जयपुर. ऐसा शहर जहां सुंदर नगरों, हवेलियों और किलों की भरमार हो. जिसे जीत का नगर कहते हों और हर कोई उस नगर को कदमों से नापना चाहता हो. जहां के परकोटे की गुलाबी बसावट उसे वर्ल्ड हेरिटेज सिटी से नवाजती है और जिसे गुलाबी नगरी के नाम से जाना जाता है. यहां बात हो रही है जयपुर शहर की, जहां आज भी हिंदी जिंदा है. यहां के बाशिंदे आज भी हिंदी भाषा को सहेजे हुए हैं.
गुलाबीनगरी की सिर्फ 'बैठो सा', 'आओ सा' जैसी बातें ही सुहावनी नहीं लगती बल्कि वहां के बाजारों, गलियों और रास्तों का हिंदी से अटूट प्रेम हर किसी को उसका मुरीद कर देगा. दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर कर देंगा. जयपुर यानी पुराना शहर परकोटा, जहां आज भी गुलाबी पत्थर पर बाज़ारों, गलियों और रास्तों के नाम सिर्फ और सिर्फ हिंदी में उकेरे हुए है. यहां तक की परकोटे में 50 हजार से अधिक दूकानों के नाम भी सिर्फ हिंदी में नाम लिखे है. जहां आज भी सालों से एकरूपता बरकरार है.
राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित देवर्षि कलानाथ शास्त्री ने ईटीवी भारत से खास बातचीत में बताया कि विश्वविख्यात गुलाबी नगरी का हेरिटेज के साथ हिंदी से भी विशेष रिश्ता रहा है जिसे वह आज भी निभा रहा है. इसकी चहारदीवारी के बाजारों, रास्तों और गलियों के नाम आज भी हिंदी में ही उकेरे हुए हैं और यही इस शहर की विशेष पहचान भी है.
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इसके साथ ही परकोटे के पुराने बाजारों और कॉलोनियों के नाम भी हिंदी में लिखे हुए हैं. जयपुर रियासत के समय से ही बाजारों और कपाटों के नाम देवनागरी लिपि में ही लिखे हुए हैं. सन 1942 में सर मिर्जा इस्माइल यहां दीवान बनकर आए थे. उन्होंने जयपुर के बाजारों और वहां स्थित दुकानों को एक रूप में रंगवा दिया. उस रंग के साथ दुकानों के नाम जो लिखे गए थे वह सफेद पट्टी पर देवनागरी में लिखे गए, जो आज भी परकोटे में यथावत है.
हांलाकि बीच में जब अव्यवस्था होने लगी और दुकानों के नाम रोमन में लिखे जाने लगे थे. जबकि यहां के नाम, जातियां ये सब हिंदी में ही सही लिखी जाएगी. अंग्रजी में लिखने से तो समस्या उतपन्न हो जाएगी. खास बात यह है कि जिन दुकानों के नाम देवनागरी लिपि में उकेरे गए हैं वो सभी एक साइज, एक समान रूप से लिखे हुए हैं. लेकिन आज हिंदी दिवस मनाए जाने के बावजूद अंग्रेजी हम सब पर हावी हो रही है. ऐसे में हिंदी दिवस पर विचार करने का दिन है.
जयपुर और हिंदी का जुड़ाव बराबर रहा है. यहां के राजा अंग्रेजी के बहुत बड़े विद्वान हुआ करते थे किंतु वे हिंदी के हमेशा समर्थक रहे. जब स्वतंत्रता आंदोलन चल रहा था उस समय हिंदी के पक्ष में अनेक कार्य हुए. इसमें इतिहास का अद्भुत काम सितंबर सन 1942 में हिंदी साहित्य सम्मेलन हुआ. इसमें उस समय के सारे बड़े-बड़े विद्वानों ने हिस्सा लिया.
सन 1942 के हिंदी साहित्य सम्मेलन से हिंदी का प्रचार तेजी से हुआ. हिंदी की अनेक पाठशालाएं खुलीं. उस समय हिंदी अनिवार्य विषय नहीं बल्कि ऐच्छिक विषय हुआ करता था. लेकिन हिंदी का प्रसार हो इसके लिए बराबर जयपुर में आंदोलन होते रहे. ऐसे में जयपुर हिंदी विद्वानों के लिए प्रसिद्ध होने के साथ देवनागरी की गतिविधियों को लेकर भी विख्यात है. उन्होंने कहा कि अफसोस है कि नई पीढ़ी इससे महरूम हो रही है. वे अंग्रेजी की इस भूलभुलैया में खो रहे हैं. ऐसे में हिंदी दिवस पर फिर से याद करने की आवश्यकता है कि हमारे नाम, पते और विज्ञापन आदि हिंदी में ही हों क्योंकि गांव के लोग आज भी हिंदी ही समझते हैं.
आज भले ही सरकारी कामकाज और कार्यालयों में हिंदी की जगह अंग्रेजी भाषा ने ले ली हो लेकिन जयपुर का परकोटा आज भी देवनागरी लिपि को संजोए हुए है. चहारदीवारी की जितनी भी दुकानें, गली-मोहल्ले और बाजार हैं उनमें हिन्दी में सबकुछ लिखा हुआ है. ऐसे में अपनी पहचान बनाए रखने के लिए देवनागरी का प्रचार-प्रसार बहुत आवश्यक है. हिंदी दिवस पर सभी को एकजुट होकर देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार का संकल्प लेना चाहिए.