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मारवाड़ी बाटी का स्वाद लाजवाब, एक बार खाया तो भूल नहीं पाओगो - Rajasthan Hindi News

दाल बाटी की बात हो तो राजस्थान का नाम न आए, ऐसा नहीं हो (Jodhpur famous Dal Bati Bati) सकता. राजस्थानी भोजन की थाली में खास पहचान रखने वाली बाटी को बनाने का तरीका बदलते समय की तरह उन्नत होता गया है.

Jodhpur famous Dal Bati Bati
मारवाड़ी बाटी का स्वाद लाजवाब
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Published : Mar 2, 2023, 7:04 PM IST

मारवाड़ी बाटी का स्वाद लाजवाब

जोधपुर. दाल बाटी का नाम लेते ही जोधपुर का जिक्र आना स्वभाविक है. राजस्थानी स्वाद से लबरेज बाटी का जायके में खासा महत्व है. यूं तो आमतौर पर लोगों को लगता है कि जो दालबाटी घरों में बनती है, वही असली दाल बाटी होगी. घरों में बनने वाली दाल बाटी इस भोजन का उन्नत रूप है, जो बाटी ओवन में बनती है या फिर बाफला बाटी के रूप में उबाल कर तली जाती है. लेकिन राजस्थानी खालीस बाटी जगरे में ही बनती है. जगरा यानी उपले. गाय के गोबर से बने उपले में बाटी को सेंका जाता है. इन्हें स्थानीय भाषा मे छाणे कहा जाता है.

माना जाता है कि इस तरह से सेकी गई बाटी की गुणवत्ता ज्यादा बेहतर होती है. हालांकि इसके उलट गैस की भट्टियों में भी बाटी सेकी जाने लगी है. लेकिन इस पुरातन तरीके से सेकी बाटी आज भी लोगों को खासा पसंद है. घरों में बनने वाली दाल बाटी का खाना होटलों पर मिलने की शुरूआत 1985 में हुई थी. आज की तारीख में जोधपुर में दाल बाटी की सैंकडों होटल है. लेकिन जगरे में बाटी बनाने वाली इक्का दुक्का ही होटल हैं. इनमें सबसे उपर नाम भाटी दालबाटी का है. जहां प्रतिदिन सुबह आठ बजे जगरे के लिए बाटी तैयार होती है. यहां सुबह दस बजे से रात नौ बजे तक जगरे की बाटी मिलती है.

पढ़ें : Holi festival 2023: सिंध की यह खास मिठाई परंपरा का है हिस्सा, होली पर यहां घीयर से होती है आवभगत

लाल गेहूं से बनती है बाटीः जगरे की बाटी बनाने वाले अशोक भाटी बताते हैं कि जगरे में सामान्य आटे से बनी बाटी का स्वाद नहीं आता है. हम बरसों से देशी लाल गेहूं के आटे से ही बाटी बनाते आए हैं. यह गेहूं बाड़मेर क्षेत्र से लाते हैं. देशी लाल गेहूं बारिश के पानी से ही पकता है. अशोक भाटी बताते हैं कि सामान्य गेहूं से लाल गेहूं दो गुना महंगा मिलता है. गेहूं का महीन आटा नहीं बनाते हैं, थोडा मोटा भुरभुरा रखते हैं, जो बाटी में भी नजर आता है. कहा जाता है कि जगरे में यह मोटा आटे का स्वाद जगरे में पकने के बाद सामान्य आटे से कहीं ज्यादा होता है. इसके लिए दाल भी भट्टी पर बनाई जाती है, जो मंद मंद आग पर उबलती रहती है. जिससे उसका टेस्ट काफी बेहतर होता है. इतना ही नहीं जोधपुर में बाहर से आकर काम करने वाले लोग हर दिन यह दालबाटी खाते हैं.

