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जानिए कौन थे कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे, जिनसे घबराते थे अंग्रेज - pandit badri datt pande

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान महात्मा गांधी भारत लौटकर राष्ट्रीय राजनीति की बागडोर अपने हाथ में ले रहे थे वहीं उत्तराखंड की पहाड़ियों में आजादी का भूखा शेर अल्मोड़ा का बद्री दत्त पांडे दहाड़ रहा था. पढ़िए कुमाऊं केसरी की अनसुनी कहानी.

कुमाऊं केसरी
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Published : Oct 30, 2021, 5:34 AM IST

अल्मोड़ा : दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 1915 में जब महात्मा गांधी भारत लौटे और राष्ट्रीय राजनीति की बागडोर अपने हाथ में ले रहे थे, उसी दौरान उत्तराखंड की पहाड़ियों में भी आजादी का भूखा एक शेर दहाड़ रहा था. नाम था बद्री दत्त पांडे. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पढ़िए कुमाऊं केसरी की अनसुनी कहानी.

अकबर इलाहाबादी ने कहा था- जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो. ठीक यही कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे ने किया था. 15 फरवरी 1882 को हरिद्वार के कनखल में जन्मे बद्री दत्त पांडे ने आजादी की लड़ाई में इतना बड़ा योगदान दिया था कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी उनके मुरीद हो गए थे.

जानिए कुमाऊं केसरी- बद्री दत्त पांडे के बारे में

अल्मोड़ा के थे, हरिद्वार में हुआ जन्म: बद्री दत्त पांडे का परिवार मूल रूप से अल्मोड़ा के पाटिया का निवासी था. माता-पिता की मृत्यु के बाद बद्री दत्त अल्मोड़ा आ गए. अल्मोड़ा के तत्कालीन हिंदू स्कूल (वर्तमान नाम GIC अल्मोड़ा) में 12वीं तक शिक्षा प्राप्त की. आगे की पढ़ाई के लिए पूरब का ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद चले गए. दुर्भाग्य देखिए इसी बीच उनकी पढ़ाई का खर्च उठाने वाले ताऊजी का देहांत हो गया. पढ़ाई छूट गई.

नौकरी के दौरान देखा अंग्रेजों का अत्याचार: इसके बाद उन्होंने कई जगह सरकारी नौकरी की. नौकरी के दौरान उन्होंने देश की जनता के साथ अंग्रेजों का अत्याचार और भ्रष्टाचार अपनी आंखों से देखा. नौकरी छोड़ दी.अब उन्होंने आजादी के आंदोलन में उतरने का फैसला लिया. अंग्रेजों के अत्याचार का जवाब देने के लिए कलम उठा ली. पत्रकारिता करने लगे.

लीडर से शुरू की पत्रकारिता: बद्री दत्त पांडे ने लीडर प्रेस में नौकरी शुरू की. इसके बाद देहरादून से निकलने वाले अखबार कॉस्मोपोलिटन को ज्वाइन किया. इस दौरान स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा के रूप में उनका विकास होता जा रहा था.

अल्मोड़ा अखबार से जुड़े तो दिखे कड़े तेवर: 1913 में बद्री दत्त पांडे अल्मोड़ा अखबार के सब एडिटर बन गए. अल्मोड़ा अखबार संभालने के बाद उनके तेवर तीखे होते गए. इसका फायदा अखबार को भी मिला. बद्री दत्त पांडे के लेखों से अखबार की लोकप्रियता बढ़ने लगी. 40 साल से चल रहे इस अखबार की तब तक सिर्फ 60 प्रतियां छपती थीं. बद्री दत्त पांडे के अखबार को ज्वाइन करने के तीन महीने के अंदर अखबार की प्रसार संख्या 1500 पहुंच गई.

होली के अंक ने मचाया हंगामा : दरअसल, बद्री दत्त पांडे अखबार में आक्रामक अंदाज में अंग्रेजी शासन-प्रशासन में हो रही गलत चीजों को छाप देते थे. होली का अंक बड़ा सज-धजकर निकला. होली अंक में 'जी हुजूरी' नामक गजल काफी लोकप्रिय हुई और इसने अंग्रेज अफसरों के बीच हड़कंप मचा दिया.

