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आज भी वन्य ग्रामों में नहीं पहुंची उज्जवला योजना, लकड़ी के चूल्हे पर निर्भर हैं ग्रामीण

उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में वन्य ग्रामों में रह रहे ग्रामीणों को अब तक उज्जवला योजना का लाभ नहीं मिल सका है. अभी भी ऐसे कई ग्रामीण हैं जो जंगलों की लकड़ियों पर ही निर्भर हैं, जिससे न केवल पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है, बल्कि उसके धुएं से लोगों को भी नुकसान पहुंच रहा है.

उज्जवला योजना से वंचित है ग्रामीण
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Published : Oct 6, 2019, 9:09 PM IST

बलरामपुर: बीते तीन वर्ष पहले 1 मई वर्ष 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्ज्वला योजना का शुभारंभ किया था. इस योजना के जरिए मोदी सरकार दावा कर रही है कि उसने 10 करोड़ से अधिक परिवारों को इस योजना के तहत स्वच्छ ईंधन उपलब्ध करवा दिया है. इससे लाभान्वित परिवारों को लकड़ी से जलने वाले पारंपरिक चूहों से राहत मिल गई है, लेकिन आंकड़े कुछ और ही हकीकत बयान कर रहे हैं.

उज्जवला योजना से वंचित है ग्रामीण.
अभी भी लकड़ियों पर ही निर्भर हैं ग्रामीणमामला सोहेलवा वन्य जीव प्रभाग के अंतर्गत आने वाले उन तमाम गांवों का है, जहां पर उज्जवला योजना की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी. यहां के लोग पूरी तरह से जंगल की लकड़ियों पर ही निर्भर हैं. इनके निर्भरता के कारण न केवल पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है, बल्कि लकड़ियों का भी भारी-भरकम नुकसान हो रहा है. कहने को तो जंगली इलाके में किसी भी व्यक्ति का जाना पूरी तरह से प्रतिबंधित है, लेकिन जंगल में न केवल ग्रामीण सुबह ही घुसकर लकड़ियां बिनते और काटते नजर आते हैं, बल्कि भारी मात्रा में यहां पर लकड़हारे भी जाते हैं, जो लकड़ियां काटने और उन्हें बेचने का काम करते हैं.

इसे भी पढ़ें:- बलरामपुर: 4 प्राइवेट अस्पतालों को भेजा नोटिस, 2 का कैंसिल हुआ अनुबंध

ग्रामीण नहीं उठा सके उज्जवला योजना का लाभ
उज्जवला योजना के तहत जिले में कुल 1,88,871 गरीब परिवारों को लाभ दिया जा चुका है. दावा किया जा रहा है कि अब इन सभी परिवारों के लोग पारंपरिक चूल्हे से हटकर गैस स्टोव पर निर्भर हो गए हैं, लेकिन बलरामपुर के वन्य ग्रामों में हकीकत कुछ और ही है. जंगल के पास रहने वाले ग्रामीण न केवल पूरी तरह से लकड़ियों पर ही निर्भर हैं, बल्कि चूल्हे पर खाना बनाने के कारण महिलाओं की सेहत भी धीरे-धीरे खराब होते नजर आ रही है. जंगल से लकड़ियां बिनने गए ग्रामीण बताते हैं कि वह अपनी जान को जोखिम में डालकर भोर में ही लकड़ियां काटने के लिए जंगल और पहाड़ी इलाकों में निकल जाते हैं और शाम तक अपने घर पहुंचते हैं. वह कहते हैं कि उन्हें उज्ज्वला योजना का नाम तक नहीं पता है. कई ग्रामीणों ने कहा कि उज्ज्वला योजना के तहत कई बार फॉर्म भरे गए, लेकिन अभी तक गैस सिलेंडर नहीं मिल सका है.

महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ रहा बुरा असर
डीएफओ रजनीकांत मित्तल ने कहा कि जंगल में किसी भी व्यक्ति का प्रवेश पूरी तरह से वर्जित है. जहां तक बात रही जंगल के आसपास रहने वाले ग्रामीणों की तो यह काफी समय से जंगलों पर ही निर्भर रहे हैं. इस कारण इन्हें समझा-बुझाकर या कार्रवाई करके जंगल के कटान और लकड़ियों को निकालने पर रोक लगाया जाता है. वह कहते हैं कि जिला अधिकारी कृष्णा करुणेश ने एक मीटिंग में जिले के सभी गैस वितरकों को निर्देशित किया था कि जल्द से जल्द जंगल के आसपास वाले गांवों के लोगों को उज्जवला योजना के तहत गैस सिलेंडर उपलब्ध करवा दिए जाएं. इस काम को तेजी से किया भी जा रहा है. कुल मिलाकर अधिकारी कुछ भी दावे करें, लेकिन जमीन पर हकीकत वास्तव में चौंकाती है. बेशकीमती लकड़ियों का इस प्रकार दोहन होना न केवल पर्यावरण के लिए नुकसानदायक है, बल्कि इन लकड़ियों के जलने से निकलने वाला धुआं महिलाओं और लोगों का स्वास्थ्य भी खराब कर रहा है.

