डीग (भरतपुर). साल 1942 में आज ही के दिन भारतवासियों द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हुई थी. इस आंदोलन में आदिवासियों का भी काफी योगदान रहा था. इसके अलावा साल 1885 में भी स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व हुए कई आंदोलनों में आदिवासियों का योगदान रहा था.
तब से आज तक इस दिन को औपचारिकता निभाते हुए आदिवासी दिवस के रूप में भले ही मनाया जाता रहा है, लेकिन स्वतंत्र भारत में आदिवासी प्रजाति के लोगों के लिए धरातल पर सिर्फ दिखावे के अलावा कुछ और नहीं हुआ. आज भी इन प्रजातियों के लिए सरकारी सुविधाएं केवल कागजों में ही सिमटकर रह गई है.
ऐसा ही एक उदाहरण डीग उपखंड की ग्राम पंचायत अऊ के अंतर्गत 10 परिवारों के समूह में रहने वाले भीलों के डेरा निवासी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहे हैं. ये सभी आज भी बिजली, पानी, आवास और रास्ते की समस्या से वंचित हैं. डेढ़ से दो किलोमीटर से पानी लाकर अपनी प्यास बुझाना इनके लिए आम बात हो गई है.
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वहीं, बरसात के दिनों में इनकी बस्ती में गंदा पानी इकठ्ठा होने से डेरा से बाहर निकलना भी दुश्वार हो जाता है. इनके बच्चे भी बारिश के दिनों स्कूल नहीं जा पाते. इतना ही नहीं, अगर इस गांव का कोई निवासी बीमार हो जाए तो उन्हें कंधे पर बिठाकर अस्पताल ले जाना पड़ता है.
इन लोगों को जहां एक ओर प्रशासन की ओर से कोई राहत नहीं मिलती. वहीं, ग्राम पंचायत के जिम्मेदार आबादी की भूमि नहीं होना बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं. इससे इन लोगों को अपनी मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर रहना पड़ता है. वहीं, भील जनजाति के लोगों का कहना है कि सरपंच से लेकर एमपी, एमएलए तक बड़े-बड़े वादे कर वोट मांगने आते हैं, लेकिन आज तक उन्हें कोई सुविधा उनको नहीं मिली.