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बुंदेलखंड की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत को मिलेगी राष्ट्रीय पहचान, कमिश्नर ने की अनूठी पहल

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Published : Jul 23, 2021, 6:47 PM IST

Updated : Jul 26, 2021, 6:20 PM IST

कमिश्नर ने मंडल के तीन जिलों झांसी, जालौन और ललितपुर से संबंधित स्वर्णिम, गौरवशाली एवं ऐतिहासिक स्मृतियों के संकलन, संरक्षण, अनवेषण एवं शोध के लिए एक समिति का गठन किया है. साथ ही साहित्य विंग, पर्यटन विंग, व्यंजन विंग, रीति-रिवाज व परंपराओं से संबंधित विंग, ऐतिहासिक स्थल विंग, विशिष्ट कृषि उत्पाद संरक्षण विंग व पल्स ऑफ़ बुंदेलखंड विंग गठित किए गए हैं.

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बुंदेलखंड की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत को राष्ट्रीय पहचान दिलाने की कवायद

झांसी : बुंदेलखंड के इतिहास, साहित्य और सांस्कृतिक विरासत को वैज्ञानिक व प्रामाणिक रूप देने के मकसद से झांसी मंडल के कमिश्नर डॉक्टर अजय शंकर पांडेय ने अनूठी पहल की है. उन्होंने मंडल के तीन जिलों झांसी, जालौन और ललितपुर से संबंधित स्वर्णिम, गौरवशाली एवं ऐतिहासिक स्मृतियों के संकलन, संरक्षण, अनवेषण एवं शोध के लिए एक समिति का गठन किया है.

इसको विस्तार देने का काम भी कर रहे हैं. सरकारी और गैर सरकारी पदों पर कार्यरत लोगों को अभिरुचि के मुताबिक जिम्मेदारियां सौंपकर कमिश्नर इस समय मुख्य रूप से ग्यारह गतिविधियों पर आधारित अलग-अलग विंग की स्थापना में जुटे हैं.

बुंदेलखंड की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत को मिलेगी राष्ट्रीय पहचान

यह भी पढ़ें : कोविड के कारण नवजात बच्चों की जन्मजात बीमारियों का इलाज पेंडिंग, 400 सौ से ज्यादा बच्चों को है सर्जरी का इंतजार


इस अनूठी पहल का मकसद यह भी है कि बुंदेलखंड की धरोहरों का रेखांकन कर उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई जाए. कमिश्नर कार्यालय के आदेश के बाद झांसी, ललितपुर और जालौन जनपदों को लेकर समिति के गठन के साथ ही उनसे जुड़े विंग के गठन का भी काम शुरू हो गया है. इसके तहत चार प्रमुख मानकों संकलन, अन्वेषण, संरक्षण और शोध पर काम किए जाएंगे.

प्रमुख रूप से ग्यारह गतिविधियों को चिह्नित कर ग्यारह विंग तैयार किए गए हैं. साहित्य विंग, पर्यटन विंग, व्यंजन विंग, रीति-रिवाज व परंपराओं से संबंधित विंग, ऐतिहासिक स्थल विंग, फ्लोरा एवं फना विंग, जल संरक्षण विंग, हस्तशिल्प एवं उद्योग धंधों से सम्बन्धित विंग, नृत्य, गायन, नाटक, लोककला से संबंधित सांस्कृतिक विंग, विशिष्ट कृषि उत्पाद संरक्षण विंग व पल्स ऑफ़ बुंदेलखंड विंग गठित किए गए हैं.

बुंदेलखंड की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत
बुंदेलखंड की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत


लोगों ने दिखाई रुचि

कमिश्नर डॉ. अजय शंकर पांडेय ने ईटीवी भारत को बताया कि बुंदेलखंड ऐतिहासिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से काफी समृद्ध रहा है. हालांकि यहां की विभिन्न विधाओं को दोबारा जिंदा करने की जरूरत है. इसके लिए समिति का गठन कर ग्यारह विंग स्थापित किए गए हैं.

इसमें लोगों ने रुचि ली है और हमने संबंधित क्षेत्र के लोगों को जोड़ने का निर्देश दिया है. इसका उद्देश्य यह है कि बुंदेलखंड की धरोहरों को पूरा प्रदेश और देश जाने. इसके साथ ही इसे विश्व मानचित्र में महत्वपूर्ण स्थान दिलाया जा सके.

