डूंगरपुर. आदिवासी अंचल वागड़ में पत्थरमार खून की होली खेली जाती है. जी हां, यहां एक-दो नहीं सैकड़ों लोग होली के दूसरे दिन ढोल की थाप पर एक-दूसरे पर जमकर पत्थर बरसाते हैं. इसमें दर्जनों लोग घायल भी होते है, लेकिन चोटिल लोगों के खून की बूंद जब धरती पर गिरती है तो इसे शगुन की तरह मानते है. प्रदेश का दक्षिणांचल डूंगरपुर जिला आदिवासी बहुलता के कारण इसे आदिवासी अंचल भी कहा जाता है. रंगों का त्योहार होली जहां देशभर में अलग-अलग रंगों, फूलों से खेलते है तो वहीं वागड़ में होली के कई रंग और परंपराएं देखने को मिलती है. इसमें खासकर है पत्थरमार होली, जो जिले के भीलूड़ा गांव में खेली जाती है.
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पत्थरमार होली की 400 साल पुरानी परंपरा
400 साल पहले शुरू हुई इस पत्थरमार होली की परंपरा आज भी चली आ रही है. इसे स्थानीय भाषा मे पत्थरों की राड़ कहते है. होलिका दहन के दूसरे दिन धुलंडी पर इस अनोखे और शौर्य प्रदर्शन से भरपूर पत्थरों की राड़ खेली जाती है. शाम के समय भीलूड़ा सहित आसपास के कई गांवों के लोग ढोल-कुंडी की थाप पर गैर खेलते हुए पहले रघुनाथजी मंदिर के पास एकत्रित होते है. इसके बाद होली की चीत्कार लगाते हुए दो गुट आमने-सामने हो जाते है और एक-दूसरे पर पत्थर बरसाना शुरू कर देते है.
घायल होने के बाद भी नहीं होता उत्साह
दोनों पक्षों में सैकड़ों लोग इस पत्थरमार होली को खेलते है. लोग हाथों से गोफन (रस्सी से बना हुआ, जिससे पत्थर को दूर तक फेंका जाता है) लेकर एक-दूसरे पर पत्थरों की बारिश करते है तो वहीं पत्थरों से बचने के लिए लोग ढाल का इस्तेमाल करते है. वहीं कुछ लोग सिर को पत्थरों से बचाने के लिए साफा या रुमाल भी बांध लेते है. पत्थरों की इस बारिश के कारण कई लोग लहूलुहान होकर घायल हो जाते है, लेकिन इसके बावजूद लोगों का उत्साह कम नहीं होता है और लोग पत्थर बरसाना जारी रखते है. लहूलुहान व्यक्ति का खून जब मैदान पर गिरता है तो इसे शगुन माना जाता है. पत्थरमार होली का यह खेल शाम को सूरज ढलने करीब 3 घंटे तक खेला जाता है.
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घायलों के इलाज के लिए लगाई जाती है चिकित्सा टीमें
पत्थरमार होली में दर्जनों लोग घायल होते है. पत्थर लगने के कारण सिर, मुंह, हाथ-पैर या शरीर पर कई जगह चोटें लगती है तो वहीं घायलों के इलाज के लिए हर साल मौके पर चिकित्सा विभाग की ओर से टीमें भी लगाई जाती है। रघुनाथजी मंदिर के पास मैदान में पत्थरमार होली खेली जाती है तो वही पर अस्पताल भी है, जहां पत्थरमार होली पर कई लोगो के घायल होने पर इलाज व भर्ती की सुविधा की जाती है. इस बार भी होली के दूसरे दिन 10 मार्च को पत्थरमार होली खेली जाएगी और इसे देखते हुए 2 डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ को लगाया गया है. इसके अलावा दवाइयों का भी पर्याप्त प्रबंध किया गया है.
पत्थरमार होली के पीछे ये है मान्यता
भीलूड़ा गांव में इस हिंसक आयोजन के पीछे कोई ठोस मान्यता तो नहीं है, लेकिन बताया जाता है कि गांव को सती के श्राप से मुक्त रखने के लिए पत्थरों की राड़ खेली जाती है. बताया जाता है कि 400 साल पहले गांव में एक किसान रहता था, जिसके पास एक प्रशिक्षित श्वान था. श्वान का नाम समीपस्थ रियासत के एक तत्कालीन शासक के हमनाम था. दूसरी ओर श्वान अपने विलक्षणता के कारण प्रख्यात था. शासक को जब हमनाम वाले श्वान के बारे में पता चला तो राजा ने उसे मारने सैनिक भेजे. उस दिन धुलंडी थी. किसान खेत में था और श्वान भी वहीं था.
सैनिकों ने जब श्वान को मारने का प्रयास किया तो किसान और श्वान दोनों भागने लगे और आखिर में सैनिकों ने दोनों को मार दिया. इसके बाद गांव के लोग जब किसान का अंतिम संस्कार कर रहे थे, तो उसकी पत्नी वही आकर रोते हुए उस धधकती चिता पर बैठ गई, लेकिन इससे पहले उसने श्राप दिया कि धुलंडी के दिन यहां हर साल खून नहीं बहा तो गांव को सती का श्राप लगेगा. इसी श्राप से बचने के लिए चार सौ सालों से गांव में पत्थरों की होली खेली जाती है.
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पत्थरमार होली को रोकने हर साल होते है प्रयास
भीलूड़ा में खेली जाने वाली पत्थरों की राड़ में हर साल 50 या इससे ज्यादा लोग घायल होते है. ऐसे में इस हिंसक राड़ को रोकने के लिए पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से प्रशासनिक तौर पर प्रयास किये जा रहे है. इस बीच पिछले कुछ सालों में पत्थरों की राड़ को औपचारिक तौर पर भी खेला गया, लेकिन इसके एक-दो साल बाद ही पत्थरों की राड़ फिर से शुरू हो गई, जिसमें कई लोग घायल होते हैं.