वाराणसी: काशी वह पवित्र पावन शहर जहां लोग जीने नहीं बल्कि मरने के लिए आते हैं. काशी के बारे में ऐसी मान्यता है कि यहां मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है. कई ऐसे लोग भी होते हैं, जिनका अपना कोई नहीं होता और ना ही उनका अंतिम संस्कार करने वाला होता है, ऐसे लावारिस और असहाय लोगों का मसीहा बनारस के चौक इलाके में रहता है. इस युवक का नाम है- ओम प्रकाश शर्मा उर्फ मोनू बाबा. मोनू अपने रहन-सहन और स्टाइल से ही बनारसी मालूम होते हैं.
2017 के बाद मोनू की जिंदगी में एक बदलाव आया. उसने गरीब असहाय और अज्ञात शवों के दाह संस्कार का बीड़ा उठाया. 2019 में शुरू हुए कोरोना के आतंक में जब लोगों ने जान गवाना शुरू किया और अपनों से अपनों ने दूरी बनाई, तब भी मोनू ने ना जाने कितने ऐसे शवों का दाह संस्कार किया, जिनको लोग उस वक्त छूना भी नहीं जा रहे थे. आश्चर्य की बात तो यह है कि लगभग साढ़े 3 साल के कार्यकाल में मोनू ने अब तक लगभग 400 लावारिस असहाय और जरूरतमंद लोगों के अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को पूरा करते हुए उन्हें खुद मुखाग्नि दी है.
वाराणसी के चौक थाना क्षेत्र के ब्रह्मनाल इलाके में रहने वाले ओम प्रकाश शर्मा उर्फ मोनू बाबा कैटरिंग कारोबारी हैं. साथ ही इन्हें पूरे बनारस में डमरू दल के संस्थापक के रूप में भी जाना जाता है. सामाजिक कार्यों के साथ जुड़कर हमेशा मोनू काम करते रहे हैं. 2017 में मोनू के सामने एक धर्म संकट आ खड़ा हुआ था. धर्म संकट था- वहां एक असहाय व्यक्ति के दाह संस्कार की क्रिया को पूरा करवाना. बिना पैसे के एक बच्चा अपने पिता की लाश को अंतिम संस्कार करवाने के लिए इधर उधर भटक रहा था. जिसे देखकर मोनू और उसके साथियों का दिल पसीज गया और उन्होंने अपने खर्च पर उसका दाह संस्कार संपन्न करवाया. बस यही से उसकी जिंदगी ने करवट ली और उसने अपने इस काम को गरीब, असहाय और अज्ञात लोगों की जिंदगी के लिए लगा दी.
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मोनू का कहना है कि शुरुआत तो उसने कुछ लोगों के साथ मिलकर की, लेकिन बाद में महाश्मशान मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट के लकड़ी वालों ने उसकी खासी मदद की. बनारस के मणिकर्णिका घाट के पिंटू यादव समेत कई लकड़ी वाले लावारिस असहाय और जरूरतमंद लोगों का अंतिम संस्कार अपने खर्च पर कराते हैं. इसके अलावा वे श्राद्ध तर्पण का भी कार्य करते हैं. उनका कहना है कि उन्होंने अब तक लगभग 400 से ज्यादा शवों का अंतिम संस्कार संपन्न कराया है. कोरोना काल में ही 200 से ज्यादा लोगों का अंतिम संस्कार उन्होंने पूरा किया था.
मोनू का कहना है कि इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए वह अपने बिजनेस से हर महीने एकमुश्त राशि निकालकर सामाजिक कार्यों के लिए रख देते हैं. इसके अलावा उनके दोस्त लकड़ी कारोबारी और कुछ सामाजिक संस्थाओं की मदद से यह काम पूरा करते हैं. इस काम के लिए उन्हें किसी एनजीओ या सरकारी संगठन की ओर मदद नहीं मिलती है. हालांकि मुंबई के भी कुछ लोग उनकी मदद के लिए आगे आए हैं और उनके कामों को देख कर उनके साथ खड़े रहते हैं.
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उनका कहना है कि हम लोगों ने इसके लिए बाकायदा अब रिकॉर्ड मेंटेन करना शुरू कर दिया है. प्रतिदिन 10 से 12 शवों का संस्कार अलग-अलग घाटों पर पूरा किया जाता है. यदि मूल उपलब्ध होते हैं तो वह इस काम को पूरा कर देते हैं नहीं तो इन शवों को अंतिम संस्कार के लिए व्यवस्था करके घाट पर मौजूद लोगों के जरिए से आगे बढ़ाया जाता है. इतना ही नहीं, पुलिस को मिलने वाली लावारिस और अज्ञात लाशों के अंतिम संस्कार की प्रक्रिया भी मोनू और उनके साथी पूरा करते हैं.
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