लखनऊ : समाजवादी पार्टी ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और सपा विधायक शिवपाल यादव (SP MLA Shivpal Yadav) का नाम मैनपुरी संसदीय सीट पर हो रहे उपचुनाव में प्रचारकों की सूची में शामिल कर उनके साथ राजनीतिक दांव खेला है. अखिलेश यादव के इस दांव से शिवपाल यादव बड़ी दुविधा में फंस गए हैं. बड़े भाई मुलायम सिंह यादव के निधन से खाली हुई सीट पर यदि वह अपनी पार्टी से प्रत्याशी उतारते हैं, तो यह बात उनके और उनकी पार्टी के खिलाफ जाएगी. इसीलिए उन्होंने अब तक अपनी पार्टी से प्रत्याशी नहीं उतारा है. मैनपुरी में उनका खासा प्रभाव है और वह यादव बहुल यहां के मतदाताओं को नाराज भी नहीं कर सकते. इससे इतर समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने शिवपाल को इस्तेमाल तो खूब किया है, लेकिन उन्हें उचित सम्मान कभी नहीं दिया है.
गौरतलब है कि सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद खाली हुई इस सीट पर पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अपनी पत्नी डिंपल यादव को चुनाव लड़ाने का फैसला किया था. डिंपल यादव के नामांकन में अखिलेश यादव के साथ प्रोफेसर रामगोपाल यादव तो मौजूद थे, पर जिले में प्रभाव रखने वाले शिवपाल सिंह यादव कहीं नजर नहीं आए. स्वाभाविक है कि अखिलेश को नामांकन के समय उनकी याद नहीं आई. इसे लेकर शिवपाल खेमे के नेताओं में नाराजगी भी है, लेकिन परिवार का मामला होने के कारण वह इसे जाहिर नहीं कर पा रहे. प्रचारकों की सूची में पूर्व मंत्री और अखिलेश सरकार में मिनी मुख्यमंत्री कहे जाने वाले शिवपाल सिंह यादव का नाम सातवें नंबर पर रखा गया. यह भी उनके अनुभव और योगदान को दरकिनार करने जैसा ही माना गया. बावजूद इसके अखिलेश ने प्रचारकों में उनका नाम शामिल कर शिवपाल के सामने बड़ी दुविधा खड़ी कर दी है. मुलायम के निधन के बाद होने वाले संस्कारों में शिवपाल बराबर दिखाई दिए, लेकिन शोक-संवेदना जताने वाले नेता जब सैफई पहुंचते तो अखिलेश के साथ अधिकांश समय प्रोफेसर रामगोपाल यादव ही दिखाई देते. प्रसपा कार्यकर्ता इन बातों पर पैनी नजर रख रहे थे और वह इससे आहत भी हैं.
दूसरी ओर मैनपुर से भाजपा प्रत्याशी रघुराज शाक्य शिवपाल सिंह यादव के करीबी माने जाते हैं. कुछ माह पहले तक रघुराज शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी में उपाध्यक्ष के पद पर काम कर रहे थे. इस संसदीय सीट पर यादवों के बाद सबसे बड़ी संख्या शाक्य मतदाताओं की है. ऐसे में यदि रघुराज शाक्य को शिवपाल सिंह यादव का समर्थन मिल जाता, तो उनकी स्थिति काफी मजबूत हो सकती थी. प्रसपा के कुछ नेता मानते हैं कि शायद यही कारण है कि अखिलेश यादव ने प्रचारकों की सूची में शिवपाल का नाम शामिल किया. यदि उन्हें वाकई अपने चाचा से स्नेह था तो नामांकन में भी साथ ले जाना चाहिए था. दूसरी ओर अखिलेश यादव के इस दांव के बाद राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाने वाले शिवपाल सिंह यादव भी ऊहापोह में हैं. उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वह क्या करें. यही कारण है कि वह अब तक इस विषय में सार्वजनिक तौर पर कुछ भी कहने से बचते रहे हैं.
2022 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले शिवपाल यादव मतभेद भुलाकर अपने भतीजे और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ हो लिए थे, बावजूद इसके उन्हें वहां न तो सम्मान मिला और न ही अखिलेश ने वादा पूरा किया. शिवपाल का आरोप है कि अखिलेश ने उनकी पार्टी के पचास से ज्यादा नेताओं को सपा से टिकट देने का वादा किया था, किंतु ऐन मौके पर उन्होंने सिर्फ शिवपाल को टिकट दिया. प्रसपा के नेताओं का भी सपाइयों ने तिरस्कार किया. अखिलेश ने शिवपाल यादव से चुनाव में प्रचार कराना तक उचित नहीं समझा, शिवपाल इससे बहुत आहत हुए. चुनाव नतीजे आने के बाद भी अखिलेश यादव की उपेक्षा जारी रही और उन्हें विधायक दल की बैठक में भी नहीं बुलाया गया. मजबूरन शिवपाल ने अखिलेश पर गंभीर आरोप लगाए और आगे से अपनी पार्टी को मजबूत करने और उसी से चुनाव लड़ने का फैसला किया. अब एक बार फिर अखिलेश ने दांव चला है. देखना होगा कि शिवपाल इसका क्या जवाब देते हैं?
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