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Special: दशकों पुरानी तांगा दौड़ पर कोर्ट का 'ग्रहण', कोचवानों ने देसी नस्ल के घोड़े पालना भी छोड़ा

नागौर के खरनाल-मूंदियाड़ सहित तीन ऐतिहासिक मेलों में होने वाली पारंपरिक 'तांगा दौड़' राजस्थान हाईकोर्ट की रोक के बाद पांच साल से बंद है. इस दौड़ पर लगी रोक हटवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई गई, जिस पर फैसला आना अभी बाकी है. पीढ़ियों से तांगा दौड़ में भाग लेने वाले कोचवानों ने अब मैदान में दौड़ने का दमखम रखने वाले घोड़े पालना बंद कर दिया है और शादी-विवाह में काम आने वाली घोड़ियां पालने लगे हैं.

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तांगा दौड़ पर पांच साल से लगी है रोक
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Published : Aug 26, 2020, 10:55 PM IST

नागौर. ऐतिहासिक मेलों में होने वाली तांगा दौड़ पर रोक लगे पांच साल पूरे हो चुके हैं. साल 2015 में पशु क्रूरता संबंधी याचिका पर फैसला देते हुए राजस्थान हाईकोर्ट ने इस पारंपरिक तांगा दौड़ पर रोक लगा दी थी. उसके बाद से मामला सुप्रीम कोर्ट में अटका है. जहां से अंतिम फैसला आने का सभी को इंतजार है. इन पांच साल में दौड़ में भाग लेने वाले कोचवानों ने दौड़ के मैदान में दमखम आजमाने वाले घोड़े रखना बंद कर दिया है. अब वे घोड़ियां पाल रहे हैं, जिन्हें शादी-विवाह जैसे आयोजनों में किराए पर देकर अपना और परिवार का गुजारा करते हैं.

तांगा दौड़ पर पांच साल से लगी है रोक

40 साल तक घोड़े की लगाम पकड़कर तांगा दौड़ के मैदान में जोर आजमाने वाले अब्दुल्ला बताते हैं कि नागौर के खरनाल-मूंदियाड़, रोल और बालापीर के मेले में पारंपरिक तांगा दौड़ का आयोजन होता था. इस दौड़ को लेकर नागौर के लोगों के साथ ही प्रवासियों में भी खासा उत्साह रहता था. गुजरात, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में रहने वाले प्रवासी खासतौर पर तांगा दौड़ का लुत्फ उठाने के लिए नागौर आते थे. लेकिन अब तांगा दौड़ बंद होने से इन मेलों के प्रति लोगों के उत्साह में भी कमी आई है. वे बताते हैं कि तांगा दौड़ को लेकर लोगों में एक जुनून दिखाई देता था. सड़क के दोनों तरफ हजारों लोग सरपट दौड़ते हुए तांगों की एक झलक पाने के लिए बेताब रहते थे. कई उत्साही लोग दौड़ते हुए तांगों के साथ अपनी गाड़ियां दौड़ाते और हूटिंग करते थे. हजारों लोगों का हुजूम सड़क पर और सड़क के दोनों तरफ दिखाई पड़ता था, जिसे नियंत्रित करने में पुलिस को भी पसीने आ जाते थे.

यह भी पढ़ेंः SPECIAL: गरीबों के 'मर्ज़' पर कंपनी ने की 'मनमर्जी' और सरकार ने दिखाई 'बेरुखी'

अब्दुल्ला का कहना है कि वे खासतौर पर दौड़ के लिए घोड़े खरीदकर लाते थे और उन्हें दौड़ने के लिए तीन-चार महीने पहले ही प्रशिक्षित करना शुरू कर देते थे. ताकि कड़े मुकाबले में उनका घोड़ा प्रतिद्वंद्वी के घोड़े से कमतर साबित न हो. उनका मानना है कि तांगा दौड़ पर लगी रोक को हटवाने के लिए सरकार को कोर्ट में मजबूती से अपना पक्ष रखना चाहिए और रोक हटवाकर फिर से तांगा दौड़ शुरू करवानी चाहिए. ताकि आज की युवा पीढ़ी पारंपरिक विरासत से रूबरू हो सके. उनका यह भी कहना है कि तांगा दौड़ पर रोक लगने के बाद इन मेलों के प्रति लोगों के उत्साह में भी कमी आई है.

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तांगा दौड़ को देखने के लिए कुछ यूं होती थी लोगों की भीड़

क्या कहना है कोचवान मोहम्मद गुफरान का?

कोचवान मोहम्मद गुफरान बताते हैं कि वे तांगा दौड़ के लिए खासतौर पर मजबूत कदकाठी के देसी घोड़े खरीदकर लाते थे. जिन्हें करीब तीन-चार महीने तक रोज 20 से 25 किलोमीटर दौड़ाकर प्रैक्टिस करवाते थे. साथ ही उन घोड़ों के खानपान का भी खासतौर पर ध्यान रखा जाता था. दौड़ की तैयारी करने वाले घोड़ों को खासतौर पर देशी घी पिलाया जाता था. इसके साथ ही चार तरह के मुरब्बे, पांच तरह के अनाज का आटा और हरा चारा खिलाया जाता था. एक घोड़े पर रोजाना 1500 से 2000 रुपए खर्च करने पड़ते थे. तीन-चार महीने के कठिन परिश्रम और अच्छे खानपान के बाद घोड़े को तांगा दौड़ में दम आजमाने के लिए उतारा जाता था. उनका कहना है कि जो घोड़े तांगा दौड़ के लिए लाए जाते थे. उन्हें किसी दूसरे काम मे नहीं लिया जाता था. शादी-विवाह में काम में आने वाली घोड़ियां अलग होती हैं. जबकि जो घोड़े दौड़ के लिए खरीदे जाते थे. वे केवल दौड़ में ही काम आते थे.

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घोड़े की सेवा करता हुआ कोचवान

यह भी पढ़ेंः Special Report: होम क्वॉरेंटाइन में रह रहे मरीजों के लिए पड़ोसी बने मददगार

कोचवान गुफरान का कहना है कि आखिरी बार साल 2014 मे तांगा दौड़ हुई थी. तब दौड़ में पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर आने वाले घोड़े को इनाम के तौर पर क्रमशः 11 हजार, 5100 और 2100 रुपए का पुरस्कार दिया जाता था. इस राशि से घोड़े के खाने-पीने का खर्च निकालना संभव नहीं था. लेकिन शौक और नाम के लिए हम जेब से रुपए खर्च करते थे. उनका कहना है कि वे बचपन से ही तांगा दौड़ के शौकीन रहे और लंबे अरसे तक खुद दौड़ के मैदान में घोड़े की लगाम थामी. पांच साल पहले तांगा दौड़ बंद होने के बाद यह सिलसिला टूट गया है.

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तांगा दौड़ में प्रयोग होने वाला तांगा

यह भी पढ़ेंः SPECIAL: सुल्ताना से खत्म हो रहा है धीरे-धीरे लोहे का रिश्ता, कभी हामड की आवाज से उठता था गांव

कोचवान मोहम्मद जमील अंसारी का कहना है कि उन्होंने करीब 40 साल तक जोश-खरोश के साथ तांगा दौड़ में घोड़ों की लगाम थामी है. इसके लिए बाकायदा वे खास नस्ल के घोड़े रखते और उनके खाने-पीने से लेकर ट्रेनिंग तक का पूरा ध्यान रखते. खासतौर पर उन्हें दूध और घी पिलाया जाता था. लेकिन अब पांच साल से तांगा दौड़ बंद है. ऐसे में उन्होंने दौड़ में काम आने वाले घोड़े पालना बंद कर दिया है. अब वे घोड़ियां रखते हैं, जिन्हें शादी-विवाह में किराए पर देकर अपना और परिवार का गुजारा चलाते हैं.

उनका कहना है कि पहले तांगा दौड़ में अपने घोड़े दौड़ाना उनके परिवार की शान समझी जाती थी. इसलिए जेब से रुपए खर्च करते थे. अब जब दौड़ ही नहीं होती तो क्या करें. इसलिए घोड़ों की जगह घोड़ियां और तांगों की जगह बग्गियां ले आए, जिन्हें शादी-विवाह में काम में लिया जाता है. उनका कहना है कि परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए वे दौड़ में काम आने वाले घोड़े पालते थे. लेकिन अब दौड़ बंद हो गई तो वैसे घोड़े रखना भी बंद कर दिए. उनका कहना है कि पहले नागौर में कई लोग तांगा दौड़ के लिए खास नस्ल, मजबूत कद-काठी के प्रशिक्षित घोड़े रखते थे. वैसे घोड़े आज नागौर में कोई नहीं रखता है. इसका बड़ा कारण है कि उनकी सार संभाल और प्रशिक्षण में समय भी देना पड़ता था और यह महंगा शौक है. जब तक दौड़ होती थी. परिवार की परंपरा निभाने के लिए घोड़े रखते थे, लेकिन अब घोड़े नहीं रखते हैं.

