पांच राज्यों -तेलंगाना, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में विधानसभा चुनावों में निष्पक्ष और पारदर्शी सुनिश्चित करने के प्रति चुनाव आयोग (ईसी) प्रतिबद्ध है. इसलिए केंद्रीय चुनाव आयुक्त (सीईसी) राजीव कुमार ने चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा से पहले शुक्रवार को अहम बैठक की, जिसमें उन्होंने उम्मीदवारों से अपने आपराधिक रिकॉर्ड का खुलासा करने की जरूरत पर जोर दिया. साथ ही चुनाव आयोग ने पर्यवेक्षकों से आगामी चुनावों में धनबल पर पूरी तरह से नियंत्रण लगाने के साथ ही हिंसा मुक्त चुनाव सुनिश्चित करने को कहा. इसके अलावा चुनाव आयोग ने कहा कि राजनीतिक दलों को आपराधिक सजा वाले व्यक्तियों को उम्मीदवार के रूप में खड़ा करने पर स्पष्टीकरण देना होगा. भारतीय राजनीति में यह एक बड़ी निराशाजनक बात सामने आई है, जहां राजनेताओं के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित होने का पता चला है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा 763 राज्यसभा और लोकसभा सांसदों के चुनाव प्रमाणपत्रों की हालिया जांच से पता चला कि उनमें से 40 प्रतिशत या 306 व्यक्तियों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं. इनमें से 194 पर गंभीर आपराधिक आरोप हैं. यह भारतीय लोकतंत्र का ऐसा पहलू सामने आया है, जो निश्चित रूप से चिंताजनक है. पिछले कुछ सालों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या बढ़ी है. 2004 में 128 सांसदों की तुलना में 2019 में चुने गए 233 सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले रिकॉर्ड हैं. चौंकाने वाली बात यह है कि देश के करीब 4000 विधायकों में से लगभग 44 फीसदी नेताओं की पृष्ठभूमि संदिग्ध है. इससे हमारे विधायकों में प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता पर सवाल खड़े होते हैं. क्योंकि हत्या से लेकर भ्रष्टाचार तक के अपराधों के आरोपी व्यक्तियों को भारत की नियति को आकार देने की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है.
लोकतंत्र में जब लोगों के विश्वास को ठेस पहुंचती है, तब जनता के इन प्रतिनिधियों की प्रतिष्ठा के प्रति भी खतरा पैदा हो जाता है. अंततः अराजकता और सत्तावाद भी पैर पसारने लगते हैं. आज भारत इसी खतरे का सामना कर रहा है, क्योंकि दागी राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल जारी रखे हुए हैं. राजनेताओं को केवल उनके दोषसिद्धि के आधार पर ही अयोग्य ठहराये जाने वाली मौजूदा व्यवस्था, अब हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों की पवित्रता को धूमिल करने वालों को दूर रखने में निष्क्रिय साबित हो रही है. इस समस्या का समाधान करने के लिए, विधि आयोग ने कड़े उपाय की सिफारिश की है. उनके मुताबिक, वे जन प्रतिनिधि जो पांच साल से अधिक की जेल की सजा वाले आपराधिक मामलों के आरोपी हैं, उन्हें अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए. इस सिफारिश को लागू करना जरूरी है, लेकिन राजनीतिक प्रतिशोध के चलते इसका दुरुपयोग भी हो सकता है, जिसे रोकने के लिए सुरक्षा उपाय भी होने चाहिए. इससे अपराधियों को विधानसभाओं में प्रवेश से रोकने के लिए एक निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया सुनिश्चित की जा सकेगा. हालांकि, हमारी चुनावी प्रणाली को प्रभावित करने वाले ये तत्व अब राजनीति से भी आगे तक बढ़ चुके हैं. पैसे की राजनीति, जिसे अक्सर वोट खरीदना कहा