बाराबंकीः 163 वर्ष पहले अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए आज ही के दिन बाराबंकी के ओबरी जंगल में फिरंगी सेना से मुकाबला करते हुए चाहलारी नरेश बलभद्र सिंह वीरगति को प्राप्त हुए थे. महज 18 वर्ष 3 दिन की कम आयु में चहलारी नरेश की बहादुरी के अंग्रेज भी कायल हो गए थे. कहा जाता है कि ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने बलभद्र सिंह का चित्र अपने बंकिघम पैलेस में लगवाया था.
कौन थे चहलारी नरेश
10 जून 1840 को बहराइच के चहलारी राज्य (जो अब बहराइच के महसी में स्थित) में हुआ था. उनके पिता का नाम राजा श्रीपाल सिंह और माता का नाम महारानी पंचरतन देवी था. राजा श्रीपाल साधु प्रवृत्ति के थे, लिहाजा वो कुंवर बलभद्र सिंह का बचपन मे ही राज्याभिषेक कर राजकाज से अलग हो जाना चाहते थे. कुंवर बलभद्र इसके लिए राजी नहीं हो रहे थे. आखिरकार काफी मान मनौव्वल के बाद वो राजी हो गए. लिहाजा किशोरावस्था में ही वे चहलारी के राजा बने.
वर्ष 1857 में मेरठ से निकली आजादी की जंग की क्रांति की ज्वाला चहलारी राज्य तक भी पहुंची. ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अवध क्षेत्र में बहराइच को अपना मुख्यालय बनाया था. कंपनी ने यहां फील्ड कमिश्नर और डिप्टी कमिश्नर नियुक्त किये थे. इन दोनों ने यहां दमन चक्र चला रखा था. इससे आक्रोशित होकर लोगों ने क्रांति का बिगुल फूंक दिया. गजेटियर के मुताबिक लखनऊ पर कब्जे के बाद अंग्रेजों ने अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद उनकी बेगम हजरत महल ने क्रांति की मशाल थामी. बेगम हजरत महल ने लखनऊ से भागकर बहराइच के बौंडी नरेश हरदत्त सिंह के किले में शरण ली. वहां उन्होंने 40 दिन गुजारे और इस दौरान उन्होंने अंग्रेजों से संघर्ष की रणनीति बनाई. उन्होंने अपने विश्वासपात्र राजाओं,जमींदारों और स्वाधीनता के दीवानों की बैठक बुलाकर स्वाधीनता की इस लड़ाई में कूदने की अपील की. योजना बनी कि अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए जाय. महज 18 साल की उम्र में चहलारी नरेश को इस सेना की बागडोर का जिम्मा उठाने का मौका मिला. महज कुछ दिनों पहले ही रानी कल्याणी देवी से उनकी शादी हुई थी, बावजूद उन्होंने इसकी परवाह नहीं की और अंग्रेजो से आमने-सामने युद्ध करने का फैसला किया.
योजना के मुताबिक अंग्रेजी सेना से युद्ध के लिए निकली बेगम हजरत महल और दर्जनों देशभक्त राजाओं समेत 20 हजार सैनिकों की भारी भरकम सेना का पहला पड़ाव घाघरा के पार भयारा क्षेत्र में हुआ.अगले दिन सेना नवाबगंज के जमुरिया नाले को पारकर रेठ नदी के पूरब ओबरी गांव के जंगल मे युद्ध के लिए पहुंची. दस हजार घुड़सवार और 15 हजार पैदल सेना के साथ भारी तादाद में गनें और तोपखाना से लैस अंग्रेजी सेना से मुकाबले के लिए चहलारी नरेश पहुंच गए.
चहलारी नरेश की बहादुरी से भागी अंग्रेजी सेना
12 जून 1858 को युद्ध शुरू हुआ और 16 हजार सैनिकों के साथ राजा बलभद्र सिंह ने अंग्रेजी सेना पर हमला बोल दिया और देखते ही देखते फिरंगियों की लाशें बिछने लगी. इसे देखकर अंग्रेज बौखला गए और उनकी सेना में भगदड़ मच गई. कहा जाता है कि मैदाने जंग का हाल देख अंग्रेजी सेना का सेनापति भाग खड़ा हुआ.
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बलभद्र ने एक बार फिर फिरंगियों की लाशें बिछाना शुरू की.आखिरकार राजा बलभद्र सिंह और फिरंगी सेनापति होपग्रांट आमने सामने आ गए. बलभद्र के वार से होपग्रांट का यूनियन जैक कटकर गिर गया और वो बेहोश हो गया. बदकिस्मती से उसी वक्त तोप के गोले ने उनके हाथी को धराशाई कर दिया. उन्होंने तुरंत एक घोड़े पर बैठकर फिरंगियों का नरसंहार शुरू कर दिया. एक बार फिर एक गोले ने उनके घोड़े को गिरा दिया तब पैदल ही दोनों हाथों में तलवार लेकर फिरंगियों पर कहर बरपाने लगे. इसी बीच अंग्रेज सेनापति होपग्रांट ने धोखे से पीछे से वार किया और उनका सिर धड़ से अलग हो गया. कहा जाता है कि सिर धड़ से अलग हो जाने के बाद भी वो काफी देर तक लड़ते रहे और कई फिरंगियों को मौत के घाट उतारा.
छाया चौराहे पर बनी है प्रतिमा
बाराबंकी में छाया चौराहे पर उनकी याद में एक प्रतिमा बनाई गई लेकिन अफसोस कि उस मैदान में जहां उन्हें वीरगति मिली थी वहां आज तक भी उनकी समाधि नही बन सकी. ये जंगल सेना के अधीन है, लिहाजा यहां उनका स्मारक बनने में तकनीकी अड़चनें आ रही हैं और यही वजह है कि उनकी समाधि तक पहुंचने का रास्ता भी नही बन सका. हालांकि लोगों की मांग है कि बलभद्र सिंह के जीवन-मृत्यु के इतिहास को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाय. साथ ही जगह-जगह प्रवेश द्वार बनवाये जाएं ताकि आने वाली पीढ़ी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रेरित हो सकें.