यूं बनती है मोटे आटे की बाटीः मोटे आटे में नमक मिलाकर उसे गौंदा जाता है, पर्याप्त मात्रा में पानी मिलाया जाता है. बाद में बाटियां ठेले में जमा जगरे की राख में जमाई जाती हैं. तरीके से एक एक बाटी को जमाया जाता है, उसके बाद उस पर उपले का पिरामिड बनाकर आग लगाई जाती है. कुछ समय तक आग लगती है. उसके बाद धहकते गोबर के उपले बाटियों पर घंटों तक रहते हैं. गर्म राख में बाटियां सींकती रहती हैं. बाद में धीरे धीरे कतार से बाटियां आवश्यकता अनुसार निकाली जाती हैं. सुबह लगाए जगरे की बाटियां शाम तक गर्म रहती हैं.

पढ़ें: जी भर के खाइये ये खास मिठाई, सेहत को नहीं होगा कोई नुकसान

कभी सादा भोजन आज लोकप्रियः मारवाड़ में दाल बाटी बहुत सादा भोजन होता था. राजा महाराजा के समय सैनिकों के लिए दाल बाटी ही बनती थी. जहां भी सेना जाती थी वहां पर जमीन पर ही लकड़ियां बिछाकर आग लगा दी जाती थी. उसमें आटे की बाटियां डाल देते थे, जो धीरे धीरे पकती रहती थी. चपाती नहीं बनती थी. आज भी ग्रामीण इलाकों में मजदूर शाम को पत्थरों का चूल्हा बनाकर आग लगाकर बाटी सेंक कर खाते हैं. लेकिन बदलते समय के साथ बाटी बनाने के तरीके बदल गए. अब यह दाल बाटी का भोजन लोकप्रिय हो गया है. लोग घर परिवार के छोटे मोटे आयोजन में दाल बाटी चूरमा बनाते हैं.

बदलता बाटी का रूपः जगरे की बाटी अब हर कहीं नहीं बनती है. घरों में भी बाटीओवन में बनती है. होटलों के भी यही हालात है. घरों में अब महीन आटे की बाटी बनती है, इसके अलावा कुछ लोग गोल बाटी को पानी में उबाल कर ओवन में सेकते हैं. इसके अलावा कुछ जगहों पर बड़ी बाटियां पानी में उबाल कर उनके छोटे टूकडे काट कर तलते हैं. इसे बाफला बाटी नाम दिया गया है, इसके अलावा मिठी बाटी, मसाला बाटी भी बनने लगी है.

मारवाड़ी बाटी का स्वाद लाजवाब

जोधपुर. दाल बाटी का नाम लेते ही जोधपुर का जिक्र आना स्वभाविक है. राजस्थानी स्वाद से लबरेज बाटी का जायके में खासा महत्व है. यूं तो आमतौर पर लोगों को लगता है कि जो दालबाटी घरों में बनती है, वही असली दाल बाटी होगी. घरों में बनने वाली दाल बाटी इस भोजन का उन्नत रूप है, जो बाटी ओवन में बनती है या फिर बाफला बाटी के रूप में उबाल कर तली जाती है. लेकिन राजस्थानी खालीस बाटी जगरे में ही बनती है. जगरा यानी उपले. गाय के गोबर से बने उपले में बाटी को सेंका जाता है. इन्हें स्थानीय भाषा मे छाणे कहा जाता है.

माना जाता है कि इस तरह से सेकी गई बाटी की गुणवत्ता ज्यादा बेहतर होती है. हालांकि इसके उलट गैस की भट्टियों में भी बाटी सेकी जाने लगी है. लेकिन इस पुरातन तरीके से सेकी बाटी आज भी लोगों को खासा पसंद है. घरों में बनने वाली दाल बाटी का खाना होटलों पर मिलने की शुरूआत 1985 में हुई थी. आज की तारीख में जोधपुर में दाल बाटी की सैंकडों होटल है. लेकिन जगरे में बाटी बनाने वाली इक्का दुक्का ही होटल हैं. इनमें सबसे उपर नाम भाटी दालबाटी का है. जहां प्रतिदिन सुबह आठ बजे जगरे के लिए बाटी तैयार होती है. यहां सुबह दस बजे से रात नौ बजे तक जगरे की बाटी मिलती है.

