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यूपी विधानसभा चुनाव 2022: सत्ता पर काबिज होने के लिए बसपा की यह है रणनीति

उत्तर प्रदेश में सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने को लेकर बहुजन समाज पार्टी अपनी सोशल इंजीनियरिंग के सहारे रणनीति बनाने में जुटी हुई है. करीब एक दशक से सत्ता की कुर्सी से बाहर बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती 2022 के विधानसभा चुनाव को लेकर अभी से रणनीति बनाना शुरू कर चुकी हैं.

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बसपा प्रमुख मायावती.
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Published : Jun 18, 2021, 4:49 PM IST

लखनऊः मायावती ने पार्टी नेताओं को सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले पर आगे बढ़ते हुए पार्टी संगठन को मजबूत करने और समाज के सभी वर्गों को पार्टी से जोड़ने को लेकर लगातार दिशा निर्देश दे रही हैं. इसके साथ ही पार्टी संगठन को बूथ स्तर तक इसी फार्मूले के आधार पर मजबूत करने की बात कह रही हैं. जिससे यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में जीत कर सत्ता की कुर्सी पर काबिज सकें.

सत्ता की मास्टर चाबी हासिल करने की कवायद

बसपा प्रमुख मायावती सत्ता की मास्टर चाबी हासिल करने को लेकर इस समय लगातार पार्टी संगठन के प्रमुख लोगों के साथ संवाद कर रही हैं. जहां जो संगठन में फेरबदल करने हैं, उसके अनुसार वह फेरबदल भी कर रही हैं. मायावती का मुख्य फोकस दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम समीकरण साधने को लेकर है. विधानसभा में बहुजन समाज पार्टी ने आजमगढ़ से पार्टी विधायक गुड्डू जमाली को नेता प्रतिपक्ष भी बनाया है. ऐसे में बहुजन समाज पार्टी दलित, ब्राह्मण के साथ-साथ मुस्लिम समीकरण पर भी पूरा ध्यान दे रही हैं.

सोशल इंजीनियरिंग के सहारे 2007 में बनी थी सरकार

बहुजन समाज पार्टी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को आगे बढ़ाते हुए जब 2007 के विधानसभा चुनाव मैदान में उतरी तो बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला. मायावती 2007 के चुनाव में दलित, मुस्लिम, ब्राह्मण समीकरण के सहारे चुनाव मैदान में उतरी थी और बसपा को 206 सीटें मिली थी. इसके बाद जब 2012 के विधानसभा चुनाव हुए तो मायावती सत्ता से दूर हो गईं और समाजवादी पार्टी की सरकार बनी. तब से बहुजन समाज पार्टी सत्ता की कुर्सी से दूर हैं.

बसपा कार्यलय.
बसपा कार्यलय.

2012 में मुस्लिम वोट बसपा से कटे थे

2012 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा थी, उनकी हार का जिम्मेदार कांग्रेस और भाजपा पार्टी है. क्योंकि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद ही अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मुस्लिमों को ओबीसी कोटे में से आरक्षण देने की बात कही थी. जिसका भाजपा ने विरोध तो किया, लेकिन उसने इस मुद्दे की आड़ में उच्च वर्गों के साथ-साथ ओबीसी को अपनी ओर खींचने की कोशिश की थी. इससे मुस्लिम वोट बैंक सशंकित हो गया हो गया था, इसलिए मुस्लिम वोट न कांग्रेस को मिले न ही बसपा को मिलने. लगभग 70 प्रतिशत मुस्लिम समाज ने अपना एकतरफा वोट सपा उम्मीदवारों को दे दिया था. 2017 में मोदी लहर और राम मंदिर को मुद्दा बनाकर भाजपा सत्ता में आई.

इसे भी पढ़ें- यूपी विधानसभा चुनावः सोशल मीडिया से सड़क पर नहीं उतरी बसपा तो कहीं लग न जाए सदमा

फिर सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूला दोहराने की कोशिश

अब उत्तर प्रदेश में पिछले महीने पंचायत चुनाव के परिणाम आए तो बहुजन समाज पार्टी को अपेक्षा के अनुरूप काफी सफलता मिलती हुई नजर आई. मायावती की कोशिश है कि 2007 की सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला दोहराया जाए और फिर सत्ता की कुर्सी पर काबिज हुआ जा सके.

बसपा कार्यलय.
बसपा कार्यलय.

