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चुनाव हारने के बाद सपा सरकार ने जारी किया था शासनादेश, कोर्ट ने उठाया मंशा पर सवाल - Allahabad High Court

14 मार्च 2017 को सपा सरकार ने सात शैक्षणिक संस्थानों के प्रांतीयकरण को मंजूरी दी थी. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने तत्कालीन सरकार के फैसले पर तल्ख टिप्पणी की है. कोर्ट ने कहा कि चुनाव हारने के बाद सपा सरकार ने कुछ लोगों या संस्थानों को लाभ पहुंचाने के लिए यह शासनादेश जारी किया था.

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच
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Published : Jun 14, 2021, 10:24 PM IST

लखनऊ: इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने प्रदेश की पिछली सरकार द्वारा जारी सात शैक्षणिक संस्थानों के प्रांतीयकरण के एक शासनादेश को वर्तमान राज्य सरकार द्वारा निरस्त किये जाने के फैसले को सही करार दिया है. न्यायालय ने पिछली सरकार और तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा मंजूरी दिए जाने पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसा लगता है जैसे कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए यह शासनादेश जारी किया है.

'राजनीतिक कारणों से निरस्त कर दिया गया'

यह टिप्पणी न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान की एकल पीठ ने सुभाष कुमार और 78 अन्य लोगों की ओर से दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए किया. याचिकाओं में कहा गया कि 23 दिसंबर 2016 को राज्य सरकार ने सात शिक्षण संस्थानों का प्रांतीयकरण करने का शासनादेश जारी किया थ. शासनादेश को प्रदेश में आई नई सरकार ने 13 फरवरी 2018 को निरस्त कर दिया. याचीगण 23 दिसंबर 2016 को प्रांतीयकरण किए गए संस्थानों के अध्यापक और द्वितीय तथा चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे. याचियों ने आरोप लगाया कि एक प्रदेश में नई सरकार का गठन होने के बाद उक्त शासनादेश को सिर्फ राजनीतिक कारणों से निरस्त कर दिया गया. याचिका का राज्य सरकार की ओर से विरोध करते हुए कहा गया कि किसी संस्थान के प्रांतीयकरण के लिए जो जरूरी कार्यवाहियां आवश्यक होती हैं, उन्हें नहीं किया गया.

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न्यायालय की तल्ख टिप्पणी

न्यायालय ने दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि "प्रांतीयकरण के पूर्व न तो पदों की संस्तुति की गई और न ही वित्तीय मंजूरी ली गई. तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा मंजूरी दिए जाने पर टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने कहा कि 8 मार्च 2017 को सम्बंधित विभाग के प्रमुख सचिव ने नोटिंग करके फाइल को विभाग के मंत्री के पास भेज दिया, विभाग के मंत्री ने उस पर हस्ताक्षर किया, लेकिन कोई तारीख नहीं डाली, जिसके बाद फाइल तत्कालीन मुख्यमंत्री के पास भेजी गई. उन्होंने भी अपने हस्ताक्षर तो किए, लेकिन तारीख नहीं उल्लेखित की. इसके बाद फिर से प्रमुख सचिव ने अपने हस्ताक्षर किए और 14 मार्च 2017 की तारीख अंकित की."

विधानसभा चुनाव हारने के बाद दी गई मंजूरी

न्यायलाय ने कहा- तत्कालीन मुख्यमंत्री ने 8 मार्च 2017 को अथवा 14 मार्च 2017 को मंजूरी दी. इसके बाद कोर्ट ने याद दिलाते हुए अपने फैसले में कहा कि 4 जनवरी 2017 को प्रदेश में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आचार संहिता लागू की जा चुकी थी. 8 मार्च 2017 को मतदान का अंतिम चरण था और 11 मार्च 2017 को मतों की गिनती हुई. यदि तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा दी गई मंजूरी की तारीख 14 मार्च 2017 थी तो उस समय तक यह घोषित हो चुका था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी चुनाव हार चुकी है, लिहाजा उक्त मंजूरी विधानसभा चुनाव हारने के बाद दी गई.

कोर्ट ने आगे कहा कि इस मामले में किसी अपवाद या अति आवश्यक परिस्थिति का उल्लेख भी नहीं किया गया. इन परिस्थितियों को देखते हुए 23 दिसंबर 2016 का उक्त शासनादेश संदेहास्पद प्रतीत होता है. ऐसा लगता है कि चुनावों को देखते हुए, कुछ लोगों या संस्थानों को लाभ पहुंचाने के लिए यह शासनादेश जारी किया गया था.