जाता है, हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर एक कैंसर जैसी बीमारी की तरह फैल चुकी है. चुनाव आयोग ने स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख नहीं किया है, लेकिन वोट खरीदना एक निंदनीय अपराध है, जो हमारे लोकतंत्र की नींव को कमजोर करता है. सभी राजनीतिक दल, मतभेदों की परवाह किए बगैर, वोट-खरीदी में लिप्त रहकर इस गंभीर अपराध को चुपचाप नजरअंदाज कर देते हैं. इस तरह की प्रथाओं के परिणाम स्वरूप पैसों के लालच देकर मिले वोट हमारे राष्ट्र की प्रगति पर प्रभाव डालते हैं. देश और देशवासियों की खातिर, राजनीतिक दलों को एकजुट होकर चुनावों में काले धन के प्रवाह और इस खतरनाक प्रथा को प्रभावी ढंग से रोकने की जरूरत है. खासतौर पर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों को इस कुप्रथा पर अंकुश लगाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में ईमानदारी दिखानी चाहिए. ऐसा करने में विफल होने पर हमारी चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता पर आंच आएगी, जो अंत में अंदर से भ्रष्टाचार के कारण खोखला हो चुका होगा. रिश्वतखोरी में संलिप्त या जनता के मतों में हेराफेरी करने के लिए अनैतिक हथकंडे अपनाने वाले ऐसे शख्स जनता का प्रतिनिधित्व करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं.
चुनाव आयोग ने पहले भी कठोर अयोग्यता प्रक्रिया की सिफारिश की है, जिसके तहत आपराधिक मामलों में लिप्त ऐसे नेताओं के खिलाफ तुरंत कार्रवाई शुरू होगी. इस सिफारिश को लागू करने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन एक जरूरी कदम होगा. वहीं, मतदाताओं से किये गए वादे पूरे हों, ये सुनिश्चित करना भी सत्तारूढ़ दलों की जिम्मेदारी होगी. अक्सर पाया गया है कि चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक पार्टियां सत्ता पाने के लिए बड़े-बड़े वादे करती हैं और सत्ता में आने के बाद वादे भूल जाते हैं, जिससे जनता के विश्वास को ठेस पहुंचती है. चुनाव आयोग ने पार्टियों को आह्वान किया है कि वे केवल वादे न करें बल्कि यह भी बताएं कि वे इन प्रतिबद्धताओं को कैसे पूरा करना चाहते हैं. अफसोस की बात यह है कि यह अपील अक्सर अनसुनी कर दी जाती है, क्योंकि कुछ राजनीतिक दल खोखले आश्वासनों के चक्र में फंसी रहती हैं. झूठे और खोखले वादों के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए नए मानदंड स्थापित करना जरूरी है. सभी राजनीतिक दलों को अपने घोषणापत्रों में स्पष्ट रूप से बताना चाहिए कि सत्ता हासिल करने के बाद वे निर्धारित समयसीमा के भीतर अपने वादों को क्रियान्वित करने का इरादा रखते हैं. जो पार्टियां निर्धारित समयसीमा के भीतर अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विफल रहती हैं, उन्हें सत्ता छोड़ने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए. इस मुद्दे के समाधान के लिए एक विशिष्ट कानूनी ढांचे का निर्माण भी यहां आवश्यक है. राजनीतिक दलों के बीच इस धारणा को दूर करना अत्यंत जरूरी है कि चुनाव जीतने से उन्हें सत्ता में आने के बाद पूर्णाधिकार मिल जाता है. केवल इस धारणा को खत्म करके ही हम उस जहरीली राजनीति को खत्म कर सकते हैं, जो उन्हीं लोगों को नुकसान पहुंचाती है जिनकी वे सेवा करने के लिए बने हैं. सच्चा लोकतंत्र तभी फल-फूल सकेगा जब मतदाताओं का विश्वास बना रहेगा और प्रतिनिधि उनकी आवाज बनकर सामने आए.
(ईनाडु में प्रकाशित संपादकीय का अनुवादित संस्करण)