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गुलाम भारत में बेहतर थी गोरखपुर नगर निगम लाइब्रेरी, अब सत्ता की बेरुखी पड़ रही भारी - गोरखपुर नगर निगम की लाइब्रेरी

ईटीवी भारत 'गोरखपुर के ग्रंथालय' को लेकर एक खास रिपोर्ट पेश कर रहा है. इसके दूसरे भाग में आज हम बात करेंगे नगर निगम लाइब्रेरी की, जो आज बेहद जर्जर अवस्था में है. सत्ता की बेरुखी की मार इस लाइब्रेरी पर भारी पड़ती दिख रही है, देखिए हमारी ये स्पेशल रिपोर्ट...

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गोरखपुर नगर निगम की लाइब्रेरी,
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Published : Dec 23, 2019, 11:17 PM IST

Updated : Dec 26, 2019, 11:56 PM IST

गोरखपुर: साहित्यिक किताबों और पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं की पुस्तकों से गुलजार रहने वाली गोरखपुर नगर निगम की लाइब्रेरी मौजूदा समय में अपनी जर्जर स्थिति और पाठकों की बेरुखी का शिकार होती दिखाई दे रही है. लाइब्रेरी के प्रति शासन की बेरुखी और निगम प्रशासन की लापरवाही के चलते आजाद भारत की दुखदाई तस्वीर दिखाई पड़ रही है.

देखें वीडियो.

आजादी से पहले स्थापित की गई थी लाइब्रेरी

अंग्रेजी शासनकाल में सन 1925 में इस लाइब्रेरी को 'आमनो-अमन' के नाम से स्थापित किया गया था. जिस बिल्डिंग में यह लाइब्रेरी संचालित हो रही है, वह मौजूदा समय में एक ऐतिहासिक धरोहर बन चुकी है. एक समय इस लाइब्रेरी में करीब 15 हजार किताबें हुआ करती थी, जिसका पाठकगण अपनी जरूरत के हिसाब से उपयोग करते थे. देश की आजादी के बाद इसका नाम 'राहुल सांकृत्यायन' के नाम से हो गया, लेकिन उनके कद के अनुरूप इसकी दशा नहीं सुधारी गई.

आलमारी में ही बंद रहती हैं किताबें
मौजूदा समय में इस लाइब्रेरी की किताबें अलमारी में बंद हैं. जो पाठक यहां आते हैं, उन्हें पढ़ने के लिए दो-चार अखबार ही मिलते हैं. प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र भी अपनी किताबों के साथ यहां तैयारी करते देखे जा सकते हैं. वह इसलिए आते हैं, क्योंकि उन्हें यहां शांत माहौल मिलता है. कुछ पढ़ने-लिखने वाले लोग यहां मिल जाते हैं, जिससे उनका हौसला बढ़ता है.

लाइब्रेरी ने दिलाई नौकरी
कुछ लोग तो ऐसे भी हैं, जिन्होंने छात्र जीवन से इसका लाभ उठाया. नौकरी भी पाई और अब रिटायरमेंट होने के बाद फिर यहां से जुड़कर किताबों का अध्ययन करते हैं, लेकिन मौजूदा दौर की व्यवस्था को देखकर वह बेहद आहत हैं. उनका कहना है कि न तो अब पहले जैसे अखबार और किताबें यहां पढ़ने को मिल रहे हैं और न ही व्यवस्था सुधरी दिखाई दे रही है.

एक पाठक यहां ऐसे भी मिले, जो अपने विद्यार्थी काल में यहां पढ़ाई करते- करते एक ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आ गए, जो उन्हें नौकरी तक दिला दिए. वह कहते हैं कि उनके लिए यह स्थान एक धाम के जैसा है. फिर भला यहां-आना-जाना कैसे छूट सकता है.

नगर निगम की बेरुखी का शिकार है लाइब्रेरी
मौजूदा समय में इस लाइब्रेरी की देखभाल राकेश वर्मा के ऊपर है, जो पूरी तरह से स्वस्थ नहीं है. वह कहते हैं कि लाइब्रेरी समय से खुलती है, पाठक आते हैं, पढ़ते हैं और चले जाते हैं. सुधार के नाम पर वह कुछ भी नहीं बता पाते. नगर निगम के जिम्मेदार अधिकारी तो कुछ बोलने को ही तैयार नहीं होते.

