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BRD Student Research : वेंटिलेटर से हटाने के बाद अब नहीं होगी मौत, 95 फीसदी मरीजों की बचाई गई जान - गोरखपुर मेडिकल कॉलेज छात्रा का शोध

गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज (Gorakhpur Baba Raghav Das Medical College) की छात्रा ने वेंटिलेटर (Research On Death After Removal From Ventilator) को हटाने के बाद होने वाली मौतों को लेकर एक शोध कार्य किया. यह सोध 110 मरीजों पर किया गया. इस शोध को अपनाने के बाद वेंटिलेटर से मरीजों को हटाने के बाद होने वाली मौतों की संख्या कम हो गई.

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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Oct 4, 2023, 7:25 PM IST

गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज की छात्रा का शोध

गोरखपुर: गंभीर हालत में जब मरीज को वेंटिलेटर की जरूरत पड़ती है तो उसे जीवन रक्षक प्रणाली पर रखा जाता है. इलाज करते हुए जब चिकित्सकों का समूह यह महसूस करता है कि अब मरीज की जान को कोई खतरा नहीं है तो मरीज को वेंटिलेटर से हटाया जाता है. लेकिन, तमाम मामले ऐसे देखने को मिले कि वेंटिलेटर से हटाने के कुछ ही घंटे के बाद मरीज की मौत हो जाती है. इससे विवाद की स्थिति बनती है. ऐसे मामलों की संख्या ज्यादा थी, जो खासकर कोरोना और उसके बाद के पीरियड में देखने को मिली. यही वजह है कि बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के एनेस्थीसिया विभाग की पीजी की छात्रा रेहाना ने इस विषय पर अपना शोध कार्य शुरू किया. करीब 110 मरीजों को इसका आधार बनाया. इसमें उसके साथ विभाग के असिस्टेंट और एसोसिएट प्रोफेसर के अलावा विभाग अध्यक्ष डॉ सुनील कुमार आर्य ने भी अपनी भूमिका निभाई.

शोध में पाया गया कि वेंटिलेटर से हटाने के कुछ ही घंटे बाद जिन परिस्थितियों में मरीजों की मौत होती थी, वह शोध की नई प्रक्रिया को अपनाने के बाद कम हो गई. 95% मरीजों की जान बचाई जा रही है. मात्र 5 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनकी जान जा रही है. शोध प्रपत्र को देश में पहले स्थान पर होने का भी अवसर मिला है. यह अब तक का अग्रणी शोध है, जिससे एनेस्थीसिया विभाग उत्साहित है.

गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज
गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज

एनेस्थीसिया विभाग के अध्यक्ष डॉ सुनील कुमार आर्य ने ईटीवी भारत को बताया है कि भारत में पहली बार ऐसी स्थितियों का अध्ययन मेडिकल कॉलेज में किया गया है. इसके आधार पर रोगियों को सही समय और स्थिति में वेंटिलेटर से हटाने का सूत्र हासिल हुआ है. उन्होंने कहा कि छात्रा डॉ रेहाना अंसारी ने अपना यह शोध कार्य एक साल में पूरा किया है. मरीज के फेफड़े का अल्ट्रासाउंड कर उसकी स्थिति जानी गई है. इसमें डायाफ्रॉम (फेफड़े और पेट के बीच की झिल्ली) का अल्ट्रासाउंड कर उसकी मोटाई और सांस लेने पर डायाफ्रॉम के ऊपर-नीचे आने की स्थिति पता की गई.