क्या है बुंदेलखंड का इतिहास और महत्व

'बुंदेलखंड' शब्द मध्यकाल से पहले प्रयोग में नहीं आया है. इसके विविध नाम और उनके उपयोग आधुनिक युग में ही हुए हैं. बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक में रायबहादुर महाराजसिंह ने बुंदेलखंड का इतिहास लिखा था. इसमें बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाली जागीरों और उनके शासकों के नामों की गणना की गयी थी. दीवान प्रतिपाल सिंह ने तथा पन्ना दरबार के प्रसिद्ध कवि "कृष्ण' ने अपने स्रोतों से बुंदेलखंड के इतिहास लिखे परन्तु वे विद्वान भी सामाजिक सांस्कृतिक चेतनाओं के प्रति उदासीन रहे.

दरअसल, उत्तर प्रदेश के दक्षिण और मध्य प्रदेश के पूर्वोत्तर में स्थित इस क्षेत्र की सीमाएं विभिन्न राजवंशों के समय अलग–अलग तरह से निर्धारित होतीं रहीं. अधिकांश मतों के अनुसार बुंदेलखंड गंगा, यमुना के दक्षिण और पश्चिम में बेतवा नदी से लेकर पूर्व में विंध्यवासिनी देवी के मंदिर तक फैला हुआ था.

ऐसा भी माना जाता है कि इसका नाम विंध्येलखंड था जिसका अपभ्रंश होते-होते अब यह इलाका बुंदेलखंड के नाम से जाना जाता है. वर्तमान में बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश के जालौन, झांसी, ललितपुर, चित्रकूट हमीरपुर, बांदा और महोबा तथा मध्य–प्रदेश के सागर, दमोह, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दतिया जिले आते हैं.

बुंदेलखंड के प्राचीन इतिहास के संबंध में सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण धारणा यह है कि यह चेदि जनपद का हिस्‍सा था. कुछ विद्वान चेदि जनपद को ही प्राचीन बुंदेलखंड मानते हैं.

बौद्धकालीन इतिहास के संबंध में बुंदेलखंड में प्राप्त उस समय के अवशेषों से स्पष्ट है कि बुंदेलखंड की स्थिति में इस दौरान कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ. चेदि की चर्चा न होना और वत्स, अवंति के शासकों का महत्व दर्शाया जाना इस बात का प्रमाण है कि चेदि इनमें से किसी एक के अधीन रहा होगा. पौराणिक युग का चेदि जनपद ही इस प्रकार प्राचीन बुंदेलखंड है.

चंदेलकाल में हुआ बुंदेलखंड में मूर्तिकला व वास्तुकला का विकास

चंदेल काल में बुंदेलखंड में मूर्तिकला, वास्तुकला तथा अन्य कलाओं का विशेष विकास हुआ. "आल्हा' के रचयिता जगीनक माने जाते हैं। ये चंदेलों के सैनिक सलाहकार भी थे. पृथ्वीराज से चंदेलों से संबंध भी आल्हा में दर्शाये गए हैं. सन् 1182-83 में चौहानों ने चंदेलों को सिरसागढ़ में पराजित किया था और कलिन का किला लूटा था.

कलिं को लूटने के लिए मुहम्मद कासिम, महमूद गज़नवी, शहाबुद्दीन गौरी आदि आए और विपुलधन अपने साथ ले गए. कुतुबुद्दीनएबक मुहम्मद गौरी द्वारा यहां का शासक बनाया गया था. बुंदेलखंड में कलिंग का किला सभी बादशाहों को आकर्षण का केंद्र रहा. इसे प्राप्त करने के सभी ने प्रयत्न किया.

हिन्दु और मुसलमान राजाओं में इसके निमित्त अनेक लड़ाईयां हुईं. खिलजी वंश का शासन संवत् 1377 तक माना गया है. अलाउद्दीन खिलजी को उसके मंत्री मलिक काफूर ने मारा. मुबारक के बनने पर खुसरो ने उसे समाप्त किया. कलिंजर और अजयगढ़ चंदेलों के हाथ में ही रहे.

इसी समय नरसिंहराय ने ग्वालियर पर अपना अधिकार किया. बाद में यह तोमरों के हाथ में चला गया. मानसी तोमर ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा माने गए हैं.

बुंदेलखंड के अधिकांश राजाओं ने अपनी स्वतंत्र सत्ता बनानी प्रारंभ कर दी थी. फिर वे किसी न किसी रूप में दिल्ली के तख्त से जुड़े रहते थे. बाबर के बाद हुमायूं, अकबर, जहांगीर और शाहजहां के शासन स्मरणीय रहे हैं

बुंदेलों का शासन

बुंदेल क्षत्रीय जाति के शासक थे तथा सुदूर अतीत में सूर्यवंशी राजा मनु से संबंधित थे. इक्ष्वांकु के बाद रामचंद्र के पुत्र "लव' से उनके वंशजों की परंपरा आगे बढ़ाई गई. इसी में काशी के गहरवार शाखा के करतरिराज को जोड़ा गया है. लव से करतरिराज तक के उत्तराधिकारियों में गगनसेन, कनकसेन, प्रद्युम्न आदि के नाम ही महत्वपूर्ण हैं.

ओरछा के बुंदेला

रुद्रप्रताप के साथ ही ओरछा के शासकों का युगारंभ होता है. वह सिकंदर और इब्राहिम लोधी दोनों से लड़ा था. ओरछा की स्थापना मन १५३० में हुई थी. रुद्रप्रताप बड़ा नीतिज्ञ था. ग्वालियर के तोमर नरेशों से उसने मैत्री संधी की.

उसके मृत्यु के बाद भारतीचन्द्र (1531ई०-1554 ई०) गद्दी पर बैठा. हुमायूं को जब शेरशाह ने पदच्युत करके सिंहासन हथियाया था, तब उसने बुंदेलखंड के जतारा स्थान पर दुर्ग बनवा कर हिन्दु राजाओं को दमित करने के निमित्त अपने पुत्र सलीमशाह को रखा. कलिंग का किला कीर्तिसिंह चंदेल के अधिकार में था.

शेरशाह ने इस पर आक्रमण किया तो भारतीचंद ने कीर्तिसिंह की सहायता ली. शेरशाह युद्ध में मारा गया और उसके पुत्र सलीमशाह को दिल्ली जाना पड़ा.

भारतीचंद के उपरांत मधुकरशाह (1554 ई०-1592 ई०) गद्दी पर बैठा. इसके बाद समय में स्वतंत्र ओरछा राज्य की स्थापना हुई. अकबर के बुलाने पर जब वे दरबार में नही पहुंचा तो सादिख खां को ओरछा पर चढ़ाई करने भेजा गया.

युद्ध में मधुकरशाह हार गए. मधुकरशाह के आठ पुत्र थे. उनमें सबसे ज्येष्ठ रामशाह के द्वारा बादशाह से क्षमा याचना करने पर उन्हें ओरछा का शासक बनाया गया. राज्य का प्रबंध उनके छोटे भाई इंद्रजीक किया करते थे. केशवदास नामक प्रसिद्ध कवि इन्हीं के दरबार में थे.

छत्तरपुर की स्थापना

अठारवीं शताब्दी में हिन्दुपत के वंशज सोनेशाह ने छत्तरपुर की स्थापना की. कृष्णकवि (पन्ना दरबार के राजकवि) ने इसे छत्रसाल द्वारा बसाया माना है. जबकि छत्तरपुर गजेटियर में इसे सोनोशाह का नाम ही दिया है. सोनेशाह के बाद छत्तरपुर राज्य में प्रतापसिंह, जगतराज और विश्वनाथसिंह आदि राजाओं ने शासन किया. सोनेशाह के समय में छत्तरपुर में अनेक महलों, तालाबों, मंदिरों का निर्माण करवाया.

मराठों का शासन

छत्रसाल के समय से ही मराठों का शासन बुंदेलखंड पर प्रारंभ हो गया था. उस समय ओरछा का शासक भी मराठों को चौथ देता था. दिल्ली के मुसलमान शासकों द्वारा अराजकता फैलाने के कारण उत्तर भारत में धीमे-धीमे अंग्रेजी शासन फैलता जा रहा था. सन् 1759 में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध युद्ध में गोविंदराव पंत मारे गए.

बुंदेलखंड में अंग्रेजों का आगमन हानिकारक सिद्ध हुआ. कर्नल वेलेजली ने सन् 1778 में कलपी पर आक्रमण किया और मराठों को हराया. कालांतर में नाना फड़नवीस की सलाह से माधव नारायण को पेशवा बनाया गया. मराठों और अंग्रेजों में संधि हो गई.

बाद में हिम्मत बहादुर की सहायता से अंग्रेजों नें बुंदेलखंड पर कब्जा किया. सन् 1818 ई. तक बुंदेलखंड के अधिकांश भाग अंग्रेजों के अधीन हो गए.

बुंदेलखंड में राजविद्रोह

सन् 1847 का वर्ष अंग्रेजों के लिए इसीलिए उत्तम सिद्ध हुआ क्योंकि महाराज रणजीत सिंह का पुत्र उनके बाद पंजाब का राजा बनाया गया. लार्ड डलहौज़ी इस समय गवर्नर जनरल थे. उन्होंने दिलीप सिंह को अयोग्य शासक बताकर पंजाब पर कब्जा जमा लिया. शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को पुर्तगालियों से मिले रहने का आरोप लगा कर सतारा में कैद किया. दक्षिण का बाग अपने अधीन किया.

झांसी में गंगाधरराव की मृत्यु के बाद दामोदर राव को गोद लिया गया. लक्ष्मी बाई को हटाने के प्रयत्न भी जारी हो गए परंतु इसी समय 1857 में विद्रोह की घटना घटी. बरहमपुर, मेरठ, दिल्ली, मुर्शीदाबाद, लखनऊ, इलाहाबाद, काशी, कानपुर, झांसी में विद्रोह हुआ और कई स्थान पर उपद्रव हुए. झांसी पर विद्रोहियों ने किले पर अपना अधिकार जमाया और रानी लक्ष्मीबाई ने किसी प्रकार युद्ध करके अपना अधिकार जमाया और रानी लक्ष्मीबाई कहलाईं.

सागर की 42 नंबर पलटन ने अंग्रेजी हुकूमत को मानने से मना कर दिया. बानपुर के महाराज मर्दनसिंह ने अंग्रेजी अधिकार के परगनों पर कब्जा करना प्रारंभ कर दिया. खुरई का अहमद बख्श तहसीलदार भी मर्दनसिंह मे मिल गया. ललितपुर, चंदेरी पर दोनों ने कब्जा किया. शाहगढ़ में बख्तवली ने अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित की. सागर की 31 नंबर पलटन चूंकि बागी नहीं थी, इसीलिए उसकी सहायता से मर्दनसिंह की मालथौन में डटी हुई सेना को हटाया गया. फिर 42 नंबर पलटन से युद्ध हुआ.

शनै: शनै: बख्तवली और मर्दनसिंह को नरहट की घाटी में सर हारोज ने पराजित किया. अंग्रेजी सेना झांसी की ओर बढ़ती गई. झांसी, कालपी में अंग्रेजों को प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. रानी लक्ष्मी बाई दामोदर राव (पुत्र) को अपनी पीठ पर बांधकर मर्दाने वेश में कालपी की ओर भाग गयी. इसके बाद झांसी पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया.

अंग्रेजी राज्य में विलयन

बुंदेलखडं की सीमाएं छत्रसाल के समय तक अत्यंत व्यापक थीं. इस प्रदेश में उत्तर प्रदेश के झांसी, हमीरपुर, जालौन, बांदा, मध्यप्रदेश के सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मंडला तथा मालवा संघ के शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिंड, लहार और मोंडेर के जिले और परगने शामिल थे.

इस पूर भू-भाग का क्षेत्रफल लगभग 3000 वर्गमील था. अंग्रेजी राज्य में आने से पूर्व बुंदेलखंड में अनेक जागीरें और छोटे-छोटे राज्य थे. बुंदेलखंड कमिश्नरी का निर्माण सन् 1820 में हुआ. सन् 1835 में जालौन, हमीरपुर, बांदा के जिलों को उत्तर प्रदेश और सागर के जिले को मध्यप्रदेश में मिला दिया गया जिसकी देखरेख आगरा से होती थी.

सन् 1839 में सागर और दामोह जिले को मिलाकर एक कमिश्नरी बना दी गई जिसकी देखरेख झांसी से होती थी. कुछ दिनों बाद कमिश्नरी का कार्यालय झांसी से नौगांव आ गया. सन् 1842 में सागर, दामोह जिलों में अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ा आंदोलन हुआ. परंतु फूट डालने की नीति से अंग्रेज एक बार फिर जीत गए.

इसके बाद बुंदेलखंड का इतिहास अंग्रेजी साम्राज्य की नीतियों की ही अभिव्यक्ति करता है. अनेक शहीदों ने समय-समय पर स्वतंत्रता के आन्दोलन छेड़े इसका कोई लाभ नहीं हुआ. बुंदेलखंड का इतिहास आदि से अंत तक विविधताओं से भरा है. परंतु सांस्कृतिक और धार्मिक एकता की यहां एक स्वस्थ परंपरा रही है.

झांसी : बुंदेलखंड के इतिहास, साहित्य और सांस्कृतिक विरासत को वैज्ञानिक व प्रामाणिक रूप देने के मकसद से झांसी मंडल के कमिश्नर डॉक्टर अजय शंकर पांडेय ने अनूठी पहल की है. उन्होंने मंडल के तीन जिलों झांसी, जालौन और ललितपुर से संबंधित स्वर्णिम, गौरवशाली एवं ऐतिहासिक स्मृतियों के संकलन, संरक्षण, अनवेषण एवं शोध के लिए एक समिति का गठन किया है.

इसको विस्तार देने का काम भी कर रहे हैं. सरकारी और गैर सरकारी पदों पर कार्यरत लोगों को अभिरुचि के मुताबिक जिम्मेदारियां सौंपकर कमिश्नर इस समय मुख्य रूप से ग्यारह गतिविधियों पर आधारित अलग-अलग विंग की स्थापना में जुटे हैं.

बुंदेलखंड की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत को मिलेगी राष्ट्रीय पहचान

यह भी पढ़ें : कोविड के कारण नवजात बच्चों की जन्मजात बीमारियों का इलाज पेंडिंग, 400 सौ से ज्यादा बच्चों को है सर्जरी का इंतजार


इस अनूठी पहल का मकसद यह भी है कि बुंदेलखंड की धरोहरों का रेखांकन कर उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई जाए. कमिश्नर कार्यालय के आदेश के बाद झांसी, ललितपुर और जालौन जनपदों को लेकर समिति के गठन के साथ ही उनसे जुड़े विंग के गठन का भी काम शुरू हो गया है. इसके तहत चार प्रमुख मानकों संकलन, अन्वेषण, संरक्षण और शोध पर काम किए जाएंगे.

प्रमुख रूप से ग्यारह गतिविधियों को चिह्नित कर ग्यारह विंग तैयार किए गए हैं. साहित्य विंग, पर्यटन विंग, व्यंजन विंग, रीति-रिवाज व परंपराओं से संबंधित विंग, ऐतिहासिक स्थल विंग, फ्लोरा एवं फना विंग, जल संरक्षण विंग, हस्तशिल्प एवं उद्योग धंधों से सम्बन्धित विंग, नृत्य, गायन, नाटक, लोककला से संबंधित सांस्कृतिक विंग, विशिष्ट कृषि उत्पाद संरक्षण विंग व पल्स ऑफ़ बुंदेलखंड विंग गठित किए गए हैं.

बुंदेलखंड की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत
बुंदेलखंड की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत


लोगों ने दिखाई रुचि

कमिश्नर डॉ. अजय शंकर पांडेय ने ईटीवी भारत को बताया कि बुंदेलखंड ऐतिहासिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से काफी समृद्ध रहा है. हालांकि यहां की विभिन्न विधाओं को दोबारा जिंदा करने की जरूरत है. इसके लिए समिति का गठन कर ग्यारह विंग स्थापित किए गए हैं.

इसमें लोगों ने रुचि ली है और हमने संबंधित क्षेत्र के लोगों को जोड़ने का निर्देश दिया है. इसका उद्देश्य यह है कि बुंदेलखंड की धरोहरों को पूरा प्रदेश और देश जाने. इसके साथ ही इसे विश्व मानचित्र में महत्वपूर्ण स्थान दिलाया जा सके.

क्या है बुंदेलखंड का इतिहास और महत्व

'बुंदेलखंड' शब्द मध्यकाल से पहले प्रयोग में नहीं आया है. इसके विविध नाम और उनके उपयोग आधुनिक युग में ही हुए हैं. बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक में रायबहादुर महाराजसिंह ने बुंदेलखंड का इतिहास लिखा था. इसमें बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाली जागीरों और उनके शासकों के नामों की गणना की गयी थी. दीवान प्रतिपाल सिंह ने तथा पन्ना दरबार के प्रसिद्ध कवि "कृष्ण' ने अपने स्रोतों से बुंदेलखंड के इतिहास लिखे परन्तु वे विद्वान भी सामाजिक सांस्कृतिक चेतनाओं के प्रति उदासीन रहे.