मामूली फीस होने के बावजूद नहीं बढ़ रही सदस्यों की संख्या
मूर्धन्य लेखकों की दुर्लभ पुस्तकों और पन्नों को यहां दीमक चाट रहे हैं. यहां की किताबें लोहे की 27 अलमारियों में बंद पड़ी हैं. लकड़ी की भी 10 अलमारियां हैं. एक वर्ष की सदस्यता शुल्क यहां मात्र 100 रुपये है. इतनी मामूली फीस होने के बाद भी शहर के बीचो-बीच स्थापित इस लाइब्रेरी में सदस्यों की संख्या इसलिए नहीं बढ़ रही, क्योंकि यह लाइब्रेरी सिर्फ नाम की लाइब्रेरी ही रह गई है.

ये भी पढ़ें: गोरखपुर विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की किताबों का पता लगाएगी माइक्रोचिप

कई साहित्यकारों की किताबें हैं मौजूद
यहां जो खास पुस्तकें पाठकों के लिए मौजूद हैं, उनमें रविंद्र नाथ टैगोर की लिखी पुस्तक मास्टर जी, एस असलम की हीर रांझा, श्यामलाल द्वारा लिखित अंधेरा छट गया, धर्मपाल गुप्ता की नाना-नानी की कहानी तो पढ़ने को मिलेगी ही. साथ ही अमृता प्रीतम की सात सवाल, वाहिद प्रहरी की चंद्रमा मंगल मिशन और संचार क्रांति भी लोगों का ज्ञान बढ़ाती है.

गोरखपुर: साहित्यिक किताबों और पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं की पुस्तकों से गुलजार रहने वाली गोरखपुर नगर निगम की लाइब्रेरी मौजूदा समय में अपनी जर्जर स्थिति और पाठकों की बेरुखी का शिकार होती दिखाई दे रही है. लाइब्रेरी के प्रति शासन की बेरुखी और निगम प्रशासन की लापरवाही के चलते आजाद भारत की दुखदाई तस्वीर दिखाई पड़ रही है.

देखें वीडियो.

आजादी से पहले स्थापित की गई थी लाइब्रेरी

अंग्रेजी शासनकाल में सन 1925 में इस लाइब्रेरी को 'आमनो-अमन' के नाम से स्थापित किया गया था. जिस बिल्डिंग में यह लाइब्रेरी संचालित हो रही है, वह मौजूदा समय में एक ऐतिहासिक धरोहर बन चुकी है. एक समय इस लाइब्रेरी में करीब 15 हजार किताबें हुआ करती थी, जिसका पाठकगण अपनी जरूरत के हिसाब से उपयोग करते थे. देश की आजादी के बाद इसका नाम 'राहुल सांकृत्यायन' के नाम से हो गया, लेकिन उनके कद के अनुरूप इसकी दशा नहीं सुधारी गई.

आलमारी में ही बंद रहती हैं किताबें
मौजूदा समय में इस लाइब्रेरी की किताबें अलमारी में बंद हैं. जो पाठक यहां आते हैं, उन्हें पढ़ने के लिए दो-चार अखबार ही मिलते हैं. प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र भी अपनी किताबों के साथ यहां तैयारी करते देखे जा सकते हैं. वह इसलिए आते हैं, क्योंकि उन्हें यहां शांत माहौल मिलता है. कुछ पढ़ने-लिखने वाले लोग यहां मिल जाते हैं, जिससे उनका हौसला बढ़ता है.

लाइब्रेरी ने दिलाई नौकरी
कुछ लोग तो ऐसे भी हैं, जिन्होंने छात्र जीवन से इसका लाभ उठाया. नौकरी भी पाई और अब रिटायरमेंट होने के बाद फिर यहां से जुड़कर किताबों का अध्ययन करते हैं, लेकिन मौजूदा दौर की व्यवस्था को देखकर वह बेहद आहत हैं. उनका कहना है कि न तो अब पहले जैसे अखबार और किताबें यहां पढ़ने को मिल रहे हैं और न ही व्यवस्था सुधरी दिखाई दे रही है.

