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संस्थागत प्रसव के मामले में भी फिसड्डी रहा बलरामपुर

नीति आयोग के तहत आने वाले आकांक्षावादी जिलों में बलरामपुर जिले को भी शामिल किया गया है. इसे नीति आयोग, केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार ने विकास की तमाम आकांक्षाओं पर खरा उतारने के लिए गोद ले रखा है. हाल ही में एनएचएफएस (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) ने साल 2015-16 में किए गए सर्वे की रिपोर्ट जारी की है जिसमें बलरामपुर जिला पहले की तरह ही फिस्सडी साबित हुआ है.

संस्थागत प्रसव के मामले में भी फिस्सडी रहा बलरामपुर
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Published : Jun 7, 2019, 10:49 PM IST

बलरामपुर: नीति आयोग के 115 पिछड़े आकांक्षावादी जिलों में बलरामपुर शामिल है. इसके विकास के लिए नीति आयोग, केंद्र सरकार, राज्य सरकार ने गोद ले रखा है. हाल ही में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे में बलरामपुर जिला पहले की तरह ही फिसड्डी रहा है.

संस्थागत प्रसव के मामले में भी फिस्सडी रहा बलरामपुर


बलरामपुर अस्पताल की ऐसी है हालत...
संस्थागत प्रसव की दर राष्ट्रीय औसत से बेहद कम है. इसके साथ ही शिशु मृत्यु दर पर भी तमाम कवायदों के बाद भी काबू नहीं किया जा सका है. अप्रैल 2019 में आए एनएचएफएस 4 के सर्वेक्षण के मुताबिक जिले में संस्थागत प्रसव की दर महज 31 फीसदी है.

तुलसीपुर और गैंसड़ी में एक-एक सीएचसी हैं. गांव में कम से कम 5 किमी से पहले कोई अस्पताल नहीं है. अगर किसी की तबियत खराब हो जाए तो उसे सीएचसी ही जाना पड़ता है.


सीएचसी के डॉक्टर स्टाफ ने गांव में आकर न तो हमारा चेक अप किया गया. न ही हमे किसी तरह की दवाइयां दी गई, न ही टीके लगाए गए. बलरामपुर में चेकअप के लिए गए, तो वहां पर हम जैसे गरीब लोगों से अल्ट्रासाउंड के 200 से 500 रुपये वसूले गये. जिसके बाद हमें महिला चिकित्सालय में इलाज मिल सका.
गर्भवती महिला राजकुमारी

सीएमओ ने बताई गांव की समस्या

  • सबसे बड़ा कारण यहां पर शिक्षा और विकास का न होना है. बाहरी दुनिया से जुड़ने के नाम पर यहां केवल रेडियो है. इसके अलावा यहां विकास के कोई संसाधन नहीं है. गांव में टीवी की पहुंच कम है क्योंकि बिजली अभी भी गांवों में नहीं पहुंच सकी है.
  • यहां पर शिक्षा का स्तर केवल 50 फीसद ही है. ऐसे में इन तमाम सुविधाओं के प्रति लोगों को जागरूक कर पाना असंभव सी बात लगती है.
  • सर्वे में बलरामपुर का पीछे रहना जागरूकता की कमी मुख्य वजह है. सरकार की नीतियां बेहद कम लोगों तक पहुंच पाती है.
  • नीति आयोग ने बलरामपुर जिले को गोद लिया है. इसके बाद स्थिति में लगातार सुधार आ रहा है. संस्थागत प्रसव की दर न केवल बढ़ी है, बल्कि सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं का बेहतर होना भी इस तरफ एक सकारात्मक आयाम बनाता है.

बलरामपुर: नीति आयोग के 115 पिछड़े आकांक्षावादी जिलों में बलरामपुर शामिल है. इसके विकास के लिए नीति आयोग, केंद्र सरकार, राज्य सरकार ने गोद ले रखा है. हाल ही में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे में बलरामपुर जिला पहले की तरह ही फिसड्डी रहा है.

