लखनऊ : उत्तर प्रदेश की 15 भाषाएं खत्म होने की कगार पर पहुंच गई हैं. यह वो भाषाएं हैं जिनको बोलने और जानने वालों की संख्या अब 5000 से भी कम रह गई है. ऐसी भाषाओं को संरक्षित करने, उनके साहित्य का संकलन करने से लेकर इनके इलाकों में बच्चों की पुस्तकें तैयार करने का बीड़ा लखनऊ विश्वविद्यालय ने उठाया है.
विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान विभाग (linguistics department) की तरफ से इसको लेकर पहल की गई है. भाषा विज्ञान विभाग की असिस्टेंट प्रो. डॉ. माद्री काकोटी ने बताया कि भाषा विज्ञान विभाग इस वक्त राजी, जाड़, थारू आदि भाषाओं पर काम कर रहा है. इनमें कुछ भाषायें मुख्य रूप से उत्तराखंड में बोली जाती हैं, इन जनजातियों के कुछ समूह अब उत्तर प्रदेश में भी पाए जाते हैं. उन्होंने बताया कि विभाग की तरफ से थारू जनजाति की भाषा और साहित्य पर काम किया गया है.
डॉ. माद्री काकोटी ने बताया कि करीब पांच से छह साल पहले सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन लैंग्वेज की ओर से प्रदेश की भाषाओं को लेकर एक काफी बड़ा प्रोजेक्ट विश्वविद्यालय के विभाग को दिया गया था. जिसमें भाषाओं की स्थिति को परखा गया था. इसके नतीजे काफी चौंकाने वाले रहे. डॉ. माद्री ने बताया कि UP में लगभग 29-30 अलग-अलग भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें से कई प्रदेश में मौजूद विभिन्न जनजातियों द्वारा प्रयुक्त की जाती हैं. इनमें करीब 15 भाषाएं ऐसी हैं जो लुप्त प्राय कैटेगरी में आती हैं.
डॉ. माद्री ने बताया कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्थानीय भाषाओं पर जोर दिया गया है. इसमें जनजाति इलाकों में बच्चों को उनकी भाषा में पढ़ाने की बात कही गई है. विश्वविद्यालय का भाषा विज्ञान विभाग इस पर काम कर रहा है. उत्तर प्रदेश में थारू, भोकसा, जौनसारी, अगरिया, बइगा आदि जनजातियां हैं जो अपनी भाषाएं बोलते हैं. सोनभद्र क्षेत्र में भी कई जनजातियां अपनी अपनी भाषाएं इस्तेमाल करती हैं.
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उन्होंने कहा कि इनके अलावा भी कई भाषाएं हैं, उन पर टिप्पणी करना उचित नहीं होगा, क्योंकि उन पर पर्याप्त काम नहीं हुआ है इसलिए डेटा वेरीफाई करने के बाद ही कुछ कहा जा सकता है.
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