एक पाठक यहां ऐसे भी मिले, जो अपने विद्यार्थी काल में यहां पढ़ाई करते- करते एक ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आ गए, जो उन्हें नौकरी तक दिला दिए. वह कहते हैं कि उनके लिए यह स्थान एक धाम के जैसा है. फिर भला यहां-आना-जाना कैसे छूट सकता है.

नगर निगम की बेरुखी का शिकार है लाइब्रेरी
मौजूदा समय में इस लाइब्रेरी की देखभाल राकेश वर्मा के ऊपर है, जो पूरी तरह से स्वस्थ नहीं है. वह कहते हैं कि लाइब्रेरी समय से खुलती है, पाठक आते हैं, पढ़ते हैं और चले जाते हैं. सुधार के नाम पर वह कुछ भी नहीं बता पाते. नगर निगम के जिम्मेदार अधिकारी तो कुछ बोलने को ही तैयार नहीं होते.

मामूली फीस होने के बावजूद नहीं बढ़ रही सदस्यों की संख्या
मूर्धन्य लेखकों की दुर्लभ पुस्तकों और पन्नों को यहां दीमक चाट रहे हैं. यहां की किताबें लोहे की 27 अलमारियों में बंद पड़ी हैं. लकड़ी की भी 10 अलमारियां हैं. एक वर्ष की सदस्यता शुल्क यहां मात्र 100 रुपये है. इतनी मामूली फीस होने के बाद भी शहर के बीचो-बीच स्थापित इस लाइब्रेरी में सदस्यों की संख्या इसलिए नहीं बढ़ रही, क्योंकि यह लाइब्रेरी सिर्फ नाम की लाइब्रेरी ही रह गई है.

ये भी पढ़ें: गोरखपुर विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी की किताबों का पता लगाएगी माइक्रोचिप

कई साहित्यकारों की किताबें हैं मौजूद
यहां जो खास पुस्तकें पाठकों के लिए मौजूद हैं, उनमें रविंद्र नाथ टैगोर की लिखी पुस्तक मास्टर जी, एस असलम की हीर रांझा, श्यामलाल द्वारा लिखित अंधेरा छट गया, धर्मपाल गुप्ता की नाना-नानी की कहानी तो पढ़ने को मिलेगी ही. साथ ही अमृता प्रीतम की सात सवाल, वाहिद प्रहरी की चंद्रमा मंगल मिशन और संचार क्रांति भी लोगों का ज्ञान बढ़ाती है.

Intro:नोट--यह खबर स्पेशल कटेगरी की है। अच्युत द्विवेदी जी की डिमांड पर इसे भेजा जा रहा। इसलिए इसमें वॉइस ओवर नहीं किया गया है। डेस्क कम्प्लीट पैकेज बनाएगा। मैंने बाइट को सटीक एडिट कर दिया है। विजुअल भी पर्याप्त हैं।

गोरखपुर। साहित्यिक किताबों और पत्र-पत्रिकाओं के साथ प्रतियोगी परीक्षाओं की पुस्तकों से गुलजार रहने वाली गोरखपुर नगर निगम की लाइब्रेरी मौजूदा समय में अपनी जर्जर स्थिति और पाठकों की बेरुखी का शिकार हो चुकी है। जिन पाठकों की यह लाइब्रेरी अति प्रिय है वह तो जर्जर व्यवस्था में भी यहां आ रहे हैं लेकिन जिनके लिए अब यह अनुपयोगी हो चुकी है वह यहां नहीं पहुंचते। लाइब्रेरी के प्रति शासन की बेरुखी और निगम प्रशासन की लापरवाही से यह आजाद भारत की बेहद ही दुखदाई तस्वीर पेश कर रही,क्योंकि देश में अंग्रेजी शासन के समय में इसकी स्थापना 1925 में हुई थी कि लोग पढ़े और आगे बढ़े।



