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Ruckus in UP Assembly : जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा - UP Bureau Chief Alok Tripathi

विधानसभा और लोकसभा में हंगाम (Ruckus in UP Assembly) परंपरा का रूप लेता जा रहा है. यह कहना मौजूं है कि सदन में पहुंचने वाले सत्तारूढ़ दल के जनप्रतिनिधि हों या विपक्ष दोनों की नीयत हंगामा करने की हो गई है. इस रूढ़ि को खत्म करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की होती है, लेकिन मुद्दों से बचने के लिए सत्ताधारी दल इस ओर कम ही ध्यान देते हैं. पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण.

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Published : Feb 21, 2023, 10:45 PM IST

देखें पूरी खबर.

लखनऊ : प्रदेश की विधानसभा हो या लोकसभा, दोनों के ही बजट सत्र की शुरुआत हंगामे, शोर-शराबे और अव्यवस्था के बीच हुई. यह कोई पहली बार नहीं है. देश और प्रदेश की जनता ऐसे हंगामे कई दशक से देखती रही है. ऐसे कम ही अवसर आते हैं, जब सदन में किसी मुद्दे पर अच्छी चर्चा हो पाती है. सवाल यह है कि आखिर संसद और विधान भवनों में यह नौबत आती ही क्यों है? क्या इसका कोई रास्ता नहीं है? अक्सर सत्ता में आने के बाद सरकारों में अहंकार दिखाई देता है, तो विपक्षी दल भी असहयोग को ही अपना हथियार मान लेते हैं. स्वाभाविक है कि इससे स्थिति बिगड़ती है.

जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा       फाइल फोटो
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा फाइल फोटो
संसद की एक घंटे की कार्यवाही का खर्च डेढ़ करोड़ से भी ज्यादा आता है, जबकि विधानसभा सदन की एक घंटे की कार्यवाही का खर्च 50 लाख से भी ज्यादा आता है. बावजूद इसके इन सदनों में गंभीर चर्चा के उतने अवसर नहीं आते, जितने आने चाहिए. लोगों की अपेक्षाएं पूरी होने की जगह लोगों को अक्सर निराशा का ही सामना करना पड़ता है. लोग चाहते हैं कि उनके मुद्दे सदनों में गंभीरता से उठाए जाएं और उनका समाधान भी निकले, पर सरकार और विपक्ष के मतभेद इन कोशिशों को शायद ही कभी पूरा होने देते हों. सरकारों की कोशिश होती है कि किसी तरह जरूरी विधेयक या बजट आदि पारित हो जाएं, फिर सदन चले या न चले. वहीं विपक्ष अपनी मांगों पर अटल होकर असहयोग पर उतारू हो जाता है. वैसे तो विधानसभा अध्यक्ष की जिम्मेदारी है कि वह किसी भी तरह सदन को सुचारु ढंग से चलाए, पर ऐसा लगता नहीं कि इस स्तर पर भी गंभीर प्रयास किए जाते हों. यदि सदन पूर्व होने वाली सर्वदलीय बैठक में नेता अध्यक्ष के साथ यह संकल्प कर लें कि सदन ठीक से चलने दिया जाएगा और विपक्ष की बात भी सुनी जाएगी, तो फिर कोई कारण नहीं कि हंगामा हो.
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा       फाइल फोटो
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा फाइल फोटो