डिप्टी कमिश्नर को भी नहीं बख्शा: इस अंक में अंग्रेजों के जी हजूर रायबहादुरों के ऊपर कटाक्ष के साथ ही तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर लोमस के खिलाफ लेख छपा था. दरसअल तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर लोमस अल्मोड़ा के स्याही देवी के जंगलात के बगले में सुरा-सुंदरी में डूबा रहता था. एक दिन एक भारतीय कुली द्वारा उसके शराब के लिए मंगाए सोडा लाने में देर हो गई. फिर क्या था, गुस्साए लोमस ने उस पर गोली चला दी. इससे वह कुली घायल हो गया.

तिलमिलाए अंग्रेजों ने अल्मोड़ा अखबार कराया बंद: बाद में लोमस ने सफाई दी कि मुर्गी के शिकार में गोली के छर्रे उस भारतीय कुली को लग गए. इस कारण वह घायल हो गया. लेकिन उस दौर में अप्रैल माह में मुर्गी का शिकार खेलने पर पाबंदी थी. इस पर अल्मोड़ा अखबार में बद्रीदत्त पांडे ने यह प्रश्न उठाया कि यदि छर्रे मुर्गी को मारने में लगे, तो भी स्वयं कानून के रक्षक ने अप्रैल में मुर्गी का शिकार न खेलने का कानून क्यों तोड़ा.

इससे डरकर अंग्रेज प्रशासन ने अल्मोड़ा अखबार को बंद करवा दिया. इस घटना की बड़ी चर्चा हुई. गढ़वाल के अखबार में लोमस पर चुभती पंक्ति छपी कि -

एक फायर में तीन शिकार,

कुली, मुर्गी और अल्मोड़ा अखबार.

1918 में शुरू किया शक्ति अखबार: विजय दशमी के दिन 1918 को बद्री दत्त पांडे ने एक नया समाचार पत्र शक्ति शुरू किया. वो 1913 से 1926 तक शक्ति के संपादक रहे. इस दौरान उन्होंने अंग्रेजो पर फब्तियां कसते हुए अनेकों लेख लिखे. इससे शक्ति की लोकप्रियता बढ़ती गयी.

रायबहादुरों पर तंज: 1921 में शक्ति में छपा लेख- गेहूं व धान की फसलें पानी बिना सूखती हैं, पर रायबहादुरी की फसलें हर साल तरक्की पर हैं. इस प्रकार के लेखों से नौकरशाही, सरकार हमेशा उनके विरुद्ध रही. 1926 में बद्री दत्त पांडे काउंसिल के सदस्य चुने गए. इसके बाद उन्होंने अखबार को छोड़ दिया. यह अखबार 100 साल से अधिक समय से अभी भी अल्मोड़ा से छप रहा है.

कुली बेगार आंदोलन ने फैला दी कीर्ति: स्वतंत्रता आंदोलनों के समय में ही बद्री दत्त पांडे ने कुमाऊं में बड़े आंदोलन शुरू किए. इनमें प्रमुख रूप से कुली बेगार आंदोलन था. कुली बेगार एक कुप्रथा थी, जो वर्षों से उत्तराखंड में लोगों का शोषण की प्रथा थी. इसके तहत अंग्रेज अधिकारी यहां के लोगों से बिना मेहनताना दिए उनसे फ्री में कुली का काम करवाते थे.

इसके खिलाफ बद्री दत्त पांडे ने कुमाऊं में आंदोलन शुरू किया. कुमाऊं परिषद के 1918 में हुए प्रथम अधिवेशन में कुली बेगार प्रथा के खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया. इसके बाद इसको खत्म करने का आंदोलन शुरू हुआ. 10 जनवरी 1921 को बद्री दत्त पांडे हरगोविंद पंत, चिरंजीवी लाल समेत 50 आंदोलनकारियों के साथ इस कुप्रथा के खिलाफ सहयोग जुटाने बागेश्वर मेले में गए.

