शिमला : प्रदोष व्रत हर माह की त्रयोदशी को रखा जाता है. त्रयोदशी तिथि भगवान शिव को अति प्रिय होती है. मान्यता है कि इस तिथि को जो कोई भी व्रत रखकर भगवान भोलेनाथ की विधि –विधान से पूजा अर्चना करता है और खुद के सभी कर्मों को भगवान शिव को समर्पित कर देता है. उस पर भगवान भोलेनाथ बहुत जल्द ही प्रसन्न हो जाते हैं. भगवान शिव की प्रसन्नता भक्तों के लिए अति कल्याणकारी होती है. भगवान शंकर की कृपा से भक्तों के सभी कष्ट दूर होते हैं और उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. पंचाग के अनुसार जिस दिन त्रयोदशी तिथि होती है, उसी दिन के नाम पर प्रदोष व्रत का नाम होता है. जैसे 13 मई को पड़ने वाला प्रदोष व्रत शुक्रवार को पड़ रहा है, इसलिए इसे शुक्र प्रदोष व्रत कहते हैं.
शुक्र प्रदोष वाले दिन शुक्रवार शाम करीब 3.45 बजे से सिद्धि योग और हस्त नक्षत्र रहेगा. ज्योतिष नजरिये से ये दोनों योग मांगलिक एवं शुभ कार्यों के लिए अच्छे माने जाते हैं. शुक्र प्रदोष के दिन पहला शुभ समय 11 बजकर 51 मिनट से दोपहर 12 बजकर 45 मिनट तक है. इस दिन का राहुकाल सुबह 10 बजकर 36 मिनट से दोपहर 12 बजकर 18 मिनट तक है. इस दिन वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि 13 मई को शाम 5:29 बजे से शुरु होकर 14 मई 2022, शनिवार की दोपहर 3:24 मिनट तक रहेगी. प्रदोष व्रत के दौरान भगवान शिव की पूजा के लिए शुभ समय सायंकाल 07 बजकर 04 मिनट से 09 बजकर 09 मिनट तक रहेगा.
हिन्दू धर्म शास्त्र के अनुसार त्रयोदशी तिथि भगवान शिव की कृपा दिलाती है. स्कंद पुराण के अनुसार, प्राचीन समय में एक विधवा ब्राह्मणी अपने पुत्र के साथ प्रतिदिन भिक्षा मांगने के लिए सुबह की निकलती और शाम को वापस लौट कर आती. रोजाना की तरह वह एक दिन जब भिक्षा लेकर लौट रही थी तो उसने नदी के पास एक बहुत ही सुंदर बालक को देखा. उस ब्राह्मणी को यह नहीं पता था कि वह धर्मगुप्त नामक बालक विदर्भ देश का राजकुमार था, जिसके पिता को शत्रुओं ने युद्ध के दौरान मार डाला था. शत्रुओं ने धर्मगुप्त के राज्य को भी हथिया लिया था. धर्मगुप्त की माता भी अपने पति यानी विदर्भ देश के राजा की मृत्यु के दुख में चल बसी थीं.
प्रदोष व्रत की कथा : अकेले बालक की दशा देखकर विधवा ब्राह्मणी के मन ममता उमड़ आई. वह धर्मगुप्त को अपने घर ले गई और अपने बेटे की तरह ही पालन-पोषण किया. थोड़े दिनों के बाद वह ब्राह्मणी अपने पुत्र और धर्मगुप्त के साथ देव मंदिर गई, जहां वह ऋषि शांडिल्य से मिली. ऋषि शांडिल्य अपने बुद्धि और विवेक के लिए चर्चित थे. ऋषि शांडिल्य ने ही विधवा ब्राह्मणी को धर्मगुप्त के माता-पिता की मृत्यु से जुड़ी कहानी बताई. इसके बाद ऋषि शांडिल्य ने उस ब्राह्मणी और दोनों बच्चों को प्रदोष व्रत के बारे में विस्तार से समझाया. ऋषि शांडिल्य से संपूर्ण विधि-विधान को सुनने के बाद उस ब्राह्मणी और दोनों बच्चों ने व्रत संपन्न किया लेकिन उन्हें इस व्रत के फल के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.
कुछ दिन बाद जब दोनों बालक वन में घूम रहे थे तब उन्होंने वहां बेहद खूबसूरत गंधर्व कन्याओं को देखा. उन गंधर्व कन्याओं में से एक अंशुमती पर राजकुमार धर्मगुप्त का दिल आ गया. कुछ समय बाद अंशुमती और धर्मगुप्त एक दूसरे के प्यार में पड़ गए. अंशुमती ने शादी की इच्छा के कारण धर्मगुप्त को अपने पिता गंधर्वराज से मिलने के लिए बुलाया. इसके बाद जब अंशुमती के पिता को यह बात पता चली कि धर्मगुप्त विदर्भ देश का राजकुमार है तो उन्होंने भगवान भोलेनाथ की आज्ञा से उन दोनों की शादी करवा दी. शादी के बाद धर्मगुप्त ने दोबारा संघर्ष करके अपनी सेना बनाई और राज्य पर अपना आधिपत्य प्राप्त कर लिया. कुछ समय के बाद धर्मगुप्त को ज्ञात हुआ कि उन्हें यह सब प्रदोष व्रत के फलस्वरूप ही मिला है। उनकी सच्ची श्रद्धा और व्रत से खुश होकर भगवान भोलेनाथ में उन्हें ये फल दिया है. तब से यह मान्यता है कि जो कोई भी प्रदोष व्रत के दिन विधि-विधान से भोलेनाथ की पूजा करेगा. साथ ही ये कथा पढ़ेगा या सुनेगा, उसे अगले 100 वर्षों तक सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी.