जैसलमेर. प्रदेश के पशुपालकों के लिए केंद्र और राज्य सरकार के सहयोग से अच्छी खबर सामने आ रही हैं. जहां प्रदेशभर के पशुपालकों की आय को दोगुना करने के लिए अच्छी नस्ल के पशुओं के प्रजनन व संवर्धन के लिए नया प्रयोग किए जा रहा हैं ताकी अच्छी नस्ल के संवर्धन के साथ-साथ गायों के दूध देने की क्षमता को भी दुगना किया जा सके. प्रदेश की बेहतरीन नस्लों में गिनी जाने वाली थारपारकर नस्ल की गायों पर प्रदेश के गोपालन विभाग व केंद्र सरकार के डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड द्वारा भ्रूण प्रत्यारोपण का नया प्रयोग किया गया है. जिसमें एक ही प्रयास में तकरीबन 40 से 50 गौवंश का प्रजनन किया जा सकेगा. पशुपालन विभाग का कहना है कि इस तकनीक से जन्में बछड़े या बछड़ी का जन्म लेते ही कीमत एक लाख के करीब होती है, ऐसे में आने वाले दिनों में इस तकनीक का प्रदेश के किसानों व पशुपालकों को निश्चित रूप से लाभ मिलने वाला है.
गौवंश में कामधेनु के नाम से जाने जाने वाली थारपारकर प्रजाति पशुपालकों में सबसे अधिक लोकप्रिय मानी जाती है. डेयरी का व्यवसाय करने वाले लोग अधिकांश इसी नस्ल को अपने डेयरी फॉर्म पर रखते हैं, लेकिन पिछले लंबे समय से इस गौवंश के उचित संरक्षण नहीं होने के चलते यह प्रजाति लुप्त सी हो रही है और इसको बचाने की मांग भी उठ रही थी.
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ऐसे में प्रदेश के गोपालन विभाग एवं केंद्रीय डेयरी विकास बोर्ड ने साझा प्रयासों से इस प्रजाति के संरक्षण व संवर्धन का बीड़ा उठाया है. आगामी दिनों में पशुपालकों को इसका लाभ मिलना आरंभ हो जाएगा. गोपालन विभाग के एडिशनल डायरेक्टर डॉ. लालसिंह ने बताया कि थारपारकर नस्ल को बेहतर विकसित करने के लिए विभाग द्वारा नवीन प्रयोग किया गया है. जिसमें थारपारकर नस्ल के उन्नत बैल के शुक्राणु को थारपारकर नस्ल की उन्नत गाय के गर्भाशय में स्थापित किया जाता है और इसके बाद जब गाय के गर्भ में अंडे विकसित होते हैं, तब इन अंडों को पुनः गर्भाशय से निकालकर साधारण नस्ल की गायों में ट्रांसफर किया जाता है.
उन्होंने बताया कि एक थारपारकर गाय में तकरीबन 5 से 20 अंडे विकसित होते हैं, ऐसे में उन सभी अंडों को अलग-अलग साधारण नस्ल की गायों में स्थापित किया जाता है. उन्होंने यह भी बताया कि साधारण नस्ल की गाय का केवल गर्भ ही उपयोग में आता है जबकि उनसे होने वाले बछड़े शुद्ध थारपारकर नस्ल के ही पैदा होंगे. डॉ. सिंह ने बताया कि प्राकृतिक एवं कृत्रिम गर्भाधान से शुद्ध नस्ल की थारपारकर गोवंश बनाने में कम से कम 10 साल लग जाते हैं. जब प्रत्यारोपण विधि से उन्नत थारपारकर नस्ल के पशुधन 1 साल में प्राप्त कर तीसरे साल से उत्पादन में लाया जा सकता है.
- मादा की प्रजनन एवं उत्पादन क्षमता को बढ़ाना
- रोगों से मुक्त नवजात पैदा करना
- जुड़वा नवजात उत्पादन
- उत्कृष्ट अनुवांशिक सामग्रीयों का संरक्षण
- जीन स्थानांतरण
- पीढ़ी अंतराल को कम करना
- वांछित जीन का कम समय में परीक्षण करना
- नवजातों की संख्या में 5 से 6 गुना की वृद्धि
थारपारकर नस्ल को गौवंश में माना जाता है कामधेनु
दूध के उत्पादन में भारत का विशेष स्थान है, भारत में पशुपालन मुख्य तौर पर दूध उत्पादन के लिए ही किया जाता है और इसकी प्रोसेसिंग और खुदरा बिक्री के लिए किए जाने वाले कार्यों से लाखों परिवार पोषित हो रहे हैं. वैसे तो भारत में भैंस, भेड़, बकरी और ऊंटनी आदि का दूध भी प्रयोग में लिया जाता है लेकिन गाय का दूध अधिक लोकप्रिय है और यही कारण है कि अधिक दूध देने वाली गायों की मांग आज बढ़ रही है. पशु पालकों को ऐसा मवेशी चाहिए जिन्हें पालने में लागत कम से कम और मुनाफा अधिक हो, थारपारकर एक ऐसी ही गाय है और इसका नाम सबसे उत्तम दुधारू पशुओं में शुमार है.
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कहां पाई जाती हैं थारपारकर नस्ल की गायेंथारपारकर गाय राजस्थान में जोधपुर और जैसलमेर में मुख्य रूप से पाई जाती है. इस नस्ल की गाय भारत की सर्वश्रेष्ठ दुधारू गायों में गिनी जाती है. इस गाय का उत्पत्ति स्थल मालाणी (बाड़मेर) है. राजस्थान के स्थानीय भागों में इसे 'मालाणी' नस्ल के नाम से भी जाना जाता है. थारपारकर शुष्क क्षेत्रों में बड़े आराम से यहाँ के मौसम की मार झेल सकती है. अलग-अलग जलवायु और पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालने में इसे महारत हासिल है और यह जीरो डिग्री से लेकर 50 डिग्री तक के तापमान में खुद को ढाल लेती है. इतना ही नहीं यह बहुत कम भोजन में भी जीवित रहने में समर्थ है और उसका औसतन जीवन 25 से 28 वर्ष तक का होता है.
जैसलमेर के मामड़ियाई गौशाला में पशुपालन विभाग द्वारा किए जा रहे थारपारकर गायों की नस्ल सुधार कार्यक्रम के अंतर्गत अब तक के प्रदेश के सबसे अधिक 40 गौवंश का प्रजनन होगा जो पशुपालकों के लिए प्रेरणा बन सकता है.