बागेश्वर पहुंचकर एक झंडा बनाया गया : 'कुली बेगार बंद करो' स्लोगन के साथ मेले में रुके लोगों के डेरों में इसको घुमाया गया और सहयोग जुटाया गया. 12 जनवरी 1921 की रात्रि को 50 हज़ार जनता बद्री दत्त दत्त पांडे के इस आंदोलन के पक्ष में खड़ी हो गयी. उस समय डायबिल डिप्टी कमिश्नर थे. उनके साथ 50 पुलिसकर्मी थे, जिनके पास 500 गोलियां थीं. डायबिल भीड़ पर गोली चलाना चाहते थे, लेकिन भीड़ के सामने सरकारी ताकत कम होने के कारण वह गोली नहीं चला सके.

डिप्टी कमिश्नर की धमकी से नहीं डरे: इसके बाद डायबिल ने बद्री दत्त पांडे को बुलाकर धमकाते हुए कहा कि चले जाओ. नहीं तो गिरफ्तार कर लिए जाओगे. लेकिन बद्री दत्त पांडे ने उसकी एक न सुनी. हज़ारों की भीड़ ने उस दिन से कुली बेगार न देने की शपथ लेते हुए कुली बेगार से सम्बंधित रजिस्टरों को सरयू नदी में प्रवाहित कर दिया. कुली बेगार प्रथा का अंत करने के बाद लोगों ने बद्री दत्त पांडे को सोने के दो मेडल दिए. ये मेडल उन्होंने 1962 के चीन युद्ध में रक्षा कोष में दान दे दिये.

कुर्मांचल केसरी की उपाधि मिली, गांधीजी ने की तारीफ: कुली बेगार की प्रथा खत्म करने के बाद बद्री दत्त पांडे को कुर्मांचल केसरी की उपाधि भी दी गयी. महात्मा गांधी ने उनके इस आंदोलन की सफलता पर इसे रक्तहीन क्रांति का नाम दिया. उन्होंने यंग इंडिया में लिखा कि- यह रक्तपात शून्य क्रांति है.

वेश्यावृत्ति कराई बंद: इसके अलावा बद्री दत्त पांडे ने नायक कुप्रथा को 1938-1945 के बीच अभियान चलाकर समाप्त किया. नायक प्रथा के तहत नायक जाति के लोगों को भूमि पर किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं था. वह अपनी कन्याओं व महिलाओं से वेश्यावृत्ति कर अपनी आजीविका चलाते थे. बद्री दत्त पांडे ने इस कुप्रथा को भी समाप्त करवाया.

गांधीजी के लाउड स्पीकर बने बद्री दत्त पांडे: 1929 में गांधी जी जब अल्मोड़ा आये थे, तब सभा के दौरान बद्री दत्त पांडे, गांधी जी के लाउड स्पीकर बने थे. दरअसल गांधी जी ने सभा में कहा कि वह थके हैं. ज्यादा जोर से नहीं बोल सकते हैं. इसलिए शांत होकर सुनिए. तभी आप तक मेरी आवाज पहुंचेगी. इस पर बगल में बैठे बद्री दत्त पांडे ने कहा कि आप चिंता मत कीजिये. आप धीरे से बोलिये, लेकिन मैं आपका लाउड स्पीकर बन जाता हूं. आप जो भी बोलेंगे, मैं उसे जोर से बोलकर दोहरा दूंगा. इसके बाद गांधी जी जो बोले बद्री दत्त पांडे उसे जोर-जोर से जनता तक दोहराते रहे.

बद्री दत्त पांडे ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस कारण बद्री दत्त पांडे को 4 बार जेल यात्रा पर जाना पड़ा. वह दिसम्बर 1921 से नवम्बर 1922 तक, जून 1929 से मार्च 1931 तक, जनवरी 1932 से अगस्त 1932 तक और जनवरी 1942 से 9 अगस्त 1943 तक जेल में रहे.