इन तीनों का अध्ययन एक साथ भारत में पहली बार किया गया और पाया गया कि 110 में से 96 रोगियों को वेंटिलेटर से हटाने पर दोबारा वेंटिलेटर पर ले जाने की जरूरत नहीं पड़ी. उन्होंने कहा कि रेहाना के इस शोध प्रपत्र को कानपुर में आयोजित स्टेट लेवल के सेमिनार में प्रथम स्थान हासिल हुआ. जो इस क्षेत्र के शोध में देश स्तर पर अपने तरीके का पहला शोध है. इससे इस तरह की समस्या के निजात में बड़ी मदद मिलेगी. उन्होंने कहा कि डॉक्टर रेहाना ने अपने शोध को बड़े ही संघर्षपूर्ण जीवन शैली के बीच पूर्ण किया है. लोगों को जीवन देने के एक नए उपाय पर उसने अपने शोध कार्य को अंजाम देकर चिकित्सा जगत को बड़ी उपलब्धि दी है. इस शोध कार्य के पूर्ण होने के लिए रेहाना ने अपने सभी मार्गदर्शक का आभार जताया.

एनेस्थीसिया विभाग के अध्यक्ष डॉ सुनील कुमार आर्या के अनुसार, इस शोध कार्य में अल्ट्रासाउंड का प्रयोग ज्यादा मददगार साबित हुआ है. खासकर कोरोना काल में हुए इसके उपयोग से कई तरह की स्थितियां सामने आईं और शोध करने के लिए विवश किया. उन्होंने कहा कि विशेषज्ञों की भी राय है कि फेफड़े और डायाफ्रॉम के अल्ट्रासाउंड से सही समय और स्थिति की जानकारी मिली.
इस शोध को अंजाम तक पहुंचने वाली डॉक्टर रेहाना अंसारी कहती हैं कि रोगियों को दोबारा वेंटिलेटर पर ले जाने से उनकी जान को खतरा रहता है. इसलिए, उन्हें हटाने का सही समय जानने के लिए फेफड़े और डायाफ्रॉम की स्थिति पर अध्ययन किया गया और अध्ययन 94% सफल रहा. उन्होंने कहा कि विशेषज्ञों के अनुसार, जितनी बार रोगी वेंटिलेटर पर जाएगा, उसके पहले उसे बेहोश किया जाता है. सांस की नली में पाइप डाली जाती है और जितनी बार पाइप डाली जाएगी, उतनी बार सांस की नली को चोट पहुंचती है. इससे मरीज की जान को खतरा रहता है. नया अध्ययन रोगियों की जान के खतरे को कम करेगा.

यह भी पढ़ें: मरीज की बोतल में ग्लूकोज खत्म होने का अब नहीं रहेगा डर, फार्मेसी की छात्राओं ने बनाया स्मार्ट डिवाइस

गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज की छात्रा का शोध

गोरखपुर: गंभीर हालत में जब मरीज को वेंटिलेटर की जरूरत पड़ती है तो उसे जीवन रक्षक प्रणाली पर रखा जाता है. इलाज करते हुए जब चिकित्सकों का समूह यह महसूस करता है कि अब मरीज की जान को कोई खतरा नहीं है तो मरीज को वेंटिलेटर से हटाया जाता है. लेकिन, तमाम मामले ऐसे देखने को मिले कि वेंटिलेटर से हटाने के कुछ ही घंटे के बाद मरीज की मौत हो जाती है. इससे विवाद की स्थिति बनती है. ऐसे मामलों की संख्या ज्यादा थी, जो खासकर कोरोना और उसके बाद के पीरियड में देखने को मिली. यही वजह है कि बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के एनेस्थीसिया विभाग की पीजी की छात्रा रेहाना ने इस विषय पर अपना शोध कार्य शुरू किया. करीब 110 मरीजों को इसका आधार बनाया. इसमें उसके साथ विभाग के असिस्टेंट और एसोसिएट प्रोफेसर के अलावा विभाग अध्यक्ष डॉ सुनील कुमार आर्य ने भी अपनी भूमिका निभाई.