बलरामपुर: बीते तीन वर्ष पहले 1 मई वर्ष 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उज्ज्वला योजना का शुभारंभ किया था. इस योजना के जरिए मोदी सरकार दावा कर रही है कि उसने 10 करोड़ से अधिक परिवारों को इस योजना के तहत स्वच्छ ईंधन उपलब्ध करवा दिया है. इससे लाभान्वित परिवारों को लकड़ी से जलने वाले पारंपरिक चूहों से राहत मिल गई है, लेकिन आंकड़े कुछ और ही हकीकत बयान कर रहे हैं.

उज्जवला योजना से वंचित है ग्रामीण.
अभी भी लकड़ियों पर ही निर्भर हैं ग्रामीणमामला सोहेलवा वन्य जीव प्रभाग के अंतर्गत आने वाले उन तमाम गांवों का है, जहां पर उज्जवला योजना की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी. यहां के लोग पूरी तरह से जंगल की लकड़ियों पर ही निर्भर हैं. इनके निर्भरता के कारण न केवल पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है, बल्कि लकड़ियों का भी भारी-भरकम नुकसान हो रहा है. कहने को तो जंगली इलाके में किसी भी व्यक्ति का जाना पूरी तरह से प्रतिबंधित है, लेकिन जंगल में न केवल ग्रामीण सुबह ही घुसकर लकड़ियां बिनते और काटते नजर आते हैं, बल्कि भारी मात्रा में यहां पर लकड़हारे भी जाते हैं, जो लकड़ियां काटने और उन्हें बेचने का काम करते हैं.

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ग्रामीण नहीं उठा सके उज्जवला योजना का लाभ
उज्जवला योजना के तहत जिले में कुल 1,88,871 गरीब परिवारों को लाभ दिया जा चुका है. दावा किया जा रहा है कि अब इन सभी परिवारों के लोग पारंपरिक चूल्हे से हटकर गैस स्टोव पर निर्भर हो गए हैं, लेकिन बलरामपुर के वन्य ग्रामों में हकीकत कुछ और ही है. जंगल के पास रहने वाले ग्रामीण न केवल पूरी तरह से लकड़ियों पर ही निर्भर हैं, बल्कि चूल्हे पर खाना बनाने के कारण महिलाओं की सेहत भी धीरे-धीरे खराब होते नजर आ रही है. जंगल से लकड़ियां बिनने गए ग्रामीण बताते हैं कि वह अपनी जान को जोखिम में डालकर भोर में ही लकड़ियां काटने के लिए जंगल और पहाड़ी इलाकों में निकल जाते हैं और शाम तक अपने घर पहुंचते हैं. वह कहते हैं कि उन्हें उज्ज्वला योजना का नाम तक नहीं पता है. कई ग्रामीणों ने कहा कि उज्ज्वला योजना के तहत कई बार फॉर्म भरे गए, लेकिन अभी तक गैस सिलेंडर नहीं मिल सका है.

महिलाओं के स्वास्थ्य पर पड़ रहा बुरा असर
डीएफओ रजनीकांत मित्तल ने कहा कि जंगल में किसी भी व्यक्ति का प्रवेश पूरी तरह से वर्जित है. जहां तक बात रही जंगल के आसपास रहने वाले ग्रामीणों की तो यह काफी समय से जंगलों पर ही निर्भर रहे हैं. इस कारण इन्हें समझा-बुझाकर या कार्रवाई करके जंगल के कटान और लकड़ियों को निकालने पर रोक लगाया जाता है. वह कहते हैं कि जिला अधिकारी कृष्णा करुणेश ने एक मीटिंग में जिले के सभी गैस वितरकों को निर्देशित किया था कि जल्द से जल्द जंगल के आसपास वाले गांवों के लोगों को उज्जवला योजना के तहत गैस सिलेंडर उपलब्ध करवा दिए जाएं. इस काम को तेजी से किया भी जा रहा है. कुल मिलाकर अधिकारी कुछ भी दावे करें, लेकिन जमीन पर हकीकत वास्तव में चौंकाती है. बेशकीमती लकड़ियों का इस प्रकार दोहन होना न केवल पर्यावरण के लिए नुकसानदायक है, बल्कि इन लकड़ियों के जलने से निकलने वाला धुआं महिलाओं और लोगों का स्वास्थ्य भी खराब कर रहा है.

