कोटा. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की राजस्थान ब्रांच ने कृषि कानून वापसी का हवाला देते हुए मोदी सरकार से चिकित्सकों के खिलाफ बने तीन कानून वापस लेने की मांग की है. चिकित्सक इस तरह का एक अभियान सोशल मीडिया पर चला रहे हैं.
चिकित्सकों ने केंद्र सरकार से पीसीपीएनडीटी, कंज्यूमर प्रोटक्शन और क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट वापस लेने की मांग की है. आईएमए के स्टेट प्रेसिडेंट डॉ. अशोक शारदा का कहना है कि उनका प्रोफेशन अलग है. वे किसानों की तरह लंबा आंदोलन नहीं चला सकते. लेकिन डॉक्टरी पेशे के खिलाफ 2006 से ही विरोधी कानून बने हैं. जिन्हें वापस नहीं लिया जा रहा है. इसके लिए वे चिकित्सकों में जन जागरण और सोशल मीडिया के जरिए अभियान लगातार चलाए हुए हैं.
आईएमए राजस्थान के उपाध्यक्ष डॉ. मोहन मंत्री का कहना है कि हम चिकित्सकों की तरफ से राय रखना चाहते हैं. लाखों चिकित्सक अनावश्यक कानूनों से परेशान हैं. डॉक्टर सड़क पर नहीं आ सकते हैं, हम हड़ताल नहीं कर सकते. सरकार भी हमारी बातों को समझे. इन कानूनों की वजह से इंस्पेक्टर राज बढ़ रहा है. सरकार से निवेदन है कि हमारी मांगें सुनी जाएं.
PCPNDT ACT: मेडिकल समस्या नहीं सामाजिक मुद्दा
डॉ. शारदा ने कहा कि पीसीपीएनडीटी एक्ट 2006 में हम पर थोपा गया है. कन्या भ्रूण के लिए कोई भी दंपत्ति को डॉक्टर प्रेरित नहीं करता. पुरुष प्रधान मान्यता हमारे समाज की है. उसी के तहत यह लोग जमाने भर के प्रलोभन डॉक्टर से कन्या भ्रूण की जांच करवाने के लिए देते हैं. उसका सारा आरोप चिकित्सक पर थोपा जा रहा है. यह मेडिकल समस्या नहीं, सामाजिक मुद्दा है. इस कानून के तहत हमें कई गैरजरूरी रिकॉर्ड रखने पड़ रहे हैं. डॉक्टर सोनोग्राफी करने से कतरा रहे हैं. मेडिकल साइंस में इसका उपयोग केवल 10 फ़ीसदी ही हो रहा है. ट्रॉमा, चेस्ट, लिंब, हार्ट और नवजात की ब्रेन में भी काफी रोल है, लेकिन हम नहीं कर पाते हैं. मशीन को मेंटेन करना और बिना लाइसेंस की बंदूक को मेंटेन करने से भी ज्यादा घातक है. बिना लाइसेंस की मशीन पर 2 साल, जबकि बिना लाइसेंस की बंदूक पर छह माह की सजा है. इससे आप समझ सकते हैं कि यह कानून कितना घातक है.
कंजूमर प्रोटेक्शन एक्ट: गजट नोटिफिकेशनन दो साल बाद भी नहीं
डॉ अशोक शारदा का कहना है कि कंज्यूमर प्रोटक्शन एक्ट के तहत डॉक्टर और मरीज का रिश्ता भी व्यापारी और ग्राहक जैसा बना दिया है. बीमारी किसी भी डॉक्टर या व्यक्ति द्वारा नहीं बनाई गई है. यह कानून मनुष्य के लिए निर्मित वस्तुओं के लिए होना चाहिए. साल 2008 में लागू किए गए इस कानून को लेकर 2019 की लोकसभा में एक संशोधन आया. जिसमें यह माना कि मेडिकल सर्विसेस को कंजूमर प्रोटेक्शन एक्ट में नहीं माना जाना चाहिए, लेकिन इसका गजट नोटिफिकेशन दो साल बाद भी नहीं आया. डॉक्टर डिफेंसिव मोड पर काम करने लगे हैं. अपनी चमड़ी सुरक्षित करने के लिए कई जांचें जो अनावश्यक होती है, उन्हें भी चिकित्सक करवाने लग गया है. इससे उपचार खर्चा बढ़ गया है. कुछ लोग इस कानून का बेजा फायदा उठा रहे हैं और मनी मेकिंग मशीन के रूप में वह काम करने हैं. गंभीर मरीज को टैकल करने की जगह डॉक्टर कंट्रोवर्सी से बचने के लिए उसे रैफर कर देता है.
क्लिनिकल एस्टेब्लिशमेंट: यूके, यूएस, कॉर्पोरेट अस्पतालों की तर्ज पर बना कानून
डॉ मोहन मंत्री का कहना है कि क्लिनिकल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट का इंप्लीमेंटेशन भारत में अभी संभव नहीं है. हमारे देश में गरीबी है. इकोनामी और एजुकेशन स्टेटस में काफी अंतर हैं. यह कॉरपोरेट हॉस्पिटल, यूके और यूएस को देखकर बनाया गया है. भारत में कॉर्पोरेट अस्पतालों की संख्या 5 से 10 फ़ीसदी ही है. जबकि 70 फीसदी जनता छोटे क्लीनिक और मध्यम अस्पतालों में ही इलाज कराती है. यह कानून उनकी सेवाओं को महंगा करने वाला साबित होगा. डॉ. अशोक शारदा का कहना है कि क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट में 26 अलग-अलग एजेंसियों से एनओसी लेनी होगी. जिनमें फायर, एनडीपीएस, कॉस्मेटिक, एमटीपी, एक्सप्लोसिव, इंश्योरेंस व शॉप एक्ट शामिल है. इस सबकी कानूनी प्रक्रियाओं में लंबा समय गुजर जाएगा और इसका खर्चा मरीज पर ही पड़ेगा.
मरीजों के उपचार का खर्चा बढ़ाने वाले हैं ये कानून
चिकित्सकों का कहना है कि जिस तरह से अपेंडिक्स का ऑपरेशन छोटे अस्पताल में 15 से 20 हजार रुपए के बीच हो जाता है, जबकि कॉर्पोरेट अस्पताल में यही खर्चा डेढ़ से दो लाख में होता है. प्रसव 15 से 20 हजार और सिजेरियन 30 से 40 हजार रुपए में होती है. जबकि कॉर्पोरेट अस्पताल में डिलीवरी का 40 से 50 और सिजेरियन का 60 से 70 हजार रुपए होता है.
इस कानून के तहत रिकॉर्ड मेंटेन करना होगा और सभी लाइसेंस लेने होंगे. यह एक सामान्य अस्पताल के बस की बात नहीं है, कोई अस्पताल इस तरह से लाइसेंस भी लेता है, तो उसको अस्पताल के कार्मिकों की संख्या बढ़ानी पड़ेगी. इसके चलते खर्चा बढ़ जाएगा और यह पूरा खर्चा मरीजों की फीस और इलाज से ही वसूल होगा. हालांकि उन्होंने कहा कि 2014 में बनाए गए इस कानून को सरकार पूरी तरह से लागू नहीं करवा पाई है.