बसपा में उठापठक से हो रहा है सियासी नुकसान

बहुजन समाज पार्टी तो सोशल इंजीनियरिंग को दोहरा कर सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने का न सिर्फ सपना देख रही है. बल्कि उसे धरातल पर उतारने को लेकर समीकरण भी बना रही है. समाज के सभी वर्ग खासकर ब्राम्हण, मुस्लिम, दलित व अति पिछड़ा कार्ड खेलने पर मायावती ध्यान दे रही हैं, लेकिन इस सबके बावजूद बहुजन समाज पार्टी के अंदर जारी सियासी उठापटक का भी नुकसान मायावती को हो रहा है.

बड़े नेताओं ने छोड़ी है पार्टी

पिछले कुछ सालों में पार्टी के बड़े नेता जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य (पूर्व कैबिनेट मंत्री और मौर्य समाज के बड़े नेता), बृजेश पाठक और नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने बसपा का दामन छोड़ दिया है. इससे भी पार्टी को भी नुकसान हुआ है. उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी बसपा की ताकत कमजोर हुई है और वर्तमान समय में सिर्फ बहुजन समाज पार्टी के 9 विधायक ही बचे हैं. वहीं 11 विधायकों को मायावती ने बाहर का रास्ता भी दिखाया हुआ है. जो बसपा के अंदर एक बड़ी फूट मानी जा रही है.

बसपा कार्यकर्ता.
बसपा कार्यकर्ता.

दलित वोट बैंक के समीकरण

यूपी में दलितों की आबादी लगभग 21.5 प्रतिशत है. प्रदेश में 85 सीटें अनुसूचित जाति (एससी) के लिए रिजर्व हैं. इन सीटों पर दलित निर्णायक हैं और दलितों को बीएसपी का वोट बैंक माना जाता रहा है, लेकिन पिछले तीन-चार साल में ये वोट बैंक बसपा से छिटकता हुआ दिखा है. राज्य की 85 रिजर्व सीटों पर 2012 में सपा ने 31.5 फीसदी वोट लेकर 58 सीट और बसपा ने 27.5 प्रतिशत वोटों के साथ 15 सीटें जीती थीं. वहीं बीजेपी को 14.4 फीसदी वोट के साथ महज 3 सीटें मिली थीं.

2017 के चुनाव में स्थित बिल्कुल उलट हो गई. 2017 के नतीजों में 69 सीटें भाजपा ने जीतीं. उन्हें 39.8 प्रतिशत वोट मिले. वहीं सपा को 19.3 फीसदी वोट और 7 सीट मिलीं, जबकि बीएसपी सिर्फ 2 सीटें जीत पाई. एक बार फिर बसपा प्रमुख अपने खोए हुए वोट बैंक को मजबूत करने के लिए सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर काम कर रही हैं. अब देखना यह होगा यह कितना सफल हो सकता है.

क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक

दलित चिंतक प्रोफेसर रविकांत कहते हैं कि 2012 से मायावती सत्ता से बाहर हैं, इस बीच उन्होंने कई तरह के प्रयोग भी किए, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. उन्होंने उत्तर प्रदेश में धुर विरोधी समाजवादी पार्टी से गठबंधन भी किया, लेकिन उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हो पाई. यही नहीं पंचायत चुनाव के दौरान मायावती ने प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में एक जिला पंचायत सदस्य की सीट ब्राह्मण के लिए आरक्षित की थी और मायावती 2007 वाली सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को आगे बढ़ाते हुए नजर भी आ रही हैं.

इसे भी पढ़ें- विधानसभा चुनाव से पहले बसपा में उठापठक, हो सकता है बड़ा सियासी नुकसान !

ब्राह्मण समाज को लेकर संजीदा है बसपा

प्रोफेसर रविकांत ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी ब्राह्मणों को लेकर काफी संजीदा भी है. क्योंकि मौजूदा सरकार से यह समाज नाराज चल रहा है. ऐसी स्थिति में मायावती जो सोशल इंजीनियर के फार्मूले पर आगे बढ़ रही हैं. स्वाभाविक रूप से उसे उसका फायदा मिल सकता है. उत्तर प्रदेश में जो ब्राह्मण वोट बैंक है, वह करीब 10 से 12 फीसद है तो मायावती इस वोट बैंक को साथ लाने को लेकर तमाम तरह के प्रयास कर रही हैं.

बसपा का झंडा.
बसपा का चुनावी झंडा.

इसके अलावा जो 19% उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक हैं. उसे भी साधने की मायावती लगातार कोशिश कर रही हैं. इसके लिए उन्होंने विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर मुस्लिम बिरादरी से आने वाले गुड्डू जमाली को जिम्मेदारी दी है. इसके अलावा जो दलित वोट बैंक है, वह भी मायावती के साथ लगातार बना हुआ है और यह जो 11 फीसद दलित वोट बैंक है, इसमें जो जाटव बिरादरी है, वह मायावती के साथ लगातार हैं. ऐसे में यह जो दलित मुस्लिम ब्राह्मण समीकरण है. इस फार्मूले को आगे बढ़ाते हुए मायावती सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने का जो सपना देख रही हैं.

लखनऊः मायावती ने पार्टी नेताओं को सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले पर आगे बढ़ते हुए पार्टी संगठन को मजबूत करने और समाज के सभी वर्गों को पार्टी से जोड़ने को लेकर लगातार दिशा निर्देश दे रही हैं. इसके साथ ही पार्टी संगठन को बूथ स्तर तक इसी फार्मूले के आधार पर मजबूत करने की बात कह रही हैं. जिससे यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में जीत कर सत्ता की कुर्सी पर काबिज सकें.

सत्ता की मास्टर चाबी हासिल करने की कवायद

बसपा प्रमुख मायावती सत्ता की मास्टर चाबी हासिल करने को लेकर इस समय लगातार पार्टी संगठन के प्रमुख लोगों के साथ संवाद कर रही हैं. जहां जो संगठन में फेरबदल करने हैं, उसके अनुसार वह फेरबदल भी कर रही हैं. मायावती का मुख्य फोकस दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम समीकरण साधने को लेकर है. विधानसभा में बहुजन समाज पार्टी ने आजमगढ़ से पार्टी विधायक गुड्डू जमाली को नेता प्रतिपक्ष भी बनाया है. ऐसे में बहुजन समाज पार्टी दलित, ब्राह्मण के साथ-साथ मुस्लिम समीकरण पर भी पूरा ध्यान दे रही हैं.

सोशल इंजीनियरिंग के सहारे 2007 में बनी थी सरकार

बहुजन समाज पार्टी सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को आगे बढ़ाते हुए जब 2007 के विधानसभा चुनाव मैदान में उतरी तो बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला. मायावती 2007 के चुनाव में दलित, मुस्लिम, ब्राह्मण समीकरण के सहारे चुनाव मैदान में उतरी थी और बसपा को 206 सीटें मिली थी. इसके बाद जब 2012 के विधानसभा चुनाव हुए तो मायावती सत्ता से दूर हो गईं और समाजवादी पार्टी की सरकार बनी. तब से बहुजन समाज पार्टी सत्ता की कुर्सी से दूर हैं.

बसपा कार्यलय.
बसपा कार्यलय.

2012 में मुस्लिम वोट बसपा से कटे थे

2012 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा थी, उनकी हार का जिम्मेदार कांग्रेस और भाजपा पार्टी है. क्योंकि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद ही अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मुस्लिमों को ओबीसी कोटे में से आरक्षण देने की बात कही थी. जिसका भाजपा ने विरोध तो किया, लेकिन उसने इस मुद्दे की आड़ में उच्च वर्गों के साथ-साथ ओबीसी को अपनी ओर खींचने की कोशिश की थी. इससे मुस्लिम वोट बैंक सशंकित हो गया हो गया था, इसलिए मुस्लिम वोट न कांग्रेस को मिले न ही बसपा को मिलने. लगभग 70 प्रतिशत मुस्लिम समाज ने अपना एकतरफा वोट सपा उम्मीदवारों को दे दिया था. 2017 में मोदी लहर और राम मंदिर को मुद्दा बनाकर भाजपा सत्ता में आई.

इसे भी पढ़ें- यूपी विधानसभा चुनावः सोशल मीडिया से सड़क पर नहीं उतरी बसपा तो कहीं लग न जाए सदमा

फिर सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूला दोहराने की कोशिश

अब उत्तर प्रदेश में पिछले महीने पंचायत चुनाव के परिणाम आए तो बहुजन समाज पार्टी को अपेक्षा के अनुरूप काफी सफलता मिलती हुई नजर आई. मायावती की कोशिश है कि 2007 की सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला दोहराया जाए और फिर सत्ता की कुर्सी पर काबिज हुआ जा सके.

बसपा कार्यलय.
बसपा कार्यलय.

बसपा में उठापठक से हो रहा है सियासी नुकसान

बहुजन समाज पार्टी तो सोशल इंजीनियरिंग को दोहरा कर सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने का न सिर्फ सपना देख रही है. बल्कि उसे धरातल पर उतारने को लेकर समीकरण भी बना रही है. समाज के सभी वर्ग खासकर ब्राम्हण, मुस्लिम, दलित व अति पिछड़ा कार्ड खेलने पर मायावती ध्यान दे रही हैं, लेकिन इस सबके बावजूद बहुजन समाज पार्टी के अंदर जारी सियासी उठापटक का भी नुकसान मायावती को हो रहा है.