यह भी पढ़ेंः स्पेशल: 'वेस्ट को बेस्ट' बनाने का नायाब तरीका...बिना लागत तैयार कर दिए 2 हजार नीम के पौधे

बता दें कि नागौर में तेजादशमी के दिन यानि भाद्रपद शुक्ल दशमी को खरनाल गांव में वीर तेजाजी का मेला भरता है. इससे एक दिन पहले मूंदियाड़ गांव में गजानन भगवान का मेला भरता है. पहले दिन तांगा दौड़ मूंदियाड़ गांव से खरनाल आती थी. अगले दिन यह तांगा दौड़ खरनाल से नागौर आती थी. पांच साल पहले हाईकोर्ट के आदेश के बाद इस दौड़ को बंद कर दिया गया है. इस पर रोक हटाने की याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, जिसे लेकर हर साल मूंदियाड़ मेले से पहले सुगबुगाहट होती है. लेकिन इस साल कोरोना काल में जहां धार्मिक स्थानों के कपाट आमजन के लिए बंद हैं और बड़े आयोजनों पर रोक है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई को लेकर भी कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती है.

नागौर. ऐतिहासिक मेलों में होने वाली तांगा दौड़ पर रोक लगे पांच साल पूरे हो चुके हैं. साल 2015 में पशु क्रूरता संबंधी याचिका पर फैसला देते हुए राजस्थान हाईकोर्ट ने इस पारंपरिक तांगा दौड़ पर रोक लगा दी थी. उसके बाद से मामला सुप्रीम कोर्ट में अटका है. जहां से अंतिम फैसला आने का सभी को इंतजार है. इन पांच साल में दौड़ में भाग लेने वाले कोचवानों ने दौड़ के मैदान में दमखम आजमाने वाले घोड़े रखना बंद कर दिया है. अब वे घोड़ियां पाल रहे हैं, जिन्हें शादी-विवाह जैसे आयोजनों में किराए पर देकर अपना और परिवार का गुजारा करते हैं.

तांगा दौड़ पर पांच साल से लगी है रोक

40 साल तक घोड़े की लगाम पकड़कर तांगा दौड़ के मैदान में जोर आजमाने वाले अब्दुल्ला बताते हैं कि नागौर के खरनाल-मूंदियाड़, रोल और बालापीर के मेले में पारंपरिक तांगा दौड़ का आयोजन होता था. इस दौड़ को लेकर नागौर के लोगों के साथ ही प्रवासियों में भी खासा उत्साह रहता था. गुजरात, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में रहने वाले प्रवासी खासतौर पर तांगा दौड़ का लुत्फ उठाने के लिए नागौर आते थे. लेकिन अब तांगा दौड़ बंद होने से इन मेलों के प्रति लोगों के उत्साह में भी कमी आई है. वे बताते हैं कि तांगा दौड़ को लेकर लोगों में एक जुनून दिखाई देता था. सड़क के दोनों तरफ हजारों लोग सरपट दौड़ते हुए तांगों की एक झलक पाने के लिए बेताब रहते थे. कई उत्साही लोग दौड़ते हुए तांगों के साथ अपनी गाड़ियां दौड़ाते और हूटिंग करते थे. हजारों लोगों का हुजूम सड़क पर और सड़क के दोनों तरफ दिखाई पड़ता था, जिसे नियंत्रित करने में पुलिस को भी पसीने आ जाते थे.

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अब्दुल्ला का कहना है कि वे खासतौर पर दौड़ के लिए घोड़े खरीदकर लाते थे और उन्हें दौड़ने के लिए तीन-चार महीने पहले ही प्रशिक्षित करना शुरू कर देते थे. ताकि कड़े मुकाबले में उनका घोड़ा प्रतिद्वंद्वी के घोड़े से कमतर साबित न हो. उनका मानना है कि तांगा दौड़ पर लगी रोक को हटवाने के लिए सरकार को कोर्ट में मजबूती से अपना पक्ष रखना चाहिए और रोक हटवाकर फिर से तांगा दौड़ शुरू करवानी चाहिए. ताकि आज की युवा पीढ़ी पारंपरिक विरासत से रूबरू हो सके. उनका यह भी कहना है कि तांगा दौड़ पर रोक लगने के बाद इन मेलों के प्रति लोगों के उत्साह में भी कमी आई है.

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तांगा दौड़ को देखने के लिए कुछ यूं होती थी लोगों की भीड़

क्या कहना है कोचवान मोहम्मद गुफरान का?

कोचवान मोहम्मद गुफरान बताते हैं कि वे तांगा दौड़ के लिए खासतौर पर मजबूत कदकाठी के देसी घोड़े खरीदकर लाते थे. जिन्हें करीब तीन-चार महीने तक रोज 20 से 25 किलोमीटर दौड़ाकर प्रैक्टिस करवाते थे. साथ ही उन घोड़ों के खानपान का भी खासतौर पर ध्यान रखा जाता था. दौड़ की तैयारी करने वाले घोड़ों को खासतौर पर देशी घी पिलाया जाता था. इसके साथ ही चार तरह के मुरब्बे, पांच तरह के अनाज का आटा और हरा चारा खिलाया जाता था. एक घोड़े पर रोजाना 1500 से 2000 रुपए खर्च करने पड़ते थे. तीन-चार महीने के कठिन परिश्रम और अच्छे खानपान के बाद घोड़े को तांगा दौड़ में दम आजमाने के लिए उतारा जाता था. उनका कहना है कि जो घोड़े तांगा दौड़ के लिए लाए जाते थे. उन्हें किसी दूसरे काम मे नहीं लिया जाता था. शादी-विवाह में काम में आने वाली घोड़ियां अलग होती हैं. जबकि जो घोड़े दौड़ के लिए खरीदे जाते थे. वे केवल दौड़ में ही काम आते थे.