संस्थागत प्रसव के मामले में भी फिस्सडी रहा बलरामपुर


बलरामपुर अस्पताल की ऐसी है हालत...
संस्थागत प्रसव की दर राष्ट्रीय औसत से बेहद कम है. इसके साथ ही शिशु मृत्यु दर पर भी तमाम कवायदों के बाद भी काबू नहीं किया जा सका है. अप्रैल 2019 में आए एनएचएफएस 4 के सर्वेक्षण के मुताबिक जिले में संस्थागत प्रसव की दर महज 31 फीसदी है.

तुलसीपुर और गैंसड़ी में एक-एक सीएचसी हैं. गांव में कम से कम 5 किमी से पहले कोई अस्पताल नहीं है. अगर किसी की तबियत खराब हो जाए तो उसे सीएचसी ही जाना पड़ता है.


सीएचसी के डॉक्टर स्टाफ ने गांव में आकर न तो हमारा चेक अप किया गया. न ही हमे किसी तरह की दवाइयां दी गई, न ही टीके लगाए गए. बलरामपुर में चेकअप के लिए गए, तो वहां पर हम जैसे गरीब लोगों से अल्ट्रासाउंड के 200 से 500 रुपये वसूले गये. जिसके बाद हमें महिला चिकित्सालय में इलाज मिल सका.
गर्भवती महिला राजकुमारी

सीएमओ ने बताई गांव की समस्या

  • सबसे बड़ा कारण यहां पर शिक्षा और विकास का न होना है. बाहरी दुनिया से जुड़ने के नाम पर यहां केवल रेडियो है. इसके अलावा यहां विकास के कोई संसाधन नहीं है. गांव में टीवी की पहुंच कम है क्योंकि बिजली अभी भी गांवों में नहीं पहुंच सकी है.
  • यहां पर शिक्षा का स्तर केवल 50 फीसद ही है. ऐसे में इन तमाम सुविधाओं के प्रति लोगों को जागरूक कर पाना असंभव सी बात लगती है.
  • सर्वे में बलरामपुर का पीछे रहना जागरूकता की कमी मुख्य वजह है. सरकार की नीतियां बेहद कम लोगों तक पहुंच पाती है.
  • नीति आयोग ने बलरामपुर जिले को गोद लिया है. इसके बाद स्थिति में लगातार सुधार आ रहा है. संस्थागत प्रसव की दर न केवल बढ़ी है, बल्कि सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं का बेहतर होना भी इस तरफ एक सकारात्मक आयाम बनाता है.
Intro:देवीपाटन मंडल के चार जिले आते हैं। जिनमें से तीन नीति आयोग के तहत आने वाले आकांक्षावादी जिलों में शामिल हैं। बलरामपुर जिला भी इसी श्रेणी में आता है और इसे नीति आयोग, केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार ने विकास की तमाम आकांक्षाओं पर खरा उतारने के लिए गोद ले रखा है। या यूं कहें यहां पर विकास की तमाम संभावनाओं को रफ़्तार देने के लिए पूरा का पूरा सरकारी तंत्र विशेष रूप से काम कर रहा है। लेकिन इसका कुछ विशेष असर यहां पर दिखता नहीं है। खासकर, शिक्षा और स्वास्थ्य के मामलों में। शिक्षा के मामले में चाहे आप समाजसेवी संस्थान 'असर' की रिपोर्ट उठा लें या चाहे स्वास्थ्य के मामलों में यूनिसेफ, एनएचएफएस 4 और डब्लूएचओ आदि की। अभी हाल ही में एनएचएफएस (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) ने साल 2015-16 में किए गए सर्वे का रिपोर्ट जारी किया है। जिसमें बलरामपुर जिला पहले की तरह ही फिस्सडी साबित हुआ है और आखिरी स्थान पर आया है। इस रिपोर्ट की माने तो यहां पर 1000 में से 310 महिलाएं ही अस्पताल पहुंचकर अपने बच्चे को जन्म दे पाती हैं।


