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राजस्थान में इस बार रिवाज बदलेगा या राज ?, 30 साल से कोई दल नहीं कर पाया सरकार रिपीट

Rajasthan Assembly Election 2023, क्या राजस्थान का वो रिवाज इस बार बदलेगा, जो पिछले 3 दशक से संभव नहीं हो सका है ? क्या कांग्रेस की सरकार रिपीट होगी या एक बार फिर से राज बदलेगा ? खैर, जनता ने अपना काम कर दिया है. ऐसे में अब आगामी 3 दिसंबर को ही पता चल पाएगा कि आखिरकार जनता ने राजस्थान का किंग किसे बनाया है. हिमाचल प्रदेश के स्टेट हेड प्रदीप रावत की खास रिपोर्ट

Rajasthan Assembly Election 2023
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Nov 25, 2023, 10:06 PM IST

जयपुर. क्षेत्रफल के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य में एक और सियासी समर समाप्ति की ओर है. शनिवार को मतदान के बाद अब इंतजार नतीजों का है. रविवार 3 दिसंबर को राजस्थान के साथ-साथ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के भी नतीजे आएंगे, लेकिन सियासी गलियारों से लेकर जनता के बीच राजस्थान के नतीजों की सबसे ज्यादा उत्सुकता है. इसकी वजह है राजस्थान का वो रिवाज जो पिछले 3 दशक से नहीं बदला है.

30 साल से रिपीट नहीं हुई है सरकार : मतदान से पहले चुनावी शोर में बीजेपी से लेकर कांग्रेस ने भले जीत के बड़े-बड़े दावे किए हों, लेकिन सत्ताधारी कांग्रेस को राजस्थान का रिवाज डरा रहा है तो मौजूदा स्थिति में विपक्षी दल बीजेपी को उस जनता के मिजाज का खौफ है, जो रिवाज और राज दोनों तय करती है. वैसे राजस्थान में साल 1993 के बाद से कोई भी सियासी दल सरकार रिपीट नहीं कर पाया है. पिछले 30 साल से हर 5 साल बाद सत्ता की चाबी कांग्रेस और बीजेपी के हाथ आती-जाती रही है.

Rajasthan Assembly Election 2023
रिवाज बदलेगा या राज ?

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लगातार दो बार मुख्यमंत्री बने भैरोंसिंह शेखावत : साल 1990 के विधानसभा चुनाव में राजस्थान में पहली बार कमल खिला था. इस चुनाव में पार्टी को 85 सीटों पर जीत मिली थी और भैरोंसिंह शेखावत राज्य में बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री बने थे. उसके बाद 1993 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और मजबूती से उभरी और उसे 95 सीटों पर जीत मिली. ऐसे में भैरोंसिंह शेखावत लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. हालांकि, इसके बाद राजस्थान में ऐसा रिवाज बना कि किसी भी पार्टी की सरकार रिपीट नहीं हो सकी.

अशोक गहलोत vs वसुंधरा राजे : पिछले करीब 3 दशक में राजस्थान की एक पूरी पीढ़ी ने मुख्यमंत्री के ओहदे पर सिर्फ दो चेहरे को देखा है. 1998 विधानसभा चुनाव में बीजेपी सिर्फ 33 सीटों पर सिमट गई थी और कांग्रेस ने 133 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की और अशोक गहलोत पहली बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने. 2003 में कुछ ऐसी ही वापसी बीजेपी ने 120 सीटों के साथ की और राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में वसुंधरा राजे का उदय हुआ. इसके बाद हर 5 साल में ये सत्ता का ताज बीजेपी और कांग्रेस के सिर सजता रहा. 2008 और 2018 में गहलोत फिर से मुख्यमंत्री बने, जबकि 2013 में वसुंधरा राजे ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी.

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इस बार रिवाज बदलेगा या राज : वैसे तो इस सवाल का जवाब 3 दिसंबर के गर्भ में छिपा है, लेकिन वरिष्ठ पत्रकार मनीष गोधा के मुताबिक पिछले साल के मुकाबले मतदान में हुई बढ़ोतरी बीजेपी के लिए फायदेमंद हो सकती है. मनीष मानते हैं कि इस बार मुकाबला बहुत कड़ा है. साल 2018 में एक फीसदी से भी कम के अंतर से सरकार बदल गई थी, लेकिन इस बार ये अंतर उससे भी कम हो सकता है.

