लखनऊ: हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने घटना के समय अन्यत्र (कहीं भी) उपस्थिति की दलील (प्ली ऑफ एलीबाई) पर अहम फैसला दिया है. इसके साथ कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अन्यत्र उपस्थिति की दलील और इससे सम्बन्धित साक्ष्यों पर मामले के ट्रायल के दौरान ही विचार किया जा सकता है. यह निर्णय न्यायमूर्ति श्री प्रकाश सिंह की एकल पीठ ने ओकांश कुमार सिंह की अपील पर पारित किया.
याची की ओर से अधिवक्ता सीबी पांडेय की दलील थी कि अपीलार्थी और अन्य अभियुक्तों पर सामुहिक दुराचार का आरोप लगाते हुए पीड़िता ने बाराबंकी के जैदपुर थाने में एफआईआर लिखाई थी. एफआईआर की विवेचना के दौरान पुलिस ने घटना के समय अपीलार्थी की उपस्थिति बस्ती के एक इंटर कॉलेज में पाई थी. जहां वह भौतिक विज्ञान का लेक्चरर है. इसके साथ ही विवेचना के दौरान मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज कराए बयान में पीड़िता ने घटना का समर्थन किया. लेकिन, पुलिस को दिए दूसरे बयान (मजीद बयान) में वह घटना से मुकर गई. अपीलार्थी की ओर से कहा गया कि मेडिकल परीक्षण में भी आरोपों की पुष्टि नहीं हुई. बावजूद इसके पीड़िता के प्रोटेस्ट प्रार्थना पत्र पर विशेष न्यायालय (एससी-एसटी एक्ट) बाराबंकी ने सभी अभियुक्तों को तलब कर लिया है.
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वहीं, अपील का पीड़िता के अधिवक्ता चन्दन श्रीवास्तव ने विरोध करते हुए दलील दी कि मजिस्ट्रेट के समक्ष बयान दर्ज होने के पश्चात पीड़िता के मजीद बयान को दर्ज करने का कोई कारण नहीं था. बावजूद इसके विवेचनाधिकारी ने अपने मर्जी से पीड़िता का अभियुक्तों के समर्थन में बयान लिख लिया. यह भी कहा गया कि कुछ शपथ पत्रों व रजिस्टर के आधार पर अपीलार्थी द्वारा प्ली ऑफ एलीबाई ली जा रही है. जिसकी सत्यता की जांच सिर्फ ट्रायल के दौरान ही हो सकती है. न्यायालय ने दोनों पक्षों की बहस के पश्चात पारित अपने निर्णय में कहा कि दुराचार के मामलों में पीड़िता की एकमात्र गवाही दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त होती है. उसका किसी अन्य साक्ष्य से पुष्टि होना आवश्यक नहीं है. न्यायालय ने कहा कि इस स्तर पर प्ली ऑफ एलीबाई के साक्ष्यों पर विचार नहीं किया जा सकता है.
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