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कोविड-19 के बीच समय की मांग है आर्थिक असमानता का समाधान - समय की मांग है आर्थिक असमानता का समाधान

कोरोना महामारी ने भारत में अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है. समाज का हर तबका इससे प्रभावित हुआ है. देश में पहले से ही मौजूद आर्थिक विषमता के चलते अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को कोरोना ने और बढ़ा दिया है. ऐसे में सरकार को इस बीमारी के निर्मूलन के साथ ही देश में अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने की कोशिश जारी रखे...

आर्थिक असमानता का समाधान समय की मांग
आर्थिक असमानता का समाधान समय की मांग
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Published : Aug 1, 2020, 5:01 PM IST

नई दिल्ली : कोरोना महामारी का प्रकोप पूरी दुनिया में जारी है. आज कितनी खराब स्थिति है यह कोई मायने नहीं रखता, लेकिन इसका अंत भी नजदीक ही है. एक समय के बाद हैजा, प्लेग, खसरा, पोलियो, इन्सेफेलाइटिस, चेचक, सार्स और इबोला भी खत्म हो गए. इस बीच सरकार को हर हाल में इस महामारी से लोगों और उनकी आजीविका पर पड़ने वाले प्रभाव को कम करने के लिए लगातार काम करना चाहिए. नेताओं के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण समय है कि वह आर्थिक विषमता की दूसरी महामारी पर ध्यान दें, जो न जाने कब से मानव के लिए आफत बनी हुई है.

कोविड-19 की तरह ही स्पेनिस फ्लू ने वर्ष 1920 में पूरी दुनिया को हिला दिया था. मानव जाति की महामारियों भेंट कोई नया नहीं है, लेकिन सामाजिक असमानता से आबादी के कई वर्गों को खतरा है. कल्याणकारी राज्य की अवधारणा दुनिया में 1880 के दशक में आई. दूसरे विश्वयुद्ध से जो सामाजिक आर्थिक मुसीबत आई, उससे इसकी जरूरत को और बल मिला.

आजादी के 73 वर्ष के बाद भी हमारे देश में आर्थिक असमानता बहुत अधिक है. सरकारों ने कल्याणकारी राज्य के मूल सिद्धांतों जैसे नियोजन के लिए बराबरी का अवसर और संपत्ति के बंटवारे की उपेक्षा की. कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण सामाजिक कल्याण से जुड़ी योजनाएं भारत में नाकाम रहीं.

सरकारी योजनाएं जब लोगों के स्वास्थ्य, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा में योगदान देंगी, तभी भारत कल्याणकारी राज्य के लेबल को न्यायसंगत ठहरा पाएगा. फोर्ब्स की वार्षिक सूची के अनुसार, दुनिया में 2095 अरबपति हैं, जिनमें 102 भारत में हैं. देश की आबादी की तुलना में ये संख्या छोटी लग सकती है, लेकिन ऑक्सफेम इंटरनेशनल की रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि भारत में एक प्रतिशत जो सबसे धनी लोग हैं, उनके पास 73 प्रतिशत संपत्ति है.

इसके परिणामस्वरूप आर्थिक असमानता बढ़ रही है. भारत के गरीब भूख और बीमारी से संतप्त हैं. दुर्भाग्य से लोगों को यह सिखाने के बजाय कि किस तरह कमाएं हमारी सरकारें सतही योजनाओं के माध्यम से उन्हें मछली दे रही है. राजनीतिक दल कल्याणकारी योजनाओं के जरिए मतदाताओं को प्रभावित करके अपनी जीत पक्की कर रहे हैं. चूंकि चुनावी जीत के अलावा किसी भी राजनीतिक दल को जनता के कल्याण में कोई रुचि नहीं है, इसलिए गरीब और गरीब होते जा रहे हैं.

औपनिवेशिक शासन से पहले भारत आत्मनिर्भर देश था. ब्रिटिश शासन ने हमें सामाजिक और आर्थिक रूप से पंगु बना दिया. आजादी के बाद हमारे सबसे पहले के नेताओं ने देश को आगे बढ़ाने के लिए कई नीतियां लागू की. जनसंख्या विस्फोट के साथ उसकी बाद की सरकारों ने वर्ष 1965 में हरित क्रांति लागू की जिससे देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ा.