दरअसल, उत्तर प्रदेश के दक्षिण और मध्य प्रदेश के पूर्वोत्तर में स्थित इस क्षेत्र की सीमाएं विभिन्न राजवंशों के समय अलग–अलग तरह से निर्धारित होतीं रहीं. अधिकांश मतों के अनुसार बुंदेलखंड गंगा, यमुना के दक्षिण और पश्चिम में बेतवा नदी से लेकर पूर्व में विंध्यवासिनी देवी के मंदिर तक फैला हुआ था.

ऐसा भी माना जाता है कि इसका नाम विंध्येलखंड था जिसका अपभ्रंश होते-होते अब यह इलाका बुंदेलखंड के नाम से जाना जाता है. वर्तमान में बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश के जालौन, झांसी, ललितपुर, चित्रकूट हमीरपुर, बांदा और महोबा तथा मध्य–प्रदेश के सागर, दमोह, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दतिया जिले आते हैं.

बुंदेलखंड के प्राचीन इतिहास के संबंध में सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण धारणा यह है कि यह चेदि जनपद का हिस्‍सा था. कुछ विद्वान चेदि जनपद को ही प्राचीन बुंदेलखंड मानते हैं.

बौद्धकालीन इतिहास के संबंध में बुंदेलखंड में प्राप्त उस समय के अवशेषों से स्पष्ट है कि बुंदेलखंड की स्थिति में इस दौरान कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ. चेदि की चर्चा न होना और वत्स, अवंति के शासकों का महत्व दर्शाया जाना इस बात का प्रमाण है कि चेदि इनमें से किसी एक के अधीन रहा होगा. पौराणिक युग का चेदि जनपद ही इस प्रकार प्राचीन बुंदेलखंड है.

चंदेलकाल में हुआ बुंदेलखंड में मूर्तिकला व वास्तुकला का विकास

चंदेल काल में बुंदेलखंड में मूर्तिकला, वास्तुकला तथा अन्य कलाओं का विशेष विकास हुआ. "आल्हा' के रचयिता जगीनक माने जाते हैं। ये चंदेलों के सैनिक सलाहकार भी थे. पृथ्वीराज से चंदेलों से संबंध भी आल्हा में दर्शाये गए हैं. सन् 1182-83 में चौहानों ने चंदेलों को सिरसागढ़ में पराजित किया था और कलिन का किला लूटा था.

कलिं को लूटने के लिए मुहम्मद कासिम, महमूद गज़नवी, शहाबुद्दीन गौरी आदि आए और विपुलधन अपने साथ ले गए. कुतुबुद्दीनएबक मुहम्मद गौरी द्वारा यहां का शासक बनाया गया था. बुंदेलखंड में कलिंग का किला सभी बादशाहों को आकर्षण का केंद्र रहा. इसे प्राप्त करने के सभी ने प्रयत्न किया.

हिन्दु और मुसलमान राजाओं में इसके निमित्त अनेक लड़ाईयां हुईं. खिलजी वंश का शासन संवत् 1377 तक माना गया है. अलाउद्दीन खिलजी को उसके मंत्री मलिक काफूर ने मारा. मुबारक के बनने पर खुसरो ने उसे समाप्त किया. कलिंजर और अजयगढ़ चंदेलों के हाथ में ही रहे.

इसी समय नरसिंहराय ने ग्वालियर पर अपना अधिकार किया. बाद में यह तोमरों के हाथ में चला गया. मानसी तोमर ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा माने गए हैं.

बुंदेलखंड के अधिकांश राजाओं ने अपनी स्वतंत्र सत्ता बनानी प्रारंभ कर दी थी. फिर वे किसी न किसी रूप में दिल्ली के तख्त से जुड़े रहते थे. बाबर के बाद हुमायूं, अकबर, जहांगीर और शाहजहां के शासन स्मरणीय रहे हैं

बुंदेलों का शासन

बुंदेल क्षत्रीय जाति के शासक थे तथा सुदूर अतीत में सूर्यवंशी राजा मनु से संबंधित थे. इक्ष्वांकु के बाद रामचंद्र के पुत्र "लव' से उनके वंशजों की परंपरा आगे बढ़ाई गई. इसी में काशी के गहरवार शाखा के करतरिराज को जोड़ा गया है. लव से करतरिराज तक के उत्तराधिकारियों में गगनसेन, कनकसेन, प्रद्युम्न आदि के नाम ही महत्वपूर्ण हैं.

