जयपुर. राजस्थान के मौजूदा हालात में गौर किया जाए तो सत्ताधारी कांग्रेस के 200 में से 108 विधायक हैं यानि पार्टी को पूर्ण बहुमत विधानसभा में मिला हुआ है. इसके अलावा 13 निर्दलीय , 2 माकपा, 2 बीटीपी और 1 विधायक आरएलडी का भी कांग्रेस के खेमे में बैठा हुआ है. इस तरह से कहा जाता सकता है कि अशोक गहलोत सरकार 126 विधायकों के साथ फिलहाल काफी मजबूत स्थिति में है. जबकि विपक्ष के खेमे में 71 भाजपा विधायकों के साथ हनुमान बेनीवाल की पार्टी के तीन विधायक मौजूद हैं. मतलब गहलोत सुरक्षित कहे जा सकते हैं. लेकिन, फिर भी क्या कारण है कि विपक्ष हमेशा गहलोत सरकार को अस्थिर बताता है और गहलोत खुद कई मर्तबा अपनी सरकार को खतरे में बता चुके हैं. क्या इसके मायने यह हैं कि एक बार फिर 2020 वाली घटना का अंदेशा गहलोत को खाये जा रहा है.
पार्टी के प्रदेश प्रभारी अजय माकन ने दूसरे मंत्रिमंडल विस्तार (Ajay Maken on Cabinet Expansion in Rajasthan) के समय कहा था कि एक बार और फेरबदल होगा. इसके बाद राजनीतिक नियुक्तियां भी बंपर निकाली गई थी. इतना सब होने के बावजूद सरकार अगर सुरक्षित नहीं है, तो इसके मायने जाहिर तौर पर सत्ताधारी दल के बीच गहराए असंतोष से निकाले जाने चाहिए. इस सिलसिले में नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया (Gulabchand Kataria on Gehlot Government) का उदयपुर में दिया गया ताजा बयान भी काफी मायने रखता है. जिसमें उन्होंने कहा था कि गहलोत कुंठा के शिकार हैं और हाईकमान के प्रेशर में सत्ताधारी दल का हर विधायक उनका काकाजी बना हुआ है.
मंत्रिमंडल विस्तार और राजनीतिक नियुक्तियों का उड़ा रंग: आम तौर पर मंत्रिमंडल विस्तार के मायने किसी भी राज्य में सरकार की स्थिरता के तौर पर देखा जा सकता है. लेकिन राजस्थान में इस कवायद के बाद बगावत की बू आने लगी थी. नतीजन कांग्रेस आलाकमान ने मैराथन बैठकों के दौर के बाद संगठन की संतुष्टि के लिए बोर्ड, निगम और आयोगों में बड़े पैमाने पर नियुक्तियां की. लेकिन इसका भी असर नहीं हुआ. आम कांग्रेसी कार्यकर्ता की नाखुशी जाहिर होने लगी. आरोप लगा कि मलाई सिर्फ उनके खाते में आई है, जिन्हें सत्ता के गलियारों में रहने की आदत है न की वो लोग पद पा सकें हैं जो पार्टी के लिए कार्यकर्ता की भूमिका अदा करते आए हैं.
गौरतलब है कि राजनीतिक नियुक्तियों में मौजूदा विधायकों के साथ ही विधायकी का चुनाव हार चुके नेताओं और पूर्व मंत्रियों को तवज्जो दी गई. इस दौरान प्रदेश में चंद नेताओं के खास और वफादार लोगों को मौका मिला. मतलब कांग्रेस कार्यकर्ता खाली हाथ रहा. 50 विधायकों को नियुक्तियों से नवाजा गया और 3 एमएलए पहले से मंत्री पद पा चुके हैं. ब्यूरोक्रेट्स पर भी सरकार मेहरबान रही, ऐसे में जाहिर है कि कार्यकर्ता को जगह नहीं मिली तो उसकी नाराजगी भी लाजमी थी.
कांग्रेस में ही कार्यकर्ता की दिलचस्पी कम: कहने के लिए कांग्रेस कार्यकर्ता अपना तमगा लेकर घूम रहे हैं, लेकिन जिस तरह से बीते दिनों महंगाई के खिलाफ कांग्रेस ने एक मुहिम छेड़ी उस अभियान में जमीनी कार्यकर्ता के नामों-निशान नहीं थे. इसी तरह से पार्टी के बैनर पर होने वाले जलसों में भी कार्यकर्ता की नाराजगी कम संख्या के रूप में देखी गई. इस बात की एक और बानगी पार्टी का सदस्यता अभियान रहा, जिसे बार-बार रिव्यू करने के बावजूद उम्मीद से आधे नतीजे देखने को नहीं मिल पाए.
हर मोर्चे पर सत्ता का खामियाजा संगठन को उठाना पड़ रहा है. विवादों से रुखसत होकर पार्टी की कमान संभाल रहे गोविंद सिंह डोटासरा के लिए भी हालात बेहतर नहीं कहे जा सकते हैं. फिलहाल, कांग्रेस रणनीतिकार के रूप में प्रशांत किशोर को संजीवनी तलाशने की जिम्मेदारी सौंप रही है, लेकिन रिव्यू यही कहता है कि जब तक जमीनी कार्यकर्ता को सियासी गलियारों में तवज्जो नहीं मिल पाएगी, तब तक आलाकमान से मुलाकातों का दौर और तैयार रणनीति का मसौदा अमलीजामे से कोसों दूर ही नजर आएगा.