाए जा रहा है और पढ़ाई के एक पूरे साल की बर्बादी के लिए खतरा बना हुआ है. संस्थानों को अपनी सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों को उन्नत करने की जरूरत है ताकि दुनिया में कहीं से भी पढ़ने को इच्छुक छात्रों को बगैर किसी बाधा के समेकित रूप से सहजता से अवसर मुहैया करा सकें. बुनियादी ढांचे को उन्नत करके 2035 तक जीईआर हासिल करने का जो सपना है शायद उसे पहले भी हासिल किया जा सकता है.
ऑनलाइन शिक्षा के लिए बड़े पैमाने पर उपर्युक्त सामग्री विकसित करनी है और उसके लिए कई लाख शिक्षकों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है. शिक्षकों को इसका अभ्यास कराने की जरूरत है कि पाठ्य सामग्री को कैसे फिर से पढ़ने वालों के अनुकूल बनाया जाए ताकि दूर बैठा शिक्षक विषय वस्तु को पढ़ने वालों तक पहुंचाने में कोई समझौता नहीं करें.
यह भी पढें - मिसाल है कुलगाम की 15 वर्षीय बुशरा निदा, तीन किताबें हो चुकी हैं प्रकाशित
भारत सरकार एक अच्छी मंशा के साथ एनईपी को शुरू कर रही है. इसके क्रियान्वयन के लिए उतनी ही अच्छी योजनाओं पर स्थानीय राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम करने के उसके इरादे की सराहना की जानी चाहिए. एनईपी को भारत के लिए वास्तविक गेम चेंजर के रूप में बनाने के लिए इसे सरकार की प्रतिबद्धता के रूप में देखा जाना चाहिए. हम एनईपी के लागू किए जाने के शुरुआती 10 वर्ष को बहुत आशावादी नजरिए से देख सकते हैं.
(-प्रो. अप्पा राव पोडिले, कुलपति व जेसी बोस फेलो, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद )