झांसी: अमर शहीद क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की मां जगरानी देवी की आज पुण्यतिथि है. झांसी में 22 मार्च 1951 को उनका निधन हुआ था और बड़ागांव गेट बाहर स्थित उनकी समाधि आजाद के शौर्य और जगरानी देवी के संघर्षों की कहानी को बयां करती है. आजाद का लंबे समय तक झांसी से सम्बन्ध रहा और झांसी के कई क्रांतिकारी उनके सहयोगी के रूप में आजादी की लड़ाई में अपनी भूमिका निभाते रहे थे.
जगरानी देवी की पांचवीं सन्तान थे आजाद
चंद्रशेखर आजाद जगरानी देवी की पांचवीं सन्तान थे. चार संतानों की असामयिक मौत हो चुकी थी. आजाद अंग्रेजों से लड़ते हुए 27 फरवरी 1931 को शहीद हो गए थे. इसके बाद उनके बहुत सारे सहयोगियों को जेल भेज दिया गया और कई को काला पानी की सजा हुई. झांसी के भी कई क्रांतिकारियों को जेल हुई. एक लंबे संघर्ष के बाद जब देश आजाद हुआ और आजाद के कुछ सहयोगियों ने आजाद की मां के बारे में खोजबीन की तो मालूम हुआ कि वे बेहद कठिनाई भरा जीवन बिता रही हैं. इसके बाद झांसी के क्रांतिकारी उन्हें झांसी ले आए और जीवन के आखिरी समय तक जगरानी देवी झांसी में क्रांतिकारियों के परिवार के साथ रहीं.
भगवान दास माहौर के घर में रहीं आजाद की मां
साहित्यकार अर्जुन सिंह चांद बताते हैं कि सदाशिव मलकापुरकर को जगरानी देवी अपने बेटे चंद्रशेखर आजाद की तरह प्यार करती थीं. वे भगवान दास माहौर के घर में रहीं. साहित्यकार बनारसी दास चतुर्वेदी ने क्रांतिकारियों को प्रेरित किया कि शहीदों की मां की देखभाल और सेवा करें. उनसे प्रेरणा लेकर झांसी के क्रांतिकारियों ने जगरानी देवी को झांसी लाकर उनकी सेवा कर कुछ ऋण चुकाने प्रयास किया.
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आजाद ने बुन्देलखण्ड के युवाओं को जोड़ा
इतिहासकार डॉ. चित्रगुप्त बताते हैं कि चंद्रशेखर आजाद काफी लंबे समय तक झांसी में रहे. उन्होंने यहां कार मरम्मत करने वाली दुकान पर काम किया. ओरछा के जंगलों में रहे. सातार के जंगल मे रहे. ललितपुर में रहे. उन्होंने बुन्देलखण्ड के कई युवाओं को अपने साथ जोड़ा. मास्टर रूद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर, भगवान दास माहौर जैसे कई क्रांतिकारी उस समय उनके साथ रहे.
जगरानी देवी का झांसी में हुआ देहांत
डॉ. चित्रगुप्त बताते हैं कि झांसी के क्रांतिकारी जब जगरानी देवी से मिलने मध्य प्रदेश उनके गांव गए तो उस समय उनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. उन्हें झांसी लाया गया और गंधीगर का टपरा स्थित भगवान दास माहौर के घर पर वे रहीं. यहां के क्रांतिकारियों ने उनकी सेवा और देखभाल की. झांसी में ही उन्होंने 22 मार्च 1951 को अंतिम सांस ली और यहीं पर उनकी समाधि बनी हुई है.