वह जब 1932 में जेल में थे तो उनके पुत्र तारक नाथ और पुत्री जयंती की मौत हो गयी थी. इस समय उन्होंने जेल में कुमाऊं का इतिहास लिखा था, जो आज भी उत्तराखंड की सबसे संदर्भित किताब मानी जाती है. 13 फरवरी 1965 को इस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का निधन हो गया.

अल्मोड़ा : दूसरे विश्व युद्ध के दौरान 1915 में जब महात्मा गांधी भारत लौटे और राष्ट्रीय राजनीति की बागडोर अपने हाथ में ले रहे थे, उसी दौरान उत्तराखंड की पहाड़ियों में भी आजादी का भूखा एक शेर दहाड़ रहा था. नाम था बद्री दत्त पांडे. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पढ़िए कुमाऊं केसरी की अनसुनी कहानी.

अकबर इलाहाबादी ने कहा था- जब तोप हो मुकाबिल तो अखबार निकालो. ठीक यही कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे ने किया था. 15 फरवरी 1882 को हरिद्वार के कनखल में जन्मे बद्री दत्त पांडे ने आजादी की लड़ाई में इतना बड़ा योगदान दिया था कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी उनके मुरीद हो गए थे.

जानिए कुमाऊं केसरी- बद्री दत्त पांडे के बारे में

अल्मोड़ा के थे, हरिद्वार में हुआ जन्म: बद्री दत्त पांडे का परिवार मूल रूप से अल्मोड़ा के पाटिया का निवासी था. माता-पिता की मृत्यु के बाद बद्री दत्त अल्मोड़ा आ गए. अल्मोड़ा के तत्कालीन हिंदू स्कूल (वर्तमान नाम GIC अल्मोड़ा) में 12वीं तक शिक्षा प्राप्त की. आगे की पढ़ाई के लिए पूरब का ऑक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद चले गए. दुर्भाग्य देखिए इसी बीच उनकी पढ़ाई का खर्च उठाने वाले ताऊजी का देहांत हो गया. पढ़ाई छूट गई.

नौकरी के दौरान देखा अंग्रेजों का अत्याचार: इसके बाद उन्होंने कई जगह सरकारी नौकरी की. नौकरी के दौरान उन्होंने देश की जनता के साथ अंग्रेजों का अत्याचार और भ्रष्टाचार अपनी आंखों से देखा. नौकरी छोड़ दी.अब उन्होंने आजादी के आंदोलन में उतरने का फैसला लिया. अंग्रेजों के अत्याचार का जवाब देने के लिए कलम उठा ली. पत्रकारिता करने लगे.

लीडर से शुरू की पत्रकारिता: बद्री दत्त पांडे ने लीडर प्रेस में नौकरी शुरू की. इसके बाद देहरादून से निकलने वाले अखबार कॉस्मोपोलिटन को ज्वाइन किया. इस दौरान स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा के रूप में उनका विकास होता जा रहा था.

अल्मोड़ा अखबार से जुड़े तो दिखे कड़े तेवर: 1913 में बद्री दत्त पांडे अल्मोड़ा अखबार के सब एडिटर बन गए. अल्मोड़ा अखबार संभालने के बाद उनके तेवर तीखे होते गए. इसका फायदा अखबार को भी मिला. बद्री दत्त पांडे के लेखों से अखबार की लोकप्रियता बढ़ने लगी. 40 साल से चल रहे इस अखबार की तब तक सिर्फ 60 प्रतियां छपती थीं. बद्री दत्त पांडे के अखबार को ज्वाइन करने के तीन महीने के अंदर अखबार की प्रसार संख्या 1500 पहुंच गई.

होली के अंक ने मचाया हंगामा : दरअसल, बद्री दत्त पांडे अखबार में आक्रामक अंदाज में अंग्रेजी शासन-प्रशासन में हो रही गलत चीजों को छाप देते थे. होली का अंक बड़ा सज-धजकर निकला. होली अंक में 'जी हुजूरी' नामक गजल काफी लोकप्रिय हुई और इसने अंग्रेज अफसरों के बीच हड़कंप मचा दिया.