Body:अंग्रेजी शासनकाल में 1925 में इस लाइब्रेरी को 'आमनो- अमन' के नाम से स्थापित किया गया। जिस बिल्डिंग में यह लाइब्रेरी संचालित हो रही है वह मौजूदा समय में एक ऐतिहासिक धरोहर बन चुकी है। इस लाइब्रेरी में करीब 15 हजार किताबें हुआ करती थी जिसका पाठकगण अपनी जरूरत के हिसाब से उपयोग करते थे। देश की आजदी के बाद इसका नाम 'राहुल सांकृत्यायन' के नाम से हो गया। लेकिन उनके कद के अनुरूप इसकी दशा नहीं सुधारी गई। मौजूदा समय में इस लाइब्रेरी की किताबें अलमारी में बंद हैं। जो पाठक यहां आते हैं उन्हें पढ़ने के लिए यहां आने वाले दो चार अखबार ही मिलते हैं तो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र भी अपनी किताबों के साथ यहां तैयारी करते देखे जा सकते हैं। वह यहां इसलिए आते हैं क्योंकि उन्हें शांत माहौल मिलता है। कुछ पढ़ने लिखने वाले लोग यहां मिल जाते हैं। जिससे उनका हौसला बढ़ता है। कुछ लोग तो ऐसे भी हैं जिन्होंने छात्र जीवन से इसका लाभ उठाया। नौकरी भी पाया। और रिटायरमेंट होने के बाद फिर यहां से जुड़कर किताबों का अध्ययन करते हैं लेकिन मौजूदा दौर की व्यवस्था को देखकर वह बेहद आहत हैं। उनका कहना है ना तो अब पहले जैसे दर्जनों अखबार और किताबें यहां पढ़ने को मिल रहे हैं और ना ही व्यवस्था सुधरी दिखाई दे रही है। एक पाठक यहाँ ऐसे भी मिले जो अपने विद्यार्थी काल में यहां पढ़ाई करते- करते एक ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आ गए जो उन्हें नौकरी तक दिला दिए। वह कहते हैं उनके लिए यह स्थान एक धाम के जैसा है फिर भला यहाँ-आना-जाना कैसे छूट सकता है।

बाइट--हनुमान तिवारी, पाठक( पीला स्वेटर)
बाइट--धुरेन्द्रनाथ, पाठक( सिर पर टोपी)
बाइट--उदयनारायण पाण्डेय, पाठक, सफेद शर्ट


Conclusion:मौजूदा समय में इस लाइब्रेरी की देखभाल राकेश वर्मा के ऊपर है। जो पूरी तरह से स्वस्थ नहीं है। वह कहते हैं लाइब्रेरी समय से खुलती है, पाठक आते हैं, पढ़ते हैं चले जाते हैं। सुधार के नाम पर वह कुछ भी नहीं बता पाते। नगर निगम के जिम्मेदार अधिकारी तो कुछ बोलने को ही तैयार नहीं होते। मूर्धन्य लेखकों की दुर्लभ पुस्तकों और पन्नों को यहां दीमक चाट रहे हैं। यहां की किताबें लोहे की 27 अलमारियों में बंद पड़ी है। लकड़ी की भी 10 अलमारियां हैं। एक वर्ष की सदस्यता शुल्क यहां मात्र सौ रुपया है। इतनी मामूली फीस होने के बाद भी शहर के बीचो-बीच स्थापित इस लाइब्रेरी में सदस्यों की संख्या इसलिए नहीं बढ़ रही क्योंकि यह लाइब्रेरी सिर्फ नाम की लाइब्रेरी रह गई है। यहां जो खास पुस्तकें पाठकों के लिए मौजूद हैं उनमें रविंद्र नाथ टैगोर की लिखी पुस्तक मास्टर जी, डॉक्टर जाकिर हुसैन फारूकी की लिखी दास्तान दबीर और एस असलम की हीर रांझा, श्यामलाल द्वारा लिखित अंधेरा छट गया, धर्मपाल गुप्ता की नाना नानी की कहानी तो पढ़ने को मिलेगी ही अमृता प्रीतम की सात सवाल, वाहिद प्रहरी की चंद्रमा मंगल मिशन और संचार क्रांति भी लोगों का ज्ञान बढ़ाती है।

बाइट--राकेश वर्मा, लाइब्रेरियन, नगर निगम पुस्तकालय
बाइट--अजय, प्रतियोगी छात्र,

पीटीसी--ओपनिंग और क्लोजिंग में उपयोग करने साथ वॉइस ओवर में भी उपयोग की जा सकती है।
Last Updated : Dec 26, 2019, 11:56 PM IST
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