हैदराबाद: एक वक्त था, जब नेता घरों की शोभा हुआ करते थे. नेता तो नेता तब उनकी तस्वीरें भी मायने रखती थी. लेकिन आज ऐसा नहीं है. क्योंकि विचारों के इतर अवसरवादी सोच और भाई भतीजावाद की सियासत ने नेताओं को जनता के दिलों से दूर करने का काम किया है. यही कारण है कि आज सियासत में सम्मान का शेष कोई अस्तित्व देखने को नहीं मिलता है. आज चुनावी मंचों से नेता एक-दूसरे पर छीटा कसी करते हैं. यहां तक कि अशब्दों के इस्तेमाल से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं है. वोट के लिए जाति और धर्म के नाम पर लोगों को लड़ाते हैं. कई बार तो जुबानी बहस हिंसक रूप धारण कर लेती है. लेकिन तब बिल्कुल ऐसा नहीं था. नेताओं में आपसी संबंध बहुत मधुर होते थे.
पर आज सियासत में कड़वाहट इस हद तक घुल गई है कि विचार शून्य नेता हिंसा तक पर उतारू हो जा रहे हैं. खैर, उन दिनों नेताओं में आपसी वैचारिक मतभेद जरूर होते थे, लेकिन एक-दूसरे का पूरा सम्मान करते थे. साथ ही उनके निजी संबंध भी सियासत के इतर काफी मधुर होते थे.
चलिए आज आपको समाजवादी सरल मिजाजी व फक्कड़ उस राजनेता के बारे में बताते हैं, जो देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पराजित कर संसद पहुंचे थे. जी हां, हम बात कर रहे हैं समाजवादी नेता राजनारायण की. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि इस फक्कड़ नेता चुनाव तो जरूर जीता पर इनके पास तब चुनाव लड़ने को पर्याप्त पैसे न थे, फिर भी वो किसी तरह से चुनाव लड़े और जीते.
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वहीं, अगर 1980 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो वाराणसी में पं. कमलापति त्रिपाठी और राजनारायण एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे. लेकिन दोनों नेताओं के रिश्ते काफी मधुर थे. यहां तक कि राजनारायण पंडित जी को गुरु जी कह कर संबोधित किया करते थे. राजनारायण ने पंडित जी से यह पूछकर कि वह तो वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ेंगे, तब पर्चा दाखिल किया था.
लेकिन तत्कालीन पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को तो रायबरेली का हिसाब-किताब राजनारायण से पूरा करना था. लिहाजा आखिरी मौके पर पं. कमलापति त्रिपाठी को राजनारायण के खिलाफ बतौर उम्मीदवार मैदान में उतार दिया गया. इधर, एक दिन चुनाव प्रचार के लिए पं. कमलापति कहीं जा रहे थे. इसी दरम्यां रोहनिया के पास राजनारायण अपने कुछ लोगों के साथ खड़े थे.
तभी राजनारायण को देख पं. कमलापति ने गाड़ी रुकवाई और गाड़ी से नीचे उतर राजनारायण से मिले और पूछा आपका प्रचार कैसा चल रहा है. इतने में राजनारायण ने कहा कि गुरु जी, आप तो खा-पीकर निकले होंगे. यहां तो पैसे ही नहीं हैं. सुबह से कुछ खाया ही नहीं. पहले कुछ पैसे दीजिए, नाश्ता तो करें. कुछ पेट में जाए, तब चुनाव का बताएं.
पंडित जी ने अपने सहयोगी को इशारा कर राजनारायण को कुछ रुपये दिलाए. राजनारायण ने रुपये जेब में रखते हुए कहा कि गुरु जी यह तो नाश्ते के हो गए. जीप में तेल डलवाने को भी तो दीजिए ताकि प्रचार कर सकूं. पंडित जी ने हंसते हुए राजनारायण को कुछ रुपये और दिए और कहा कि मन से चुनाव लड़ो. पर क्या आज भी ऐसा होता है? शायद उत्तर न ही हो. पर वो भी एक दौर था, जब सियासत और निजी रिश्तें एकदम पृथक हुआ करते थे.
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