Intro:1 मई साल 2016 के दिन बलिया से शुरू की गई प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के जरिए मोदी सरकार दावा कर रही है कि उसने 10 करोड़ से अधिक परिवारों को इस योजना के तहत स्वच्छ ईंधन उपलब्ध करवा दिया है। इससे लाभान्वित परिवारों को लकड़ी से जलने वाले पारंपरिक चूहों से राहत मिल गई है। अब उन परिवारों की महिलाएं धुआ रहित वातावरण में भोजन तैयार करती हैं। लेकिन दावों और आंकड़ों के इतर जो हकीकत है। वह निराश करने का काम करती है। असल में, जहां पर इस योजना की सबसे ज्यादा जरूरत थी। वहां पर यह योजना लागू नहीं हो सकी है।


Body:हम बात कर रहे हैं सोहेलवा वन्य जीव प्रभाग के अंतर्गत आने वाले उन तमाम गांवों की जहां पर उज्जवला स्कीम की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी। क्योंकि यहां के लोग पूरी तरह से जंगल की लकड़ियों पर ही निर्भर है। इनके निर्भरता के कारण न केवल पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है। बल्कि बेशकीमती लकड़ियों का भी भारी-भरकम नुकसान हो रहा है। कहने को तो जंगली इलाके में किसी भी व्यक्ति का जाना पूरी तरह से प्रतिबंधित है। लेकिन जंगल में न केवल ग्रामीण सुबह ही घुसकर लकड़िया बिनते और काटते नजर आते हैं। बल्कि भारी मात्रा में यहां पर लकड़हारे भी जाते हैं, जो लकड़िया काटने और उन्हें बेचने का काम करते हैं। उज्जवला योजना के तहत बलरामपुर जिले में कुल 188871 गरीब परिवारों को लाभ दिया जा चुका है। दावा किया जा रहा है कि अब इन सभी परिवारों के लोग पारंपरिक चूल्हे से हटकर गैस स्टोव पर निर्भर हो गए हैं। लेकिन बलरामपुर के वन्य ग्रामों में हकीकत कुछ और ही है। जंगल के पास रहने वाले ग्रामीण न केवल पूरी तरह से लकड़ियों पर ही निर्भर हैं। बल्कि इनकी महिलाओं की सेहत भी पारंपरिक चूल्हे पर खाना बनाने के कारण धीरे-धीरे खराब नजर आती है। जंगल से लकड़ियां बीनने गए ग्रामीण बताते हैं कि वह अपनी जान को जोखिम में डालकर भोर में ही लकड़ियां काटने के लिए जंगल और पहाड़ी इलाकों में निकल जाते हैं। और शाम तक अपने घर पहुंचते हैं। वह कहते हैं कि उन्हें उज्ज्वला योजना का नाम तक नहीं पता है। कई ग्रामीणों ने हमसे बात करते हुए कहा कि उज्ज्वला योजना के तहत कई बार फॉर्म भरे गए। लेकिन अभी तक गैस सिलेंडर नहीं मिल सका है।


Conclusion:वहीं जब हमने इस बारे में डीएफओ रजनीकांत मित्तल से बात की तो उन्होंने कहा कि जंगल में किसी भी व्यक्ति का प्रवेश पूरी तरह से वर्जित है। जहां तक बात रही जंगल के आसपास रहने वाले ग्रामीणों की तो यह काफी समय से जंगलों पर ही निर्भर रहे हैं। इस कारण इन्हें समझा-बुझाकर या कार्रवाई करके जंगल के कटान और लकड़ियों को निकालने पर रोक लगाया जाता है। लेकिन यह बात बहुत ज्यादा पर्याप्त नहीं है। वह कहते हैं कि जिला अधिकारी कृष्णा करुणेश ने एक मीटिंग में जिले के सभी गैस वितरकों को निर्देशित किया था कि जल्द से जल्द जंगल के आसपास वाले गांवों के लोगों को उज्जवला स्कीम के तहत गैस सिलेंडर उपलब्ध करवा दी जाए। इस काम को तेजी से किया भी जा रहा है। कुल मिलाकर अधिकारी कुछ भी दावे करें लेकिन जमीन पर हकीकत वास्तव में चौकाती है। बेशकीमती लकड़ियों का इस प्रकार दोहन होना न केवल पर्यावरण के लिए नुकसानदायक है। बल्कि इन लकड़ियों से जलने वाले चूहों से निकलने वाला धुआं महिलाओं और लोगों का स्वास्थ्य भी खराब कर रहा है।
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