शोध में पाया गया कि वेंटिलेटर से हटाने के कुछ ही घंटे बाद जिन परिस्थितियों में मरीजों की मौत होती थी, वह शोध की नई प्रक्रिया को अपनाने के बाद कम हो गई. 95% मरीजों की जान बचाई जा रही है. मात्र 5 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनकी जान जा रही है. शोध प्रपत्र को देश में पहले स्थान पर होने का भी अवसर मिला है. यह अब तक का अग्रणी शोध है, जिससे एनेस्थीसिया विभाग उत्साहित है.

गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज
गोरखपुर बीआरडी मेडिकल कॉलेज

एनेस्थीसिया विभाग के अध्यक्ष डॉ सुनील कुमार आर्य ने ईटीवी भारत को बताया है कि भारत में पहली बार ऐसी स्थितियों का अध्ययन मेडिकल कॉलेज में किया गया है. इसके आधार पर रोगियों को सही समय और स्थिति में वेंटिलेटर से हटाने का सूत्र हासिल हुआ है. उन्होंने कहा कि छात्रा डॉ रेहाना अंसारी ने अपना यह शोध कार्य एक साल में पूरा किया है. मरीज के फेफड़े का अल्ट्रासाउंड कर उसकी स्थिति जानी गई है. इसमें डायाफ्रॉम (फेफड़े और पेट के बीच की झिल्ली) का अल्ट्रासाउंड कर उसकी मोटाई और सांस लेने पर डायाफ्रॉम के ऊपर-नीचे आने की स्थिति पता की गई.

इन तीनों का अध्ययन एक साथ भारत में पहली बार किया गया और पाया गया कि 110 में से 96 रोगियों को वेंटिलेटर से हटाने पर दोबारा वेंटिलेटर पर ले जाने की जरूरत नहीं पड़ी. उन्होंने कहा कि रेहाना के इस शोध प्रपत्र को कानपुर में आयोजित स्टेट लेवल के सेमिनार में प्रथम स्थान हासिल हुआ. जो इस क्षेत्र के शोध में देश स्तर पर अपने तरीके का पहला शोध है. इससे इस तरह की समस्या के निजात में बड़ी मदद मिलेगी. उन्होंने कहा कि डॉक्टर रेहाना ने अपने शोध को बड़े ही संघर्षपूर्ण जीवन शैली के बीच पूर्ण किया है. लोगों को जीवन देने के एक नए उपाय पर उसने अपने शोध कार्य को अंजाम देकर चिकित्सा जगत को बड़ी उपलब्धि दी है. इस शोध कार्य के पूर्ण होने के लिए रेहाना ने अपने सभी मार्गदर्शक का आभार जताया.

एनेस्थीसिया विभाग के अध्यक्ष डॉ सुनील कुमार आर्या के अनुसार, इस शोध कार्य में अल्ट्रासाउंड का प्रयोग ज्यादा मददगार साबित हुआ है. खासकर कोरोना काल में हुए इसके उपयोग से कई तरह की स्थितियां सामने आईं और शोध करने के लिए विवश किया. उन्होंने कहा कि विशेषज्ञों की भी राय है कि फेफड़े और डायाफ्रॉम के अल्ट्रासाउंड से सही समय और स्थिति की जानकारी मिली.
इस शोध को अंजाम तक पहुंचने वाली डॉक्टर रेहाना अंसारी कहती हैं कि रोगियों को दोबारा वेंटिलेटर पर ले जाने से उनकी जान को खतरा रहता है. इसलिए, उन्हें हटाने का सही समय जानने के लिए फेफड़े और डायाफ्रॉम की स्थिति पर अध्ययन किया गया और अध्ययन 94% सफल रहा. उन्होंने कहा कि विशेषज्ञों के अनुसार, जितनी बार रोगी वेंटिलेटर पर जाएगा, उसके पहले उसे बेहोश किया जाता है. सांस की नली में पाइप डाली जाती है और जितनी बार पाइप डाली जाएगी, उतनी बार सांस की नली को चोट पहुंचती है. इससे मरीज की जान को खतरा रहता है. नया अध्ययन रोगियों की जान के खतरे को कम करेगा.

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