Body:यहां पर संस्थागत प्रसव के दर राष्ट्रीय औसत से बेहद कम है। इसके साथ ही शिशु मृत्यु दर पर भी तमाम कवायदों के बाद भी काबू नहीं किया जा सका है। अप्रैल 2019 में आए एनएचएफएस 4 के सर्वेक्षण के मुताबिक जिले में संस्थागत प्रसव कादर महज 31 फ़ीसदी है। गर्भनिरोधक गोलियों के इस्तेमाल में भी जिला फिस्सडी है। यहां पर तकरीबन 23 लाख की आबादी में से महज 2.7 फ़ीसदी लोग ही इनका इस्तेमाल करते हैं।
ईटीवी की टीम ने जब इस रिपोर्ट की सत्यता को जानने के लिए तुलसीपुर और गैंसड़ी ब्लॉक के बीच में स्थित सिरसिहवा बघनी का रुख किया। सिरसीहवा में इस वक्त 9 महिलाएं गर्भवती हैं। इस गांव की दूरी दोनों जगहों के लिए लागभग एक समान है। यहां पर तुलसीपुर और गैंसड़ी में एक-एक सीएचसी हैं। इस गांव की सबसे बड़ी दिक्कत है कि यहां पर कम से कम 5 किमी से पहले कोई अस्पताल नहीं है। अगर किसी की तबियत खराब हो जाए तो उसे सीएचसी ही जाना पड़ता है। अगर ख़ुदा न खास्ता किसी को कुछ हो जाए तो इसकी जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं है।
हमने संस्थागत प्रसव के बारे में गांव की महिलाओं से बात की। 22 से 50 वर्ष के आयु वर्ग की महिलाओं ने हमसे अपना प्रसव अनुभव बताते हुए कहा कि सरकारी अस्पताल में प्रसव का अनुभव बेहद खराब है। यहां पर तैनात डॉक्टर और स्टॉफ नर्स द्वारा न केवल महिलाओं से अभद्रता की जाती है। बल्कि प्रसव के दौरान उनसे पैसे की मांग भी की जाती है।
महिलाएं कहती हैं कि समस्या जब तक जान पर न बन आए तब तक कोई ध्यान देने वाला नहीं होता है। इस वजह से हम प्राइवेट सेक्टर के अस्पतालों पर ही प्रसव कराने जाते हैं।
असंस्थागत प्रसव के बारे में बात करते हुए महिलाएं कहती हैं कि गांव में 8 - 10 साल पहले इस तरह की चीजें बंद हो चुकी है। लेकिन अगर किसी को इमरजेंसी की हालत में असंस्थागत प्रसव करवाना पड़ता है। तो भी हमें स्वास्थ्य विभाग का किसी तरह से कोई सहयोग नहीं मिल पाता।
6 माह की गर्भवती महिला राजकुमारी ने हमसे बात करते हुए कहा कि तकरीबन 4 साल पहले उन्हें पहला बच्चा हुआ था। जिसका जन्म घर पर ही दाई लोगों द्वारा करवाया गया था। वहीं, दूसरे बच्चे के बारे में जब वह अस्पताल पहुंचे तो अस्पताल के कर्मचारियों ने उनसे ना-नुकुर करते हुए सुबह से शाम तक रोके रखा। जिसके बाद वह अपने पति के कहने पर एक प्राइवेट हॉस्पिटल चली आई, जहां पर उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया। जो मृत पैदा हुआ। वहीं, अपने तीसरे प्रसव अनुभव के बारे में बताते हुए राजकुमारी कहती हैं कि जब उन्हें तीसरा बच्चा हुआ तो वह भी घर पर ही हुआ था दो-तीन दिन तक तो वह स्वस्थ था। लेकिन दवा इलाज सही से ना हो पाने के कारण दो दिन बाद उसकी भी मौत सांस फूलने के कारण हो गई।
अपने 6 माह के गर्भ के बारे में वह कहती हैं कि जब से उन्होंने गर्भ धारण किया है तब से ना तो किसी सीएचसी के डॉक्टर स्टाफ द्वारा गांव में आकर उनका चेक अप किया गया। ना ही उन्हें किसी तरह की दवाइयां दी गई, ना ही टीके लगाए गए। वह कहती हैं कि एक बार जब हम बलरामपुर चेकअप के लिए गए तो वहां पर हम जैसे गरीब लोगों से अल्ट्रासाउंड के 200 से 500 रुपये वसूलने की बात की गई। जिसके बाद हमें महिला चिकित्सालय में इलाज मिल सका।
राजकुमारी की सांस रामराजी बताती हैं कि उनकी बहू को गर्भ धारण किए हुए 6 महीने हो चुके हैं। लेकिन ना तो उनके गांव में आशा बहुओं विजिट करती हैं ना ही एएनएम बहनों द्वारा किसी तरह की मेडिकल सहायता उपलब्ध करवाई जाती है। वह कहती हैं कि जब कभी बहू को पीड़ा होती है तो हम उसे अस्पताल लेकर भागते हैं। लेकिन सरकारी अस्पतालों में न जाकर हम प्राइवेट अस्पतालों में इलाज करवाना बेहतर समझते हैं। क्योंकि पैसे दोनों जगह लगने होते हैं। सरकारी अस्पतालों में लापरवाही भी हो सकती है लेकिन प्राइवेट अस्पतालों में चीजें सही ढंग से हो जाती हैं।
इसी तरह हमने गांव की तकरीबन आधा दर्जन महिलाओं से बातचीत की जिनका कमोवेश सरकारी अस्पतालों में प्रसव के दौरान यही राय था। कुछ लोगों का कहना था कि मेडिकल टीम द्वारा अभद्रता की जाती है। वहीं कुछ का कहना था कि जांच व दवाइयों में लापरवाही की जाती है। कुछ ने कहा कि यदि बच्चा समय से पैदा होने वाला भी है तो उसे टाल मटोल करके देर कर दिया जाता है, जिस कारण कहीं ना कहीं अधिक पीड़ा होती है और पेट में ही बच्चे की मौत हो जाती है।