ओरछा के बुंदेला

रुद्रप्रताप के साथ ही ओरछा के शासकों का युगारंभ होता है. वह सिकंदर और इब्राहिम लोधी दोनों से लड़ा था. ओरछा की स्थापना मन १५३० में हुई थी. रुद्रप्रताप बड़ा नीतिज्ञ था. ग्वालियर के तोमर नरेशों से उसने मैत्री संधी की.

उसके मृत्यु के बाद भारतीचन्द्र (1531ई०-1554 ई०) गद्दी पर बैठा. हुमायूं को जब शेरशाह ने पदच्युत करके सिंहासन हथियाया था, तब उसने बुंदेलखंड के जतारा स्थान पर दुर्ग बनवा कर हिन्दु राजाओं को दमित करने के निमित्त अपने पुत्र सलीमशाह को रखा. कलिंग का किला कीर्तिसिंह चंदेल के अधिकार में था.

शेरशाह ने इस पर आक्रमण किया तो भारतीचंद ने कीर्तिसिंह की सहायता ली. शेरशाह युद्ध में मारा गया और उसके पुत्र सलीमशाह को दिल्ली जाना पड़ा.

भारतीचंद के उपरांत मधुकरशाह (1554 ई०-1592 ई०) गद्दी पर बैठा. इसके बाद समय में स्वतंत्र ओरछा राज्य की स्थापना हुई. अकबर के बुलाने पर जब वे दरबार में नही पहुंचा तो सादिख खां को ओरछा पर चढ़ाई करने भेजा गया.

युद्ध में मधुकरशाह हार गए. मधुकरशाह के आठ पुत्र थे. उनमें सबसे ज्येष्ठ रामशाह के द्वारा बादशाह से क्षमा याचना करने पर उन्हें ओरछा का शासक बनाया गया. राज्य का प्रबंध उनके छोटे भाई इंद्रजीक किया करते थे. केशवदास नामक प्रसिद्ध कवि इन्हीं के दरबार में थे.

छत्तरपुर की स्थापना

अठारवीं शताब्दी में हिन्दुपत के वंशज सोनेशाह ने छत्तरपुर की स्थापना की. कृष्णकवि (पन्ना दरबार के राजकवि) ने इसे छत्रसाल द्वारा बसाया माना है. जबकि छत्तरपुर गजेटियर में इसे सोनोशाह का नाम ही दिया है. सोनेशाह के बाद छत्तरपुर राज्य में प्रतापसिंह, जगतराज और विश्वनाथसिंह आदि राजाओं ने शासन किया. सोनेशाह के समय में छत्तरपुर में अनेक महलों, तालाबों, मंदिरों का निर्माण करवाया.

मराठों का शासन

छत्रसाल के समय से ही मराठों का शासन बुंदेलखंड पर प्रारंभ हो गया था. उस समय ओरछा का शासक भी मराठों को चौथ देता था. दिल्ली के मुसलमान शासकों द्वारा अराजकता फैलाने के कारण उत्तर भारत में धीमे-धीमे अंग्रेजी शासन फैलता जा रहा था. सन् 1759 में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध युद्ध में गोविंदराव पंत मारे गए.

बुंदेलखंड में अंग्रेजों का आगमन हानिकारक सिद्ध हुआ. कर्नल वेलेजली ने सन् 1778 में कलपी पर आक्रमण किया और मराठों को हराया. कालांतर में नाना फड़नवीस की सलाह से माधव नारायण को पेशवा बनाया गया. मराठों और अंग्रेजों में संधि हो गई.

बाद में हिम्मत बहादुर की सहायता से अंग्रेजों नें बुंदेलखंड पर कब्जा किया. सन् 1818 ई. तक बुंदेलखंड के अधिकांश भाग अंग्रेजों के अधीन हो गए.