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लाल गेहूं से बनती है बाटीः जगरे की बाटी बनाने वाले अशोक भाटी बताते हैं कि जगरे में सामान्य आटे से बनी बाटी का स्वाद नहीं आता है. हम बरसों से देशी लाल गेहूं के आटे से ही बाटी बनाते आए हैं. यह गेहूं बाड़मेर क्षेत्र से लाते हैं. देशी लाल गेहूं बारिश के पानी से ही पकता है. अशोक भाटी बताते हैं कि सामान्य गेहूं से लाल गेहूं दो गुना महंगा मिलता है. गेहूं का महीन आटा नहीं बनाते हैं, थोडा मोटा भुरभुरा रखते हैं, जो बाटी में भी नजर आता है. कहा जाता है कि जगरे में यह मोटा आटे का स्वाद जगरे में पकने के बाद सामान्य आटे से कहीं ज्यादा होता है. इसके लिए दाल भी भट्टी पर बनाई जाती है, जो मंद मंद आग पर उबलती रहती है. जिससे उसका टेस्ट काफी बेहतर होता है. इतना ही नहीं जोधपुर में बाहर से आकर काम करने वाले लोग हर दिन यह दालबाटी खाते हैं.

यूं बनती है मोटे आटे की बाटीः मोटे आटे में नमक मिलाकर उसे गौंदा जाता है, पर्याप्त मात्रा में पानी मिलाया जाता है. बाद में बाटियां ठेले में जमा जगरे की राख में जमाई जाती हैं. तरीके से एक एक बाटी को जमाया जाता है, उसके बाद उस पर उपले का पिरामिड बनाकर आग लगाई जाती है. कुछ समय तक आग लगती है. उसके बाद धहकते गोबर के उपले बाटियों पर घंटों तक रहते हैं. गर्म राख में बाटियां सींकती रहती हैं. बाद में धीरे धीरे कतार से बाटियां आवश्यकता अनुसार निकाली जाती हैं. सुबह लगाए जगरे की बाटियां शाम तक गर्म रहती हैं.

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कभी सादा भोजन आज लोकप्रियः मारवाड़ में दाल बाटी बहुत सादा भोजन होता था. राजा महाराजा के समय सैनिकों के लिए दाल बाटी ही बनती थी. जहां भी सेना जाती थी वहां पर जमीन पर ही लकड़ियां बिछाकर आग लगा दी जाती थी. उसमें आटे की बाटियां डाल देते थे, जो धीरे धीरे पकती रहती थी. चपाती नहीं बनती थी. आज भी ग्रामीण इलाकों में मजदूर शाम को पत्थरों का चूल्हा बनाकर आग लगाकर बाटी सेंक कर खाते हैं. लेकिन बदलते समय के साथ बाटी बनाने के तरीके बदल गए. अब यह दाल बाटी का भोजन लोकप्रिय हो गया है. लोग घर परिवार के छोटे मोटे आयोजन में दाल बाटी चूरमा बनाते हैं.

बदलता बाटी का रूपः जगरे की बाटी अब हर कहीं नहीं बनती है. घरों में भी बाटीओवन में बनती है. होटलों के भी यही हालात है. घरों में अब महीन आटे की बाटी बनती है, इसके अलावा कुछ लोग गोल बाटी को पानी में उबाल कर ओवन में सेकते हैं. इसके अलावा कुछ जगहों पर बड़ी बाटियां पानी में उबाल कर उनके छोटे टूकडे काट कर तलते हैं. इसे बाफला बाटी नाम दिया गया है, इसके अलावा मिठी बाटी, मसाला बाटी भी बनने लगी है.

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