Conclusion:इस पूरे मामले में जब हमने बलरामपुर के सीएम डॉ घनश्याम सिंह से बात की उन्होंने कहा कि इस रिपोर्ट में हमारे पीछे रह गए सबसे बड़ा कारण यहां पर शिक्षा और विकास का ना होना है। बाहरी दुनिया से जुड़ने के नाम पर यहां केवल रेडियो है। इसके अलावा यहां विकास के कोई संसाधन नहीं है। गांव में टीवी की पहुंच कम है क्योंकि बिजली अभी भी गांवों में नहीं पहुंच सकी है।
वह कहते हैं कि शिक्षा का स्तर भी यहां पर केवल 50 फीसद ही है। और हम लोग उसे शिक्षक मानते हैं, जिसे अपना नाम लिखना आ जाता है। तो असल में यदि शिक्षा का प्रतिशत देखा जाए तो वह तकरीबन 20 फीसद के करीब ही पहुंचता है। ऐसे में इन तमाम सुविधाओं का और लोगों में जागरूकता का पहुंच पाना असंभव सी बात लगती है। फिर भी हम लोग प्रयास कर रहे हैं और चीजों को बेहतर करने की कोशिश कर रहे हैं।
सर्वे में बलरामपुर के पीछे रह जाने पर वह कहते हैं कि जागरूकता की कमी मुख्य वजह है सरकार की नीतियां बेहद कम लोगों तक पहुंच पाती हैं।
वह कहते हैं कि नीति आयोग द्वारा बलरामपुर जिले को गोद लेने के बाद स्थिति में लगातार सुधार आ रही है। संस्थागत प्रसव कदर न केवल बढ़ा है, बल्कि सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं का बेहतर होना भी इस तरफ एक पॉजिटिव आयाम बनाता है।
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