बुंदेलखंड में राजविद्रोह

सन् 1847 का वर्ष अंग्रेजों के लिए इसीलिए उत्तम सिद्ध हुआ क्योंकि महाराज रणजीत सिंह का पुत्र उनके बाद पंजाब का राजा बनाया गया. लार्ड डलहौज़ी इस समय गवर्नर जनरल थे. उन्होंने दिलीप सिंह को अयोग्य शासक बताकर पंजाब पर कब्जा जमा लिया. शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को पुर्तगालियों से मिले रहने का आरोप लगा कर सतारा में कैद किया. दक्षिण का बाग अपने अधीन किया.

झांसी में गंगाधरराव की मृत्यु के बाद दामोदर राव को गोद लिया गया. लक्ष्मी बाई को हटाने के प्रयत्न भी जारी हो गए परंतु इसी समय 1857 में विद्रोह की घटना घटी. बरहमपुर, मेरठ, दिल्ली, मुर्शीदाबाद, लखनऊ, इलाहाबाद, काशी, कानपुर, झांसी में विद्रोह हुआ और कई स्थान पर उपद्रव हुए. झांसी पर विद्रोहियों ने किले पर अपना अधिकार जमाया और रानी लक्ष्मीबाई ने किसी प्रकार युद्ध करके अपना अधिकार जमाया और रानी लक्ष्मीबाई कहलाईं.

सागर की 42 नंबर पलटन ने अंग्रेजी हुकूमत को मानने से मना कर दिया. बानपुर के महाराज मर्दनसिंह ने अंग्रेजी अधिकार के परगनों पर कब्जा करना प्रारंभ कर दिया. खुरई का अहमद बख्श तहसीलदार भी मर्दनसिंह मे मिल गया. ललितपुर, चंदेरी पर दोनों ने कब्जा किया. शाहगढ़ में बख्तवली ने अपनी स्वतंत्र सत्ता घोषित की. सागर की 31 नंबर पलटन चूंकि बागी नहीं थी, इसीलिए उसकी सहायता से मर्दनसिंह की मालथौन में डटी हुई सेना को हटाया गया. फिर 42 नंबर पलटन से युद्ध हुआ.

शनै: शनै: बख्तवली और मर्दनसिंह को नरहट की घाटी में सर हारोज ने पराजित किया. अंग्रेजी सेना झांसी की ओर बढ़ती गई. झांसी, कालपी में अंग्रेजों को प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. रानी लक्ष्मी बाई दामोदर राव (पुत्र) को अपनी पीठ पर बांधकर मर्दाने वेश में कालपी की ओर भाग गयी. इसके बाद झांसी पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया.

अंग्रेजी राज्य में विलयन

बुंदेलखडं की सीमाएं छत्रसाल के समय तक अत्यंत व्यापक थीं. इस प्रदेश में उत्तर प्रदेश के झांसी, हमीरपुर, जालौन, बांदा, मध्यप्रदेश के सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मंडला तथा मालवा संघ के शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिंड, लहार और मोंडेर के जिले और परगने शामिल थे.

इस पूर भू-भाग का क्षेत्रफल लगभग 3000 वर्गमील था. अंग्रेजी राज्य में आने से पूर्व बुंदेलखंड में अनेक जागीरें और छोटे-छोटे राज्य थे. बुंदेलखंड कमिश्नरी का निर्माण सन् 1820 में हुआ. सन् 1835 में जालौन, हमीरपुर, बांदा के जिलों को उत्तर प्रदेश और सागर के जिले को मध्यप्रदेश में मिला दिया गया जिसकी देखरेख आगरा से होती थी.

सन् 1839 में सागर और दामोह जिले को मिलाकर एक कमिश्नरी बना दी गई जिसकी देखरेख झांसी से होती थी. कुछ दिनों बाद कमिश्नरी का कार्यालय झांसी से नौगांव आ गया. सन् 1842 में सागर, दामोह जिलों में अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ा आंदोलन हुआ. परंतु फूट डालने की नीति से अंग्रेज एक बार फिर जीत गए.

इसके बाद बुंदेलखंड का इतिहास अंग्रेजी साम्राज्य की नीतियों की ही अभिव्यक्ति करता है. अनेक शहीदों ने समय-समय पर स्वतंत्रता के आन्दोलन छेड़े इसका कोई लाभ नहीं हुआ. बुंदेलखंड का इतिहास आदि से अंत तक विविधताओं से भरा है. परंतु सांस्कृतिक और धार्मिक एकता की यहां एक स्वस्थ परंपरा रही है.

Last Updated : Jul 26, 2021, 6:20 PM IST
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