करौली. हाथ में लकड़ी की बेंत, सिर पर लाल पगड़ी, मूछों पर ताव और आवाज में बुलंद इरादा रखने वाले कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला अब यादों में रह गए हैं. 81 साल की उम्र में उनका निधन हो गया. कर्नल शुक्रवार को अपने अंतिम सफर पर (Last Salute To Colonel Bainsla) चल पड़े. उनके साथ जुड़ा कारवां यह बताने के लिए काफी है कि कर्नल बैंसला के जाने से क्या क्षति हुई है. समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा लिए कर्नल ने जब आंदोलन का रास्ता चुना था, तब यह किसी को पता नहीं था कि कर्नल लक्ष्य को तक पहुंच पाएंगे.
उनके जीवन का मूल मंत्र रहा है 'गुड हेल्थ, गुड एजुकेशन'. कर्नल किरोड़ी सिंह के आंदोलन से लेकर समाज की भलाई के लिए (Fought Long Battle for Gurjar Society) उठाए गए कदमों की फेहरस्ति काफी लंबी है. ईटीवी भारत की टीम जब कर्नल के पैतृक आवास पर पहुंची तो स्थानीय लोगों ने उनसे जुड़े संस्मरण साझा करते हुए साफ कहते थे, मजबूत इरादों वाला नेक इंसान अब हमारे बीच नहीं है. स्थानीय लोग बताते हैं कि कर्नल एक बार जो निर्णय कर लेते थे, फिर वो पीछे मुड़कर नहीं देखते थे. उनके जिद्दी स्वभाव और मजबूत इरादों की झलक राज्य की सरकार ने कई बार गुर्जर आंदोलन के दौरान देखी है.
लोगों ने बताया कि कर्नल बैंसला ने जब गुर्जर आंदोलन की नींव रखी थी, तब उन्होंने अपनी गाड़ी पर स्लोगन लिखवाया था 'हम होंगे कामयाब'. लेकिन गुर्जर आंदोलन शुरू होने के बाद उन्होंने अपनी गाड़ी पर स्लोगन लिखवाया 'रात अंधेरी, चलबो दूरी' यानी आगे अंधेरा है और मुझे लक्ष्य छूना है. गुर्जर आंदोलन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए तमाम चुनौतियों से जूझते हुए (Face of Gurjar Agitation) आगे बढ़ने वाले कर्नल के रास्ते में कभी उनकी ढलती उम्र बाधा नहीं बनी. कर्नल अपने आंदोलन और मजबूत इरादों के चलते 'पटरी वाले बाबा' के नाम से भी प्रसिद्ध हुए थे.
अंतिम समय तक लड़ते रहे कर्नलः गुर्जर आंदोलन का नेतृत्व करने वाले कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला जेठ की तपती दुपहरी के बीच रेल की पटरियों पर लाल पगड़ी पहने बैठे रहते थे. अपनी कौम को न्याय दिलाने के लिए बैंसला ने अपनी बूढी उम्र को कभी आंदोलनों में बाधक नहीं बनने दिया. अंतिम समय तक बस इसी बात के लिए लड़ते रहे कि कौम के वंचितों को आगे की पंक्ति में कैसे लाया जाए?. जब भी बात होती थी तो कहते थे कि उन्हें आंदोलन करने का कोई शौक नहीं है, उन्हें गांव और ढाणियों में रह रहे अपनी कौम का पिछड़ापन नहीं देखा जाता. फुटपाथ पर रहने वाले गाड़िया लुहार और बंजारों के दर्द को देखकर वे कराहने लगते थे. इस दर्द को उन्होंने कई बार मंत्रियों और अफसरों के सामने बयां भी किया. वे कहते थे कि मेरा आंदोलन उस दिन पूरा होगा, जब मेरी कौम की बेटी करौली की कलेक्टर बनेगी. उस दिन मेरा सीना फक्र से तन उठेगा.
ऐसे थामी थी गुर्जर आंदोलन की कमानः भूतपूर्व सैनिक रमेश चंद गुर्जर ने बताया कि कर्नल पिता तुल्य थे. 1994 में श्रीमहावीरजी में एक भूतपूर्व सैनिक संघ की बैठक हुई. जिसमें कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला को अध्यक्ष चुना गया. इस चुनाव के बाद कर्नल के साथ दूसरे साथी एक गांव में रुके तो वहां के लोगों ने कहा कि कर्नल आपने अपने लिए काफी कुछ किया, लेकिन अब समाज के लिए करो. तब कर्नल ने देशी अंदाज में कहा था कि यह बात उनके मन में भी है, लेकिन क्या समाज के लोग साथ देंगे. लोगों के हां कहने के बाद कर्नल ने गुर्जर आंदोलन की कमान हाथ में ली. उन्होंने 262 नुक्कड़ सभाएं की. गांव-गांव जाकर आंदोलन के प्रति चेता जागृत की. उन्होंने 2006 में पहली बार रेल रोको आंदोलन शुरू किया. इसके बाद पाटोली और पीलूपुरा में आंदोलन का सिलसिला चला.
पढ़े-लिखे को देखकर खुश होते थे कर्नलः स्थानीय लोगों ने बातचीत में बताया कि 'कर्नल साहब' प्रकृति प्रिय थे. उन्होंने अपने आवास के गेट पर लिखवाया था कि 'सुख पावे मेरो हंस विरस्तो' यानी कि मेरा मन मेरे पेतृक गांव में आकर ही लगता है. पैतृक आवास में बनी एक झोपड़ी में ही वे महत्वपूर्ण निर्णय करते थे. लोगों ने कहा कि कर्नल की सबसे अच्छी विशेषता यह थी कि वे पढ़े-लिखे लोगों को देखकर खुश होते थे. वे हमेशा कहते थे कि 'गुड हेल्थ-गुड एजुकेशन'. एक ग्रामीण ने बताया कि वे करीब 10 दिन पहले गांव में आए थे. मुलाकात के दौरान उन्होंने कहा था कि बच्चों को अच्छी शिक्षा देना, शिक्षा ही सफलता की चाबी है.
सेना में जाने से पहले टीचर थेः टोडाभीम के मूडिया गांव में जन्में कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला सेना में जाने से पहले सरकारी स्कूल में अंग्रेजी के टीचर थे. उन्हें इंगलिश की काफी अच्छी नॉलेज थी. कर्नल के पिता सेना में थे, इसलिए वे भी शिक्षक की नौकरी छोड़कर सेना में चले गए. राजपूताना राइफल्स में सिपाही के पद पर भर्ती हुए. उन्होंने वर्ष 1962 और 1965 के युद्ध में पकिस्तान के खिलाफ जौहर दिखाया. वे सेना में रहते हुए कर्नल के पद तक पहुंचे. सेना के बाद भी वे पूरा जीवन दिलेरी से जीते रहे.
झोपड़ी में बैठकर कर्नल लेते थे फैसलाः टोडाभीम के मूंडिया गांव में स्थित उनके पैतृक निवास पर ईटीवी भारत की टीम पहुंची तो वहां हजारों लोगों का हुजूम उमडा हुआ था. लोग कर्नल के अंतिम दर्शन के लिए इंतजार कर रहे थे. कर्नल के आवास पर बनी एक झोपड़ी सबसे खास है. यहीं पर बैठकर कर्नल महत्वपूर्ण फैसले लेते थे.