बड़े नेताओं ने छोड़ी है पार्टी

पिछले कुछ सालों में पार्टी के बड़े नेता जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य (पूर्व कैबिनेट मंत्री और मौर्य समाज के बड़े नेता), बृजेश पाठक और नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने बसपा का दामन छोड़ दिया है. इससे भी पार्टी को भी नुकसान हुआ है. उत्तर प्रदेश विधानसभा में भी बसपा की ताकत कमजोर हुई है और वर्तमान समय में सिर्फ बहुजन समाज पार्टी के 9 विधायक ही बचे हैं. वहीं 11 विधायकों को मायावती ने बाहर का रास्ता भी दिखाया हुआ है. जो बसपा के अंदर एक बड़ी फूट मानी जा रही है.

बसपा कार्यकर्ता.
बसपा कार्यकर्ता.

दलित वोट बैंक के समीकरण

यूपी में दलितों की आबादी लगभग 21.5 प्रतिशत है. प्रदेश में 85 सीटें अनुसूचित जाति (एससी) के लिए रिजर्व हैं. इन सीटों पर दलित निर्णायक हैं और दलितों को बीएसपी का वोट बैंक माना जाता रहा है, लेकिन पिछले तीन-चार साल में ये वोट बैंक बसपा से छिटकता हुआ दिखा है. राज्य की 85 रिजर्व सीटों पर 2012 में सपा ने 31.5 फीसदी वोट लेकर 58 सीट और बसपा ने 27.5 प्रतिशत वोटों के साथ 15 सीटें जीती थीं. वहीं बीजेपी को 14.4 फीसदी वोट के साथ महज 3 सीटें मिली थीं.

2017 के चुनाव में स्थित बिल्कुल उलट हो गई. 2017 के नतीजों में 69 सीटें भाजपा ने जीतीं. उन्हें 39.8 प्रतिशत वोट मिले. वहीं सपा को 19.3 फीसदी वोट और 7 सीट मिलीं, जबकि बीएसपी सिर्फ 2 सीटें जीत पाई. एक बार फिर बसपा प्रमुख अपने खोए हुए वोट बैंक को मजबूत करने के लिए सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर काम कर रही हैं. अब देखना यह होगा यह कितना सफल हो सकता है.

क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक

दलित चिंतक प्रोफेसर रविकांत कहते हैं कि 2012 से मायावती सत्ता से बाहर हैं, इस बीच उन्होंने कई तरह के प्रयोग भी किए, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. उन्होंने उत्तर प्रदेश में धुर विरोधी समाजवादी पार्टी से गठबंधन भी किया, लेकिन उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हो पाई. यही नहीं पंचायत चुनाव के दौरान मायावती ने प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में एक जिला पंचायत सदस्य की सीट ब्राह्मण के लिए आरक्षित की थी और मायावती 2007 वाली सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को आगे बढ़ाते हुए नजर भी आ रही हैं.

इसे भी पढ़ें- विधानसभा चुनाव से पहले बसपा में उठापठक, हो सकता है बड़ा सियासी नुकसान !

ब्राह्मण समाज को लेकर संजीदा है बसपा

प्रोफेसर रविकांत ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी ब्राह्मणों को लेकर काफी संजीदा भी है. क्योंकि मौजूदा सरकार से यह समाज नाराज चल रहा है. ऐसी स्थिति में मायावती जो सोशल इंजीनियर के फार्मूले पर आगे बढ़ रही हैं. स्वाभाविक रूप से उसे उसका फायदा मिल सकता है. उत्तर प्रदेश में जो ब्राह्मण वोट बैंक है, वह करीब 10 से 12 फीसद है तो मायावती इस वोट बैंक को साथ लाने को लेकर तमाम तरह के प्रयास कर रही हैं.

बसपा का झंडा.
बसपा का चुनावी झंडा.

इसके अलावा जो 19% उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक हैं. उसे भी साधने की मायावती लगातार कोशिश कर रही हैं. इसके लिए उन्होंने विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर मुस्लिम बिरादरी से आने वाले गुड्डू जमाली को जिम्मेदारी दी है. इसके अलावा जो दलित वोट बैंक है, वह भी मायावती के साथ लगातार बना हुआ है और यह जो 11 फीसद दलित वोट बैंक है, इसमें जो जाटव बिरादरी है, वह मायावती के साथ लगातार हैं. ऐसे में यह जो दलित मुस्लिम ब्राह्मण समीकरण है. इस फार्मूले को आगे बढ़ाते हुए मायावती सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने का जो सपना देख रही हैं.

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