गोरखपुर: रिलीजियस स्कालर्स वेलफेयर सोसायटी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आचार्य शरदचन्द्र मिश्र का कहना है कि डॉ. भीमराव आंबेडकर सिर्फ कानून के ही नहीं अर्थशास्त्र के भी प्रतिष्ठित विद्वान थे. उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय में (डीएससी) के लिए जो शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया, उसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि विदेशी शासक किस प्रकार रुपये और पौंड का असंतुलित सम्बन्ध स्थापित करके मनमाना लाभ कमा रहे हैं. उस शोध प्रबन्ध के प्रकाश में आने पर भारतीय प्रान्तीय सभाओं ने अर्थनीति के विरोध में आवाज बुलंद की, अन्ततः अंग्रेजी सरकार को अपनी यह भेदभरी अर्थनीति बदलनी पड़ी थी. वे पक्के राष्ट्रवादी थे. वे नहीं चाहते थे कि अछूत 'स्थान पृथक' लें.
विभाजन के पूर्व के उनके ये कथन याद करने योग्य हैं, 'अगर मुस्लिम लीग की देश विभाजन की बात स्वीकार की जाती है तो भारत के अखण्ड बनने की सम्भावना बिल्कुल नही रहेगी, ऐसी स्थिति में अछूत वर्ग एक नया मोर्चा बना ले तो इसकी पूरी जिम्मेदारी कांग्रेस पर रहेगी.' उनके इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि उनका इरादा था कि देश के टुकड़े न हों.
पाकिस्तान बनने का कर रहे थे विरोध
शरदचन्द्र मिश्र कहते हैं कि डॉ. आंबेडकर पाकिस्तान बनने का विरोध कर रहे थे. उनके मुकाबले विधिवेत्ता भारत में कोई न था न आज ही है. संविधान सभा की प्रारूप सभा के अध्यक्ष इसी कारण बनाये गये थे. 'भारत के प्रथम विधि मन्त्री के रूप में उन्होंने हिन्दू कोड बिल को एक-दो धाराओं के रूप में करके पास कर दिया. इस प्रकार कहा जा सकता है कि उन्होंने हिन्दुओं को एक प्रगतिशील मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया.
नारी समानता का अधिकार दिलाकर रहे
नारी को समानता का अधिकार वे दिलाकर ही रहे. अपने शोध प्रबन्धों के कारण उन्होंने विश्व स्तर पर ख्याति तो अर्जित की ही, साथ ही साथ वे एक अच्छे लेखक भी थे. उन्होने अर्थशास्त्र, राजनीति, अछूतोद्धार, कानून और सामयिक सन्दर्भों पर उत्तमोत्तम पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें उनकी विद्वता सर्वत्र परिलक्षित होती है.
आंबेडकर केवल हरिजन समाज के नेता नहीं
शरदचन्द्र मिश्र कहते हैं कि यदि हम आंबेडकर को केवल हरिजन समाज का नेता मानते हैं तो यह हमारी संकीर्ण मानसिकता का परिचायक है. उस विराट व्यक्तित्व पर प्रत्येक भारतीय गर्व कर सकता है. कितने ही विदेशी विद्वानों ने उनकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है.
व्यवहार में था शालीनता
जान ग्रन्थर ने अपनी पुस्तक 'एशिया के भीतर' में उनके विषय में लिखा है 'मैं उनके दादर निवास पर गया तो उनके पुस्तकालय को देखकर चकित रह गया, क्योंकि उसमें 35000 दुर्लभ पुस्तकें थी. जिसके लिए उन्होंने पृथक भवन बना रखा था. उनकी बातों में पाण्डित्य का रस टपकता था और व्यवहार में शालीनता' उन्होंने उन समस्त मान्यताओं की कटु आलोचना की जहां दलितों को धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से मौलिक अधिकारों से दूर रखा गया था.
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