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घोड़े की सेवा करता हुआ कोचवान

यह भी पढ़ेंः Special Report: होम क्वॉरेंटाइन में रह रहे मरीजों के लिए पड़ोसी बने मददगार

कोचवान गुफरान का कहना है कि आखिरी बार साल 2014 मे तांगा दौड़ हुई थी. तब दौड़ में पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर आने वाले घोड़े को इनाम के तौर पर क्रमशः 11 हजार, 5100 और 2100 रुपए का पुरस्कार दिया जाता था. इस राशि से घोड़े के खाने-पीने का खर्च निकालना संभव नहीं था. लेकिन शौक और नाम के लिए हम जेब से रुपए खर्च करते थे. उनका कहना है कि वे बचपन से ही तांगा दौड़ के शौकीन रहे और लंबे अरसे तक खुद दौड़ के मैदान में घोड़े की लगाम थामी. पांच साल पहले तांगा दौड़ बंद होने के बाद यह सिलसिला टूट गया है.

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तांगा दौड़ में प्रयोग होने वाला तांगा

यह भी पढ़ेंः SPECIAL: सुल्ताना से खत्म हो रहा है धीरे-धीरे लोहे का रिश्ता, कभी हामड की आवाज से उठता था गांव

कोचवान मोहम्मद जमील अंसारी का कहना है कि उन्होंने करीब 40 साल तक जोश-खरोश के साथ तांगा दौड़ में घोड़ों की लगाम थामी है. इसके लिए बाकायदा वे खास नस्ल के घोड़े रखते और उनके खाने-पीने से लेकर ट्रेनिंग तक का पूरा ध्यान रखते. खासतौर पर उन्हें दूध और घी पिलाया जाता था. लेकिन अब पांच साल से तांगा दौड़ बंद है. ऐसे में उन्होंने दौड़ में काम आने वाले घोड़े पालना बंद कर दिया है. अब वे घोड़ियां रखते हैं, जिन्हें शादी-विवाह में किराए पर देकर अपना और परिवार का गुजारा चलाते हैं.

उनका कहना है कि पहले तांगा दौड़ में अपने घोड़े दौड़ाना उनके परिवार की शान समझी जाती थी. इसलिए जेब से रुपए खर्च करते थे. अब जब दौड़ ही नहीं होती तो क्या करें. इसलिए घोड़ों की जगह घोड़ियां और तांगों की जगह बग्गियां ले आए, जिन्हें शादी-विवाह में काम में लिया जाता है. उनका कहना है कि परिवार की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए वे दौड़ में काम आने वाले घोड़े पालते थे. लेकिन अब दौड़ बंद हो गई तो वैसे घोड़े रखना भी बंद कर दिए. उनका कहना है कि पहले नागौर में कई लोग तांगा दौड़ के लिए खास नस्ल, मजबूत कद-काठी के प्रशिक्षित घोड़े रखते थे. वैसे घोड़े आज नागौर में कोई नहीं रखता है. इसका बड़ा कारण है कि उनकी सार संभाल और प्रशिक्षण में समय भी देना पड़ता था और यह महंगा शौक है. जब तक दौड़ होती थी. परिवार की परंपरा निभाने के लिए घोड़े रखते थे, लेकिन अब घोड़े नहीं रखते हैं.

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बता दें कि नागौर में तेजादशमी के दिन यानि भाद्रपद शुक्ल दशमी को खरनाल गांव में वीर तेजाजी का मेला भरता है. इससे एक दिन पहले मूंदियाड़ गांव में गजानन भगवान का मेला भरता है. पहले दिन तांगा दौड़ मूंदियाड़ गांव से खरनाल आती थी. अगले दिन यह तांगा दौड़ खरनाल से नागौर आती थी. पांच साल पहले हाईकोर्ट के आदेश के बाद इस दौड़ को बंद कर दिया गया है. इस पर रोक हटाने की याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, जिसे लेकर हर साल मूंदियाड़ मेले से पहले सुगबुगाहट होती है. लेकिन इस साल कोरोना काल में जहां धार्मिक स्थानों के कपाट आमजन के लिए बंद हैं और बड़े आयोजनों पर रोक है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई को लेकर भी कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती है.

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