नई दिल्ली : रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने राष्ट्रवाद और 1960 के दशक की मार्मिक यादों को वापस लाते हुए संसद में देश को भारत-चीन सीमा विवाद के बारे में जानकारी दी. लद्दाख के सूखे बंजर पहाड़ों पर घास का एक तिनका उगता हो अथवा नहीं, लेकिन यह भारत की क्षेत्रीय अखंडता के लिए बहुत महत्व रखता है. रक्षामंत्री ने मानसून सत्र के दूसरे दिन अपने देशभक्तिपूर्ण भावनात्मक भाषण में इसी बात पर जोर देने की कोशिश की. यह भाषण पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के उस बयान के ठीक विपरीत है, जो उन्होंने 1961 में संसद में दिया था.
...एक तिनका तक नहीं उगता ने नेहरू की राजनीतिक छवि को डुबो दिया
नेहरू ने तब संसद में कहा था कि लद्दाख के विवाद वाले क्षेत्र में घास का एक तिनका तक नहीं उगता. राजनाथ सिंह ने सैनिकों की भी प्रशंसा करते हुए कहा कि हमारे सैनिक भारतीय जमीन के एक इंच पर भी समझौता नहीं कर रहे हैं. नेहरू के कांग्रेस सहयोगियों में से एक महावीर त्यागी ने उनके बयान पर तब व्यंग्यात्मक टिप्पणी की थी, यहां भी कुछ नहीं उगता... क्या इसे किसी और को दे दिया जाना चाहिए? इस टिप्पणी ने नेहरू की राजनीतिक छवि को बुरी तरह से डुबो दिया था. इसके विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लद्दाख यात्रा की प्रशंसा की जा रही थी और सिंह ने अपने भाषण में भी इसका उल्लेख किया कि क्षेत्र में पीएम की यात्रा के बाद भारत के सैनिकों का मनोबल ऊंचा है.
रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का हर शब्द सावधानीपूर्वक चयनित था
भारत-चीन सीमा (एलएसी) पर सैन्य तैयारियों के बारे में रक्षामंत्री ने बताया कि भारत उपयुक्त रूप से लंबी दौड़ के लिए तैयार है. कठोर मौसम का सामना करने के लिए सैनिकों को सुविधा प्रदान की गई है. लद्दाख के उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्र में ठंड सबसे बड़ा दुश्मन है. यहां तापमान शून्य से 40 डिग्री तक नीचे चला जाता है. रक्षामंत्री का हर शब्द सावधानीपूर्वक चयनित था. चीन के अरुणाचल प्रदेश में भारतीय क्षेत्र के 90,000 वर्ग किलोमीटर पर दावे और पाकिस्तान द्वारा लद्दाख की 5180 वर्ग किलोमीटर भारतीय भूमि को चीन के हवाले करने का चीन का संदर्भ यह बताने के लिए दिया गया कि चीन एलएसी की यथास्थिति और भारत की धारणा को माने और सम्मान करे.
लोकसभा में बयान के दौरान चीन को एक और स्पष्ट संदेश
एलएसी में दोनों तरफ विशाल सेना खड़ी है. विवाद वाले क्षेत्र में चीनी सैनिकों की घुसपैठ के बाद 6 जून को दोनों पक्ष सहमत हुए थे कि एलएसी की यथास्थिति को बदलने वाली कोई भी गतिविधि नहीं की जाएगी मगर 15 जून को चीनी सैनिकों ने गलवान घाटी में भारत के सामान्य नियमित गश्त पर हमला कर तनाव चरम पर पहुंचा दिया. इस हिंसा में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए. राजनाथ ने आज अपने लोक सभा में बयान के दौरान चीन को एक और स्पष्ट संदेश दिया कि एलएसी की स्थिति को एकतरफा बदलने का कोई भी प्रयास चाहे वह राजनयिक हो या सैन्य बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.
1962 से पहले भारतीय सेना की तैयारी कमजोर नहीं थी
इसके विपरीत 1962 से पहले भारतीय सेना की तैयारी कमजोर नहीं थी. भारत रणनीतिक रूप से कई बिंदुओं पर लाभकारी स्थिति में था. भारत का थांग ला पोस्ट पर कब्जा था, इस पोस्ट की वजह से तिब्बत के कुछ गांवों, खेंजेमेन, ढोला पोस्ट और मैक मोहन लाइन के पास के अन्य क्षेत्रों पर भारत की बढ़त थी. नेहरू सरकार ने 1959 से लेकर युद्ध शुरू होने तक भारतीय सेना की सीमा पर सभी तरह के गश्त करने पर रोक लगा रखी थी. फिर भी भारतीय सेना ने पर्याप्त तैयारी कर ली थी, लेकिन राजनीतिक और राजनयिक तत्परता नहीं थी, जितना अब है. संसद के अंदर या उसके बाहर दिए गए बयान शौकिया थे. इसी कारण सीमा पर सेना व अन्य बलों में सामंजस्य का अभाव था.
दुनिया को लग रहा था कि चीन एक शिकार है
असम राइफल्स और सेना के बीच कोई तारतम्य नहीं था. असम राइफल्स को सीमा प्रोटोकॉल का पता नहीं था. 60 के दशक में सीमा विवाद पर चीन के आक्रामक होने से दुनिया को लग रहा था कि चीन एक शिकार है, जबकि इस समय वह पूरी तरह से उजागर हो गया है. तत्कालीन नेहरू सरकार की तुलना में अब अंतरराष्ट्रीय पहुंच बहुत बेहतर है.
विशेष फ्रंटियर फोर्स का गठन नेहरू के दिमाग की उपज
1959 में तिब्बतियों के विद्रोह और उनके भारत आने पर विशेष फ्रंटियर फोर्स का गठन नेहरू के दिमाग की उपज थी, जो आज भारत की एलीट फोर्स मानी जाती है. यह फोर्स उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में गुप्त कार्रवाई करने में सक्षम हैं. विशेष फ्रंटियर फोर्स के बारे में अब तक सबकुछ गुप्त रखा गया, लेकिन वर्तमान सरकार ने विशेष फ्रंटियर फोर्स का खुलासा इसके एक सदस्य के लद्दाख में मरने के बाद इस महीने की शुरुआत में कर दिया, जो चीन के लिए एक बड़ा झटका था. राष्ट्र निर्माण में नेहरू के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, लेकिन भारत-चीन सीमा के संदर्भ में उनकी सोच राजनेताओं को सबसे अच्छे से पता होगी.