यह भी पढ़ेंः साइबर अटैक से नहीं घबराने की जरूरत, ऐसे दर्ज कराएं शिकायत

वर्ष 1990 के दशक में भारत में बड़े आर्थिक सुधार की शुरुआत हुई और वैश्विक बाजार के लिए दरवाजा खुला. इसके बावजूद आत्मनिर्भरता दूर का सपना है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, आयात हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 23.64 प्रतिशत है, जबकि निर्यात 19.74 प्रतिशत. हम आज भी दवा, इलेक्ट्रॉनिक्स, रक्षा उपकरण, कच्चे तेल और सेमीकंडक्टर्स के लिए दूसरे देशों के भरोसे हैं. मौजूदा महामारी और इसके फलस्वरूप जारी लॉकडाउन के कारण पहले से ही हिल रही हमारी स्वास्थ्य और आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है.

प्रवासी मजदूरों की दयनीय स्थिति ने हमें पूरी दुनिया में शर्मसार किया है. ब्रोकिंग की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 7.3 करोड़ भारतीय भयानक गरीबी में जी रहे हैं. यहां तक मध्य वर्ग भी नीचे जा रहा है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019-20 में बेरोजगारी दर 6.3 प्रतिशत बढ़ गई है. मौजूदा परिस्थितियों में संगठित और गैरसंगठित क्षेत्र समान रूप से लड़खड़ा रहे हैं.

लाखों लोग अपनी नौकरी और आजीविका गंवा चुके हैं. अभी यह देखना बाकी है कि क्या ‘आत्मनिर्भर भारत’ से अंतर आएगा. जब तक रोजगार, आय और खरीदने की क्षमता को एक स्वतंत्र मानक माना जाएगा तब तक आत्मनिर्भरता असंभव है. इसलिए रोजगार पैदा करने के लिए और धन के फिर से बंटवारे के लिए सरकारों के लिए नीतियों में बदलाव लाने की जरूरत है. कोविड-19 वैश्विक महामारी सरकारों के लिए उचित समय है कि संकट पर चिंतन करे और आर्थिक असमानता के स्तर को कम करने के लिए रास्ता निकाले.

नई दिल्ली : कोरोना महामारी का प्रकोप पूरी दुनिया में जारी है. आज कितनी खराब स्थिति है यह कोई मायने नहीं रखता, लेकिन इसका अंत भी नजदीक ही है. एक समय के बाद हैजा, प्लेग, खसरा, पोलियो, इन्सेफेलाइटिस, चेचक, सार्स और इबोला भी खत्म हो गए. इस बीच सरकार को हर हाल में इस महामारी से लोगों और उनकी आजीविका पर पड़ने वाले प्रभाव को कम करने के लिए लगातार काम करना चाहिए. नेताओं के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण समय है कि वह आर्थिक विषमता की दूसरी महामारी पर ध्यान दें, जो न जाने कब से मानव के लिए आफत बनी हुई है.

कोविड-19 की तरह ही स्पेनिस फ्लू ने वर्ष 1920 में पूरी दुनिया को हिला दिया था. मानव जाति की महामारियों भेंट कोई नया नहीं है, लेकिन सामाजिक असमानता से आबादी के कई वर्गों को खतरा है. कल्याणकारी राज्य की अवधारणा दुनिया में 1880 के दशक में आई. दूसरे विश्वयुद्ध से जो सामाजिक आर्थिक मुसीबत आई, उससे इसकी जरूरत को और बल मिला.

आजादी के 73 वर्ष के बाद भी हमारे देश में आर्थिक असमानता बहुत अधिक है. सरकारों ने कल्याणकारी राज्य के मूल सिद्धांतों जैसे नियोजन के लिए बराबरी का अवसर और संपत्ति के बंटवारे की उपेक्षा की. कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण सामाजिक कल्याण से जुड़ी योजनाएं भारत में नाकाम रहीं.