इसे भी पढ़ें- देरी माफी के प्रार्थना पत्रों पर तार्किक तरीके से होना चाहिए विचार: हाईकोर्ट

लखनऊ: इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने प्रदेश की पिछली सरकार द्वारा जारी सात शैक्षणिक संस्थानों के प्रांतीयकरण के एक शासनादेश को वर्तमान राज्य सरकार द्वारा निरस्त किये जाने के फैसले को सही करार दिया है. न्यायालय ने पिछली सरकार और तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा मंजूरी दिए जाने पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि ऐसा लगता है जैसे कुछ लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए यह शासनादेश जारी किया है.

'राजनीतिक कारणों से निरस्त कर दिया गया'

यह टिप्पणी न्यायमूर्ति राजेश सिंह चौहान की एकल पीठ ने सुभाष कुमार और 78 अन्य लोगों की ओर से दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए किया. याचिकाओं में कहा गया कि 23 दिसंबर 2016 को राज्य सरकार ने सात शिक्षण संस्थानों का प्रांतीयकरण करने का शासनादेश जारी किया थ. शासनादेश को प्रदेश में आई नई सरकार ने 13 फरवरी 2018 को निरस्त कर दिया. याचीगण 23 दिसंबर 2016 को प्रांतीयकरण किए गए संस्थानों के अध्यापक और द्वितीय तथा चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे. याचियों ने आरोप लगाया कि एक प्रदेश में नई सरकार का गठन होने के बाद उक्त शासनादेश को सिर्फ राजनीतिक कारणों से निरस्त कर दिया गया. याचिका का राज्य सरकार की ओर से विरोध करते हुए कहा गया कि किसी संस्थान के प्रांतीयकरण के लिए जो जरूरी कार्यवाहियां आवश्यक होती हैं, उन्हें नहीं किया गया.

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न्यायालय की तल्ख टिप्पणी

न्यायालय ने दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि "प्रांतीयकरण के पूर्व न तो पदों की संस्तुति की गई और न ही वित्तीय मंजूरी ली गई. तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा मंजूरी दिए जाने पर टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने कहा कि 8 मार्च 2017 को सम्बंधित विभाग के प्रमुख सचिव ने नोटिंग करके फाइल को विभाग के मंत्री के पास भेज दिया, विभाग के मंत्री ने उस पर हस्ताक्षर किया, लेकिन कोई तारीख नहीं डाली, जिसके बाद फाइल तत्कालीन मुख्यमंत्री के पास भेजी गई. उन्होंने भी अपने हस्ताक्षर तो किए, लेकिन तारीख नहीं उल्लेखित की. इसके बाद फिर से प्रमुख सचिव ने अपने हस्ताक्षर किए और 14 मार्च 2017 की तारीख अंकित की."

विधानसभा चुनाव हारने के बाद दी गई मंजूरी

न्यायलाय ने कहा- तत्कालीन मुख्यमंत्री ने 8 मार्च 2017 को अथवा 14 मार्च 2017 को मंजूरी दी. इसके बाद कोर्ट ने याद दिलाते हुए अपने फैसले में कहा कि 4 जनवरी 2017 को प्रदेश में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर आचार संहिता लागू की जा चुकी थी. 8 मार्च 2017 को मतदान का अंतिम चरण था और 11 मार्च 2017 को मतों की गिनती हुई. यदि तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा दी गई मंजूरी की तारीख 14 मार्च 2017 थी तो उस समय तक यह घोषित हो चुका था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी चुनाव हार चुकी है, लिहाजा उक्त मंजूरी विधानसभा चुनाव हारने के बाद दी गई.

कोर्ट ने आगे कहा कि इस मामले में किसी अपवाद या अति आवश्यक परिस्थिति का उल्लेख भी नहीं किया गया. इन परिस्थितियों को देखते हुए 23 दिसंबर 2016 का उक्त शासनादेश संदेहास्पद प्रतीत होता है. ऐसा लगता है कि चुनावों को देखते हुए, कुछ लोगों या संस्थानों को लाभ पहुंचाने के लिए यह शासनादेश जारी किया गया था.

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