डिप्टी कमिश्नर को भी नहीं बख्शा: इस अंक में अंग्रेजों के जी हजूर रायबहादुरों के ऊपर कटाक्ष के साथ ही तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर लोमस के खिलाफ लेख छपा था. दरसअल तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर लोमस अल्मोड़ा के स्याही देवी के जंगलात के बगले में सुरा-सुंदरी में डूबा रहता था. एक दिन एक भारतीय कुली द्वारा उसके शराब के लिए मंगाए सोडा लाने में देर हो गई. फिर क्या था, गुस्साए लोमस ने उस पर गोली चला दी. इससे वह कुली घायल हो गया.

तिलमिलाए अंग्रेजों ने अल्मोड़ा अखबार कराया बंद: बाद में लोमस ने सफाई दी कि मुर्गी के शिकार में गोली के छर्रे उस भारतीय कुली को लग गए. इस कारण वह घायल हो गया. लेकिन उस दौर में अप्रैल माह में मुर्गी का शिकार खेलने पर पाबंदी थी. इस पर अल्मोड़ा अखबार में बद्रीदत्त पांडे ने यह प्रश्न उठाया कि यदि छर्रे मुर्गी को मारने में लगे, तो भी स्वयं कानून के रक्षक ने अप्रैल में मुर्गी का शिकार न खेलने का कानून क्यों तोड़ा.

इससे डरकर अंग्रेज प्रशासन ने अल्मोड़ा अखबार को बंद करवा दिया. इस घटना की बड़ी चर्चा हुई. गढ़वाल के अखबार में लोमस पर चुभती पंक्ति छपी कि -

एक फायर में तीन शिकार,

कुली, मुर्गी और अल्मोड़ा अखबार.

1918 में शुरू किया शक्ति अखबार: विजय दशमी के दिन 1918 को बद्री दत्त पांडे ने एक नया समाचार पत्र शक्ति शुरू किया. वो 1913 से 1926 तक शक्ति के संपादक रहे. इस दौरान उन्होंने अंग्रेजो पर फब्तियां कसते हुए अनेकों लेख लिखे. इससे शक्ति की लोकप्रियता बढ़ती गयी.

रायबहादुरों पर तंज: 1921 में शक्ति में छपा लेख- गेहूं व धान की फसलें पानी बिना सूखती हैं, पर रायबहादुरी की फसलें हर साल तरक्की पर हैं. इस प्रकार के लेखों से नौकरशाही, सरकार हमेशा उनके विरुद्ध रही. 1926 में बद्री दत्त पांडे काउंसिल के सदस्य चुने गए. इसके बाद उन्होंने अखबार को छोड़ दिया. यह अखबार 100 साल से अधिक समय से अभी भी अल्मोड़ा से छप रहा है.

कुली बेगार आंदोलन ने फैला दी कीर्ति: स्वतंत्रता आंदोलनों के समय में ही बद्री दत्त पांडे ने कुमाऊं में बड़े आंदोलन शुरू किए. इनमें प्रमुख रूप से कुली बेगार आंदोलन था. कुली बेगार एक कुप्रथा थी, जो वर्षों से उत्तराखंड में लोगों का शोषण की प्रथा थी. इसके तहत अंग्रेज अधिकारी यहां के लोगों से बिना मेहनताना दिए उनसे फ्री में कुली का काम करवाते थे.

इसके खिलाफ बद्री दत्त पांडे ने कुमाऊं में आंदोलन शुरू किया. कुमाऊं परिषद के 1918 में हुए प्रथम अधिवेशन में कुली बेगार प्रथा के खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया. इसके बाद इसको खत्म करने का आंदोलन शुरू हुआ. 10 जनवरी 1921 को बद्री दत्त पांडे हरगोविंद पंत, चिरंजीवी लाल समेत 50 आंदोलनकारियों के साथ इस कुप्रथा के खिलाफ सहयोग जुटाने बागेश्वर मेले में गए.