यदि बात जनता की की जाए तो भला कौन चाहेगा कि वह जिसे चुनकर भेजते हैं, वह उनके मुद्दे उठाने के बजाय संसद या विधान भवन में हंगामा करे. इस संबंध में हमने कुछ लोगों से बात की. पेशे से अधिवक्ता राजीव त्रिपाठी कहते हैं 'विपक्ष का काम है जनता के मुद्दों को उठाना. सरकार को विपक्ष की बात भी सुननी चाहिए. उन्हें धैर्यपूर्वक जवाब देना चाहिए. यदि वह ऐसा नहीं करते हैं और खुद भी हंगामा करते हैं, तो इससे जनता ही प्रताड़ित होती है और जनता के ही पैसे का दुरुपयोग होता है. ऐसा नहीं होना चाहिए. पेशे से किसान प्रदीप सिंह कहते हैं कि सदन ठीक से चलना चाहिए और पक्ष-विपक्ष को एक-दूसरे की बात भी सुननी चाहिए. जब सदन में विषयों पर चर्चा होगी, तो इसका लाभ जनता को भी मिलेगा. यदि पूरा सत्र चले तो निश्चित रूप से जनता को इसका लाभ मिलेगा और ज्यादा से ज्यादा लोगों की समस्याओं पर चर्चा भी हो पाएगी.
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा       फाइल फोटो
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा फाइल फोटो
राजधानी निवासी प्रदीप सिंह इस विषय में कहते हैं कि हमारी राय है कि सत्र ठीक से चलना चाहिए, तभी जनता का भला होगा. सदन न चलने से जनता के पैसे का दुरुपयोग भी हो रहा है. पक्ष-विपक्ष को आपस में बैठकर सदन चलाने का रास्ता निकालना चाहिए. इस संबंध में एक और किसान राम स्वरूप पांडेय कहते हैं कि आम जनता के मुद्दों और जवाबदेही से बचने के लिए नेता हंगामा करते हैं और इससे जनता का पैसा बर्बाद होता है. जनप्रतिनिधि का काम है, जनता के मुद्दों को विधानसभा और लोकसभा में उठाना. सत्ता पक्ष का दायित्व है कि वह विपक्ष के सवालों का धैर्यपूर्वक सुने और उनका जवाब दे. हालांकि होता यह है कि सत्ता में मदांध होने के कारण सत्ताधारी दल विपक्ष को कुचलने की कोशिश करता है. यह जनता के धन का दुरुपयोग है.
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा       फाइल फोटो
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा फाइल फोटो
इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार शरद दीक्षित कहते हैं कि लोकसभा हो या विधानसभा आम आदमी इन सदनों में गंभीर चर्चा सुनना चाहता है, हंगामा नहीं. अटल बिहारी वाजपेयी हों या चंद्रशेखर, ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जिनके भाषण आज भी लोग सोशल मीडिया के माध्यम से सुनते हैं. यह अवसर होता है, जब नेता जनता और देश के मुद्दे उठाकर अपनी क्षमता साबित कर सकता है. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि चुनाव जीतकर संसद या विधानसभा पहुंचने के बाद नेता इसे भूल जाते हैं. अध्यक्षों को भी सदन सुचारू रूप से चले इसके लिए ज्यादा प्रयास करने चाहिए. यदि सभी पक्ष चाह लें कि वह चर्चा करेंगे और शालीनता से अपनी बात रखेंगे, तो समस्या ही नहीं है. हालांकि निराशाजनक है कि फिलहाल हालात बदलते दिखाई नहीं दे रहे हैं.

