लखनऊ/ नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय में आज राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद मामले की सुनवाई जारी है. दोनों समुदायों के बीच मध्यस्थता पर विचार हो, इसे लेकर दलीलें रखी जा रही हैं. हिंदू महासभा और हिंदू पक्षकारों ने मध्यस्थता का विरोध किया है. मुस्लिम पक्षकारों का कहना है कि मध्यस्था होगी, तो बंद कमरे में होनी चाहिए.
मुस्लिम पक्षकारों का तर्क-- मध्यस्थता के लिए सबकी सहमति जरूरी नहीं है.
जज- विवाद दो समुदायों के बीच है, लिहाजा सबको सहमति बनानी होगी, यह आसान काम नहीं है. एक बार जब यह प्रक्रिया शुरू हो जाएगी, तो मीडिया रिपोर्टिंग पर भी बैन लगाया जा सकता है. लेकिन रिपोर्टिंग ना करना, सिर्फ सुझाव भर है. हमें पता है कि यह मामला बहुत ही गंभीर है. लोगों के दिलों और दिमाग को पाटने का है.
जज- मध्यस्थता के लिए एक नहीं, बल्कि एक से ज्यादा लोगों की जरूरत है. बल्कि एक पैनल होना चाहिए.
हिंदू महासभा- हमें मध्यस्थता की जरूरत नहीं है. हिंदू इसे एक धार्मिक और भावुक मुद्दा मानते हैं.
जज- हम वर्तमान के बारे में ही फैसला करेंगे. इतिहास में क्या हुआ, उस पर हमारा कोई बस नहीं है.
जज- यह मामला सिर्फ जमीन का नहीं है, आस्था और भावना से जुड़ा मुद्दा है.
इससे पहले क्या हुआ
अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद मामले में शीर्ष अदालत ने गत 26 फरवरी को कहा था कि वह छह मार्च को आदेश देगा कि मामले को अदालत द्वारा नियुक्त मध्यस्थ के पास भेजा जाए या नहीं.
दशकों पुराने विवाद का सौहार्दपूर्ण तरीके से समाधान
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने विभिन्न पक्षों से मध्यस्थता के जरिये इस दशकों पुराने विवाद का सौहार्दपूर्ण तरीके से समाधान किये जाने की संभावना तलाशने को कहा था.
मध्यस्थता का रास्ता अपनाना चाहिए
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनवाई के दौरान सुझाव दिया था कि यदि इस विवाद का आपसी सहमति के आधार पर समाधान खोजने की एक प्रतिशत भी संभावना हो तो संबंधित पक्षकारों को मध्यस्थता का रास्ता अपनाना चाहिए.
हिन्दू और मुस्लिम पक्षकार
इस विवाद का मध्यस्थता के जरिये समाधान खोजने का सुझाव पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति एस ए बोबडे ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर सुनवाई के दौरान दिया था. न्यायमूर्ति बोबडे ने यह सुझाव उस वक्त दिया था जब इस विवाद के दोनों हिन्दू और मुस्लिम पक्षकार उप्र सरकार द्वारा अनुवाद कराने के बाद शीर्ष अदालत की रजिस्ट्री में दाखिल दस्तावेजों की सत्यता को लेकर उलझ रहे थे .
मामला परस्पर विरोधी नहीं
पीठ ने कहा था, ‘हम इस बारे में (मध्यस्थता) गंभीरता से सोच रहे हैं. आप सभी (पक्षकार) ने यह शब्द प्रयोग किया है कि यह मामला परस्पर विरोधी नहीं है. हम मध्यस्थता के लिये एक अवसर देना चाहते हैं, चाहें इसकी एक प्रतिशत ही संभावना हो.’’
संविधान पीठ के न्यायमूर्ति
संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर शामिल हैं.
कोई तीसरा पक्ष इस बारे में टिप्पणी करे
पीठ ने कहा था, ‘हम आपकी (दोनों पक्षों) की राय जानना चाहते हैं. हम नहीं चाहते कि सारी प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिये कोई तीसरा पक्ष इस बारे में टिप्पणी करे.’
नियुक्ति के सुझाव
इस मामले में सुनवाई के दौरान जहां कुछ मुस्लिम पक्षकारों ने कहा था कि वे इस भूमि विवाद का हल खोजने के लिये न्यायालय द्वारा मध्यस्थता की नियुक्ति के सुझाव से सहमत हैं, वहीं राम लला विराजमान सहित कुछ हिन्दू पक्षकारों ने इस पर आपत्ति करते हुये कहा था कि मध्यस्थता की प्रक्रिया पहले भी कई बार असफल हो चुकी है.
रिश्तों को सुधारने की संभावना
पीठ ने पक्षकारों से पूछा था, ‘क्या आप गंभीरता से यह समझते हैं कि इतने सालों से चल रहा यह पूरा विवाद संपत्ति के लिये है? हम सिर्फ संपत्ति के अधिकारों के बारे में निर्णय कर सकते हैं परंतु हम रिश्तों को सुधारने की संभावना पर विचार कर रहे हैं.’
अवधि का इस्तेमाल
पीठ ने मुख्य मामले को आठ सप्ताह बाद सुनवाई के लिये सूचीबद्ध करते हुये रजिस्ट्री को निर्देश दिया था कि वह सभी पक्षकारों को छह सप्ताह के भीतर सारे दस्तावेजों की अनुदित प्रतियां उपलब्ध कराये. न्यायालय ने कहा था कि वह इस अवधि का इस्तेमाल मध्यस्थता की संभावना तलाशने के लिये करना चाहता है.
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले के खिलाफ शीर्ष अदालत में कुल 14 अपील दायर की गयी हैं. उच्च न्यायालय ने 2.77 एकड़ विवादित भूमि तीन हिस्सों में सुन्नी वक्फ बोर्ड, राम लला और निर्मोही अखाड़े के बीच बांटने का आदेश दिया था.