बाराबंकी : नवीं बार बाराबंकी सुरक्षित लोकसभा सीट से अपना नामांकन दाखिल कर यहां के एक पूर्व सांसद ने एक और रिकार्ड अपने नाम कर लिया. रामसागर रावत जिले के पहले नेता हैं जिन्होंने नवीं बार इसी लोकसभा सीट से पर्चा भरा है. चार बार सांसद और तीन बार विधायक रहे रामसागर को सपा-बसपा गठबन्धन ने अपना उम्मीदवार बनाया है. अभी तक घोषित उम्मीदवारों में रामसागर सबसे बुजुर्ग उम्मीदवार हैं.
जिले में समाजवादी पार्टी के स्तंभ और पार्टी के संस्थापक सदस्यों में शुमार रामसागर रावत ने शुक्रवार को नवीं बार बाराबंकी सुरक्षित लोकसभा सीट से अपना नामांकन किया है. पूर्व विधायक फरीद महफूज़ किदवाई और वर्तमान विधायक सुरेश यादव समेत बसपा जिलाध्यक्ष के साथ नामांकन करने पहुंचे रामसागर के चेहरे पर राजनीतिक तजुर्बा साफ दिख रहा था. तीन बार विधायक और चार बार सांसद रह चुके रामसागर रावत को खांटी सपाई माना जाता है. रामसागर रावत मुलायम के संघर्ष के दिनों के साथी हैं. रामसागर रावत उन सांसदों में हैं जब जनता पार्टी के गिने-चुने सांसद ही लोकसभा में पहुंचे थे.
धनौली खास गांव के रहने वाले राम सागर रावत 13 जुलाई 1951 को पैदा हुए थे. वर्ष 1968 में इन्होंने व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में हाईस्कूल पास किया और 1969 में इनकी शादी हो गई. 1972 में इन्होंने बीटीसी किया और शिक्षण कार्य में लग गए. अध्यापन कार्य करते हुए उन्होंने राजनीति में कदम रखा और जनता पार्टी से जुड़ गए. 1977 के चुनाव में सिद्धौर विधानसभा से जनता पार्टी के टिकट पर पहली बार विधायक चुने गए. 1980 में एक बार फिर ये सिद्धौर से विधायक बने. उसके बाद इन्होंने लोकदल का दामन पकड़ लिया और लोकदल के टिकट पर 1985 में एक बार फिर विधायक बने. 1984 में रामसागर पहली बार लोक दल से लोकसभा का चुनाव लड़े लेकिन हार गए. 1989 में हुए आम चुनाव में जनता दल से पहली बार सांसद बने. 1991 में जनता पार्टी से प्रत्याशी के रूप में रामसागर एक बार फिर सांसद बने. 1996 में राम सागर ने समाजवादी पार्टी से चुनाव लड़ा और जीते. 1998 में हुए चुनाव में समीकरण गड़बड़ाया तो चुनाव हार गए लेकिन 1999 में स्थिति मजबूत की और एक बार फिर बतौर सांसद दिल्ली पहुंच गए.
रामसागर को कभी भी इस बात का मलाल नहीं रहा कि 3 बार विधायक और चार बार सांसद होने के बाद भी पार्टी के प्रमुख नेताओं ने उनको अपना तो बनाए रखा लेकिन कभी भी प्रदेश और देश के कैबिनेट में जगह नहीं दी. साल 2004 और 2009 में राजनीतिक स्थितियां बदल गईं. राम मंदिर और बसपा की सोशल इंजीनियरिंग के चलते समीकरण बदल गए. लिहाजा 2004 और 2009 दोनों चुनावों में रामसागर परास्त हो गए. लगातार दो चुनाव हारने के बाद पार्टी में उनको लेकर विरोध शुरू हो गया. उनके विरोधी आगे आ गए लिहाजा 2014 में पार्टी ने उनका टिकट काट दिया. टिकट काटे जाने के बाद भी रामसागर निराश नहीं हुए. उन्होंने सक्रियता बनाये रखने के साथ ही हाईकमान से सम्पर्क बनाये रखा जिसका नतीजा हुआ कि पार्टी ने फिर से इस बार उन पर भरोसा जताते हुए उन्हें प्रत्याशी बना दिया है.
चार बार सांसद रहने के बाद भी लोगों ने उन पर जिले के विकास में कोई योगदान न करने का आरोप लगाया. इस बाबत उन्होंने सफाई देते हुए आरोप कांग्रेस पर मढ़ दिया. उन्होंने कहा कि तीन दशकों तक कांग्रेस की सरकार रही. लिहाजा उनको विकास के लिए बजट नहीं दिया गया.