सरकारी योजनाएं जब लोगों के स्वास्थ्य, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा में योगदान देंगी, तभी भारत कल्याणकारी राज्य के लेबल को न्यायसंगत ठहरा पाएगा. फोर्ब्स की वार्षिक सूची के अनुसार, दुनिया में 2095 अरबपति हैं, जिनमें 102 भारत में हैं. देश की आबादी की तुलना में ये संख्या छोटी लग सकती है, लेकिन ऑक्सफेम इंटरनेशनल की रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि भारत में एक प्रतिशत जो सबसे धनी लोग हैं, उनके पास 73 प्रतिशत संपत्ति है.

इसके परिणामस्वरूप आर्थिक असमानता बढ़ रही है. भारत के गरीब भूख और बीमारी से संतप्त हैं. दुर्भाग्य से लोगों को यह सिखाने के बजाय कि किस तरह कमाएं हमारी सरकारें सतही योजनाओं के माध्यम से उन्हें मछली दे रही है. राजनीतिक दल कल्याणकारी योजनाओं के जरिए मतदाताओं को प्रभावित करके अपनी जीत पक्की कर रहे हैं. चूंकि चुनावी जीत के अलावा किसी भी राजनीतिक दल को जनता के कल्याण में कोई रुचि नहीं है, इसलिए गरीब और गरीब होते जा रहे हैं.

औपनिवेशिक शासन से पहले भारत आत्मनिर्भर देश था. ब्रिटिश शासन ने हमें सामाजिक और आर्थिक रूप से पंगु बना दिया. आजादी के बाद हमारे सबसे पहले के नेताओं ने देश को आगे बढ़ाने के लिए कई नीतियां लागू की. जनसंख्या विस्फोट के साथ उसकी बाद की सरकारों ने वर्ष 1965 में हरित क्रांति लागू की जिससे देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ा.

यह भी पढ़ेंः साइबर अटैक से नहीं घबराने की जरूरत, ऐसे दर्ज कराएं शिकायत

वर्ष 1990 के दशक में भारत में बड़े आर्थिक सुधार की शुरुआत हुई और वैश्विक बाजार के लिए दरवाजा खुला. इसके बावजूद आत्मनिर्भरता दूर का सपना है. विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, आयात हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 23.64 प्रतिशत है, जबकि निर्यात 19.74 प्रतिशत. हम आज भी दवा, इलेक्ट्रॉनिक्स, रक्षा उपकरण, कच्चे तेल और सेमीकंडक्टर्स के लिए दूसरे देशों के भरोसे हैं. मौजूदा महामारी और इसके फलस्वरूप जारी लॉकडाउन के कारण पहले से ही हिल रही हमारी स्वास्थ्य और आर्थिक व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है.

प्रवासी मजदूरों की दयनीय स्थिति ने हमें पूरी दुनिया में शर्मसार किया है. ब्रोकिंग की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 7.3 करोड़ भारतीय भयानक गरीबी में जी रहे हैं. यहां तक मध्य वर्ग भी नीचे जा रहा है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2019-20 में बेरोजगारी दर 6.3 प्रतिशत बढ़ गई है. मौजूदा परिस्थितियों में संगठित और गैरसंगठित क्षेत्र समान रूप से लड़खड़ा रहे हैं.

लाखों लोग अपनी नौकरी और आजीविका गंवा चुके हैं. अभी यह देखना बाकी है कि क्या ‘आत्मनिर्भर भारत’ से अंतर आएगा. जब तक रोजगार, आय और खरीदने की क्षमता को एक स्वतंत्र मानक माना जाएगा तब तक आत्मनिर्भरता असंभव है. इसलिए रोजगार पैदा करने के लिए और धन के फिर से बंटवारे के लिए सरकारों के लिए नीतियों में बदलाव लाने की जरूरत है. कोविड-19 वैश्विक महामारी सरकारों के लिए उचित समय है कि संकट पर चिंतन करे और आर्थिक असमानता के स्तर को कम करने के लिए रास्ता निकाले.

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