यह भी पढ़ें : Bus Stolen in karnataka : कर्नाटक में चोरी हो गई सरकारी बस, सीसीटीवी में कैद हुई घटना

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लखनऊ : प्रदेश की विधानसभा हो या लोकसभा, दोनों के ही बजट सत्र की शुरुआत हंगामे, शोर-शराबे और अव्यवस्था के बीच हुई. यह कोई पहली बार नहीं है. देश और प्रदेश की जनता ऐसे हंगामे कई दशक से देखती रही है. ऐसे कम ही अवसर आते हैं, जब सदन में किसी मुद्दे पर अच्छी चर्चा हो पाती है. सवाल यह है कि आखिर संसद और विधान भवनों में यह नौबत आती ही क्यों है? क्या इसका कोई रास्ता नहीं है? अक्सर सत्ता में आने के बाद सरकारों में अहंकार दिखाई देता है, तो विपक्षी दल भी असहयोग को ही अपना हथियार मान लेते हैं. स्वाभाविक है कि इससे स्थिति बिगड़ती है.

जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा       फाइल फोटो
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संसद की एक घंटे की कार्यवाही का खर्च डेढ़ करोड़ से भी ज्यादा आता है, जबकि विधानसभा सदन की एक घंटे की कार्यवाही का खर्च 50 लाख से भी ज्यादा आता है. बावजूद इसके इन सदनों में गंभीर चर्चा के उतने अवसर नहीं आते, जितने आने चाहिए. लोगों की अपेक्षाएं पूरी होने की जगह लोगों को अक्सर निराशा का ही सामना करना पड़ता है. लोग चाहते हैं कि उनके मुद्दे सदनों में गंभीरता से उठाए जाएं और उनका समाधान भी निकले, पर सरकार और विपक्ष के मतभेद इन कोशिशों को शायद ही कभी पूरा होने देते हों. सरकारों की कोशिश होती है कि किसी तरह जरूरी विधेयक या बजट आदि पारित हो जाएं, फिर सदन चले या न चले. वहीं विपक्ष अपनी मांगों पर अटल होकर असहयोग पर उतारू हो जाता है. वैसे तो विधानसभा अध्यक्ष की जिम्मेदारी है कि वह किसी भी तरह सदन को सुचारु ढंग से चलाए, पर ऐसा लगता नहीं कि इस स्तर पर भी गंभीर प्रयास किए जाते हों. यदि सदन पूर्व होने वाली सर्वदलीय बैठक में नेता अध्यक्ष के साथ यह संकल्प कर लें कि सदन ठीक से चलने दिया जाएगा और विपक्ष की बात भी सुनी जाएगी, तो फिर कोई कारण नहीं कि हंगामा हो.
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा       फाइल फोटो
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यदि बात जनता की की जाए तो भला कौन चाहेगा कि वह जिसे चुनकर भेजते हैं, वह उनके मुद्दे उठाने के बजाय संसद या विधान भवन में हंगामा करे. इस संबंध में हमने कुछ लोगों से बात की. पेशे से अधिवक्ता राजीव त्रिपाठी कहते हैं 'विपक्ष का काम है जनता के मुद्दों को उठाना. सरकार को विपक्ष की बात भी सुननी चाहिए. उन्हें धैर्यपूर्वक जवाब देना चाहिए. यदि वह ऐसा नहीं करते हैं और खुद भी हंगामा करते हैं, तो इससे जनता ही प्रताड़ित होती है और जनता के ही पैसे का दुरुपयोग होता है. ऐसा नहीं होना चाहिए. पेशे से किसान प्रदीप सिंह कहते हैं कि सदन ठीक से चलना चाहिए और पक्ष-विपक्ष को एक-दूसरे की बात भी सुननी चाहिए. जब सदन में विषयों पर चर्चा होगी, तो इसका लाभ जनता को भी मिलेगा. यदि पूरा सत्र चले तो निश्चित रूप से जनता को इसका लाभ मिलेगा और ज्यादा से ज्यादा लोगों की समस्याओं पर चर्चा भी हो पाएगी.
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा       फाइल फोटो
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा फाइल फोटो
राजधानी निवासी प्रदीप सिंह इस विषय में कहते हैं कि हमारी राय है कि सत्र ठीक से चलना चाहिए, तभी जनता का भला होगा. सदन न चलने से जनता के पैसे का दुरुपयोग भी हो रहा है. पक्ष-विपक्ष को आपस में बैठकर सदन चलाने का रास्ता निकालना चाहिए. इस संबंध में एक और किसान राम स्वरूप पांडेय कहते हैं कि आम जनता के मुद्दों और जवाबदेही से बचने के लिए नेता हंगामा करते हैं और इससे जनता का पैसा बर्बाद होता है. जनप्रतिनिधि का काम है, जनता के मुद्दों को विधानसभा और लोकसभा में उठाना. सत्ता पक्ष का दायित्व है कि वह विपक्ष के सवालों का धैर्यपूर्वक सुने और उनका जवाब दे. हालांकि होता यह है कि सत्ता में मदांध होने के कारण सत्ताधारी दल विपक्ष को कुचलने की कोशिश करता है. यह जनता के धन का दुरुपयोग है.
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा       फाइल फोटो
जनता की उम्मीदों पर पानी फेर देता है सदन का हंगामा फाइल फोटो
इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार शरद दीक्षित कहते हैं कि लोकसभा हो या विधानसभा आम आदमी इन सदनों में गंभीर चर्चा सुनना चाहता है, हंगामा नहीं. अटल बिहारी वाजपेयी हों या चंद्रशेखर, ऐसे नेताओं की कमी नहीं है, जिनके भाषण आज भी लोग सोशल मीडिया के माध्यम से सुनते हैं. यह अवसर होता है, जब नेता जनता और देश के मुद्दे उठाकर अपनी क्षमता साबित कर सकता है. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि चुनाव जीतकर संसद या विधानसभा पहुंचने के बाद नेता इसे भूल जाते हैं. अध्यक्षों को भी सदन सुचारू रूप से चले इसके लिए ज्यादा प्रयास करने चाहिए. यदि सभी पक्ष चाह लें कि वह चर्चा करेंगे और शालीनता से अपनी बात रखेंगे, तो समस्या ही नहीं है. हालांकि निराशाजनक है कि फिलहाल हालात बदलते दिखाई नहीं दे रहे हैं.

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