लखनऊ : दो साल पहले उत्तर प्रदेश में अवैध बूचड़खाने पर लगाई गई पाबंदी सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का नतीजा था, जो साल 2012 में दिया गया था. मार्च 2017 में अवैध बूचड़खानों पर पाबंदी हुई तो प्रदेश में मीट कारोबारी हड़ताल पर चले गए. अब इस पाबंदी को दो साल हो चुके हैं. अवैध बूचड़खानों पर सरकार की पाबंदी कितनी हुई कारगर साबित हुई है. आइए जानते हैं...
यूपी में सत्ता परिवर्तन होते ही जिन दो फैसलों को सरकार ने सबसे पहले लागू किया और जिन फैसलों के लागू होने पर हंगामा खड़ा हुआ. उसमें सबसे बड़ा फैसला अवैध बूचड़खाना पर पाबंदी का था. अप्रैल 2017 में अवैध बूचड़खाने पर पाबंदी लगाई गई. प्रदेश सरकार ने 2012 में बूचड़खानों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की दी गई हिदायतों का पालन शुरू किया. सुप्रीम कोर्ट ने साफ लिखा अवैध बूचड़खाने बंद किया जाए. जहां लाइसेंसी तौर पर जानवरों के कटान का काम हो वहां प्रदूषण और फूड सेफ्टी के मानकों का पालन हो. काटने से पहले और बाद में जानवर की डॉक्टरी जांच हो. ड्रेनेज की व्यवस्था हो, खुले में मांस दिखाई ना पड़े.
वहीं प्रदेश सरकार के इस फैसले ने मांस के कारोबार पर बड़ा असर डाला. दरअसल उत्तर प्रदेश में देश के 50 फीसदी मांस कारोबार का उत्पादन होता है. भारत में मांस का उद्योग कुल 15 हजार करोड़ का है और 25 लाख लोग इस कारोबार से जुड़े हैं. देश में कुल 72 लाइसेंसी बूचड़खाने हैं जिनमें से 38 सिर्फ उत्तर प्रदेश में हैं. अवैध बूचड़खाने पर पाबंदी ने तमाम कारोबारियों को बेहाल कर दिया. जो पुश्तों से इस कारोबार से ही अपने परिवार की रोजी रोटी चला रहे थे. सरकार ने पाबंदी तो लगा दी लेकिन उनके लिए कोई इंतजाम नहीं किया.
ऐसे हजारों मीट कारोबारियों की नुमाइंदगी करने वाले बड़े कारोबारी कहते हैं कि सरकार ने फैसला जल्दबाजी में लिया. दो साल बाद भी जिन दो बूचड़खानों को आगरा और सहारनपुर में बनाने का फैसला लिया था वह आज तक नहीं बन पाए. वहीं दूसरी ओर अवैध बूचड़खाना चलाने वालों पर सरकार ने कार्रवाई नहीं की जिसके चलते वैध मीट कारोबारी आज भी बेहाल हैं.
किसी भी सरकार के लिए समाज के हर तबके का ख्याल रखना. हर व्यापार की तरक्की करना पहली जरूरत और जिम्मेदारी होती है. अवैध पशु कटान को रोकने के लिए अवैध बूचड़खानों पर पाबंदी का फरमान जारी किया, कार्रवाई भी की गई, लेकिन यह कार्रवाई सरकारी दस्तावेजों में ही दर्ज की गई.