हैदराबाद: जैसे देश की सत्ता में आने को यूपी फतह जरूरी है ठीक उसी प्रकार प्रदेश की सत्ता पूर्वांचल के जातीय समीकरण पर निर्भर करती है और कहा जाता है कि जिस पार्टी को यहां समर्थन मिल गया, उसकी प्रदेश में सरकार बननी तय है. खैर, इन दिनों सभी सियासी पार्टियां पूर्वांचल के गणित को अपने-अपने हिसाब से हल करने में लगी हुई हैं. लेकिन देखना यह है कि किसके नंबर ज्यादा आते हैं. वहीं, आपको याद ही होगा कि कुछ माह पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे पर एक ग्रैंड एंट्री के साथ करीब 45 मिनट तक दिए अपने भाषण में पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे को लखनऊ का रास्ता बताया था. क्योंकि लखनऊ, बाराबंकी, अमेठी, अयोध्या, अंबेडकरनगर, सुलतानपुर, मऊ, आजमगढ़ और गाजीपुर से गुजरने वाला 341 किलोमीटर लंबा ये एक्सप्रेस-वे सीधे-सीधे 68 विधानसभा सीटों को कवर करता है. लेकिन इसका असर पूर्वांचल की सभी सीटों पर देखा जा सकता है.
पूर्वांचल का चुनावी गणित
पूर्वांचल के कुल 26 जिलों में 156 विधानसभा सीटें हैं. 2017 में भाजपा ने स्वामी प्रसाद मौर्य और ओमप्रकाश राजभर का साथ लेकर पूर्वांचल की 106 सीटों पर कब्जा किया था. जबकि सपा को 18, बसपा को 12, कांग्रेस को 4 और अपना दल को 8 सीटें मिली थीं.
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शाह की राह पर अखिलेश
जिस तरह साल 2017 में अमित शाह ने पिछड़ों और अति पिछड़ों को अपने पाले में खड़ा कर एक नया सियासी फार्मूला इजाद किया था, पटेल, मौर्य, चौहान, राजभर और निषाद जैसी जातियों के प्रमुख सियासी चेहरों को अपने साथ लिया था. उसी फॉर्मूलों को अब अखिलेश ने लागू कर दिया है.
इसे भी समझिए
सुभासपा के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर अपने समाज के बड़े नेताओं में से एक हैं, वाराणसी, आजमगढ़, गोरखपुर और देवीपाटन मंडल की विधानसभा सीटों में राजभर समाज का जोर है. दावे हैं कि पूर्वांचल की 20 से ज्यादा जिलों में किसी भी पार्टी का माहौल बना और बिगाड़ सकते हैं.
वहीं, कुशीनगर की पडरौना विधानसभा से विधायक स्वामी प्रसाद मौर्य का सियासी दखल रायबरेली और शाहजहांपुर होते हुए बदायूं तक माना जाता है. मौर्य बिरादरी के मतदाता यहां 6 से 8 फीसद हैं. इसमें कुशवाहा, काछी, सैनी और शाक्य आदि भी शामिल हैं.
'दारा सिंह' भी पलट सकते हैं बाजी
स्वामी प्रसाद मौर्य और ओमप्रकाश राजभर के अलावा भाजपा से सपा में आए दारा सिंह चौहान भी बड़ा फैक्टर साबित हो सकते हैं. दारा सिंह चौहान मऊ, बलिया और आजमगढ़ के अलावा इसके आसपास के अन्य जिलों में असर रखते हैं. इन्होंने 2017 में भाजपा के टिकट पर खुद तो मऊ से चुनाव जीता ही, बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग के प्रत्याशियों के लिए भी माहौल बनाया था. इनके अलावा अपना दल के संस्थापक डॉ. सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता. क्योंकि कमेरा समाज के ज्यादातर लोग कहते हैं कि वो डॉ. सोनेलाल की पत्नी के साथ सहानुभूति रखते हैं. ऐसे में उन्हें एकतरफा वोट पड़ भी सकता है.
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सपा के मास्टर स्ट्रोक का जवाब
समाजवादी पार्टी के मास्टर स्ट्रोक का जवाब भाजपा ने कांग्रेस का एक बड़ा चेहरा आरपीएन सिंह को अपने खेमे में शामिल करके दिया. आरपीएन सिंह कुशीनगर से आते हैं, इस जिले में विधानसभा की सात सीटें-खड्डा, पडरौना, रामकोला, कुशीनगर, हाटा, फाजिलनगर और तमकुहीराज हैं. इन सभी सीटों पर बड़ी तादाद में सैंथवार मतदाता हैं. हाटा विधानसभा क्षेत्र में करीब एक लाख 25 हजार, कुशीनगर में 65 हजार, पडरौना में 52 हजार, रामकोला में 55 हजार, सेवरही में 32 और खड्डा में करीब 33 हजार मतदाता कुर्मी-सैंथवार बिरादरी के हैं. इन सीटों पर सैंथवार समाज का झुकाव जिस पार्टी की तरफ होता है, उसकी जीत की राह आसान हो जाती है.
निषाद बिगाड़ सकते हैं खेल
कभी डिप्टी सीएम पद के लिए अड़े निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद भी पूर्वांचल में अच्छा प्रभाव रखते हैं. गंगा किनारे वाले पूर्वी यूपी के इलाके में निषाद समुदाय की अच्छी-खासी आबादी है. 2016 में गठित निषाद पार्टी का खासकर निषाद, केवट, मल्लाह, बेलदार और बिंद बिरादरियों में अच्छा असर माना जाता है. गोरखपुर, देवरिया, महराजगंज, जौनपुर, संत कबीरनगर, बलिया, भदोही और वाराणसी समेत 16 जिलों में निषाद समुदाय के वोट जीत-हार में बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं.
भाजपा का प्लान 'गिफ्ट'
जातियों में उलझा पूर्वांचल हर सियासी पार्टी के लिए कितना महत्वपूर्ण हैं, इसे भाजपा बखूबी समझती है. यही कारण है कि सत्ता में वापसी के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पिछले लंबे समय से उत्तर प्रदेश में ही घूम रहे हैं और एक के बाद एक तोहफे दिए जा रहे हैं. जिसमें काशी को काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, कुशीनगर में एयरपोर्ट की सौगात, सिद्धार्थनगर में मेडिकल कॉलेज का लोकार्पण, मां अन्नपूर्णा की मूर्ति वापसी मुख्य रूप से शामिल हैं.
ये हैं पूर्वांचल के अहम मुद्दे
अगर यहां के मुद्दों पर गौर करें तो पिछड़ापन, बेराजगारी और विकास सबसे बड़ा मुद्दा है. रोजगार के लिए पलायन, आवारा पशु, किसानों की बदहाली और अपराध भी मुद्दा है. हैरानी की बात यह है कि यही मुद्दे पिछले चुनावों में भी थे और इस बार भी यही मुद्दे हैं. यानी पांच साल बाद भी पूर्वांचल को कुछ खास हासिल नहीं हुआ है.
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