बागेश्वर पहुंचकर एक झंडा बनाया गया : 'कुली बेगार बंद करो' स्लोगन के साथ मेले में रुके लोगों के डेरों में इसको घुमाया गया और सहयोग जुटाया गया. 12 जनवरी 1921 की रात्रि को 50 हज़ार जनता बद्री दत्त दत्त पांडे के इस आंदोलन के पक्ष में खड़ी हो गयी. उस समय डायबिल डिप्टी कमिश्नर थे. उनके साथ 50 पुलिसकर्मी थे, जिनके पास 500 गोलियां थीं. डायबिल भीड़ पर गोली चलाना चाहते थे, लेकिन भीड़ के सामने सरकारी ताकत कम होने के कारण वह गोली नहीं चला सके.

डिप्टी कमिश्नर की धमकी से नहीं डरे: इसके बाद डायबिल ने बद्री दत्त पांडे को बुलाकर धमकाते हुए कहा कि चले जाओ. नहीं तो गिरफ्तार कर लिए जाओगे. लेकिन बद्री दत्त पांडे ने उसकी एक न सुनी. हज़ारों की भीड़ ने उस दिन से कुली बेगार न देने की शपथ लेते हुए कुली बेगार से सम्बंधित रजिस्टरों को सरयू नदी में प्रवाहित कर दिया. कुली बेगार प्रथा का अंत करने के बाद लोगों ने बद्री दत्त पांडे को सोने के दो मेडल दिए. ये मेडल उन्होंने 1962 के चीन युद्ध में रक्षा कोष में दान दे दिये.

कुर्मांचल केसरी की उपाधि मिली, गांधीजी ने की तारीफ: कुली बेगार की प्रथा खत्म करने के बाद बद्री दत्त पांडे को कुर्मांचल केसरी की उपाधि भी दी गयी. महात्मा गांधी ने उनके इस आंदोलन की सफलता पर इसे रक्तहीन क्रांति का नाम दिया. उन्होंने यंग इंडिया में लिखा कि- यह रक्तपात शून्य क्रांति है.

वेश्यावृत्ति कराई बंद: इसके अलावा बद्री दत्त पांडे ने नायक कुप्रथा को 1938-1945 के बीच अभियान चलाकर समाप्त किया. नायक प्रथा के तहत नायक जाति के लोगों को भूमि पर किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं था. वह अपनी कन्याओं व महिलाओं से वेश्यावृत्ति कर अपनी आजीविका चलाते थे. बद्री दत्त पांडे ने इस कुप्रथा को भी समाप्त करवाया.

गांधीजी के लाउड स्पीकर बने बद्री दत्त पांडे: 1929 में गांधी जी जब अल्मोड़ा आये थे, तब सभा के दौरान बद्री दत्त पांडे, गांधी जी के लाउड स्पीकर बने थे. दरअसल गांधी जी ने सभा में कहा कि वह थके हैं. ज्यादा जोर से नहीं बोल सकते हैं. इसलिए शांत होकर सुनिए. तभी आप तक मेरी आवाज पहुंचेगी. इस पर बगल में बैठे बद्री दत्त पांडे ने कहा कि आप चिंता मत कीजिये. आप धीरे से बोलिये, लेकिन मैं आपका लाउड स्पीकर बन जाता हूं. आप जो भी बोलेंगे, मैं उसे जोर से बोलकर दोहरा दूंगा. इसके बाद गांधी जी जो बोले बद्री दत्त पांडे उसे जोर-जोर से जनता तक दोहराते रहे.

बद्री दत्त पांडे ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस कारण बद्री दत्त पांडे को 4 बार जेल यात्रा पर जाना पड़ा. वह दिसम्बर 1921 से नवम्बर 1922 तक, जून 1929 से मार्च 1931 तक, जनवरी 1932 से अगस्त 1932 तक और जनवरी 1942 से 9 अगस्त 1943 तक जेल में रहे.

वह जब 1932 में जेल में थे तो उनके पुत्र तारक नाथ और पुत्री जयंती की मौत हो गयी थी. इस समय उन्होंने जेल में कुमाऊं का इतिहास लिखा था, जो आज भी उत्तराखंड की सबसे संदर्भित किताब मानी जाती है. 13 फरवरी 1965 को इस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का निधन हो गया.

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