उधर, वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी मानते हैं कि बढ़े हुए मतदान का फायदा कांग्रेस को मिलेगा. प्रदेश में महिलाएं और युवा साइलेंट वोटर की भूमिका में है, जिन्हें साधने की कोशिश तो हर दल ने की है, लेकिन वो जिसके साथ जाएंगे उसकी जीत पक्की है. खासकर 22 लाख नए मतदाताओं का वोट बहुत मायने रखेगा. ओम सैनी के मुताबिक इस बार राजस्थान की जनता रिवाज बदल देगी और कांग्रेस सत्ता में रिपीट होगी. इसमें सबसे बड़ी भूमिका गहलोत सरकार की वो योजनाएं हैं जो लोगों को सामाजिक और स्वास्थ्य की गारंटी के साथ युवाओं को जॉब की गारंटी दे रही है.

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बीजेपी और कांग्रेस की अपनी-अपनी परेशानियां : बीजेपी और कांग्रेस के चुनाव जीतने को लेकर भले अपने-अपने दावे हों, लेकिन सियासी पंडित इस बार के चुनावी नतीजों के अप्रत्याशित होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं. ओम सैनी के मुताबिक हवा-हवाई दावे करने वाली बीजेपी के सामने गहलोत की धरातल पर लाई गई योजनाएं हैं, जिसका फायदा सीधे-सीधे कांग्रेस को मिलेगा.

OPS और जातिगत जनगणना पर चुप्पी भाजपा को पड़ सकती है भारी : मनीष गोधा के मुताबिक चुनाव प्रचार में दोनों पार्टियों ने भले राजस्थान पर राज करने की बात कही हो, लेकिन बीजेपी और कांग्रेस दोनों की अपनी-अपनी परेशानियां हैं. कांग्रेस के लिए अंदरूनी कलह, खासकर पायलट और गहलोत की तकरार, लाल डायरी जैसे मुद्दे भारी पड़ सकते हैं. वहीं, पेपर लीक प्रकरण के कारण युवाओं की नाराजगी का असर भी नतीजों पर दिख सकता है. उधर, विपक्षी दल बीजेपी को 5 साल का हिसाब-किताब तो नहीं देना, लेकिन ओपीएस और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों पर पार्टी की चुप्पी उसके लिए परेशानी का सबब बन सकती है. ओम सैनी भी मानते हैं कि अग्निवीर जैसी योजनाओं का नुकसान भी बीजेपी को झेलना पड़ सकता है.

कुल मिलाकर रिवाज बदलेगा या राज के सवाल का जवाब भले कांग्रेस और बीजेपी अपने जीत के दावे के साथ दें, लेकिन सियासी पंडितों के मुताबिक इस बार के सियासी समर और बीते 30 सालों के इतिहास को देखते हुए इस बार के नतीजे हर किसी को चौंकाने वाले हो सकते हैं.

जयपुर. क्षेत्रफल के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य में एक और सियासी समर समाप्ति की ओर है. शनिवार को मतदान के बाद अब इंतजार नतीजों का है. रविवार 3 दिसंबर को राजस्थान के साथ-साथ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के भी नतीजे आएंगे, लेकिन सियासी गलियारों से लेकर जनता के बीच राजस्थान के नतीजों की सबसे ज्यादा उत्सुकता है. इसकी वजह है राजस्थान का वो रिवाज जो पिछले 3 दशक से नहीं बदला है.

30 साल से रिपीट नहीं हुई है सरकार : मतदान से पहले चुनावी शोर में बीजेपी से लेकर कांग्रेस ने भले जीत के बड़े-बड़े दावे किए हों, लेकिन सत्ताधारी कांग्रेस को राजस्थान का रिवाज डरा रहा है तो मौजूदा स्थिति में विपक्षी दल बीजेपी को उस जनता के मिजाज का खौफ है, जो रिवाज और राज दोनों तय करती है. वैसे राजस्थान में साल 1993 के बाद से कोई भी सियासी दल सरकार रिपीट नहीं कर पाया है. पिछले 30 साल से हर 5 साल बाद सत्ता की चाबी कांग्रेस और बीजेपी के हाथ आती-जाती रही है.

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रिवाज बदलेगा या राज ?

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लगातार दो बार मुख्यमंत्री बने भैरोंसिंह शेखावत : साल 1990 के विधानसभा चुनाव में राजस्थान में पहली बार कमल खिला था. इस चुनाव में पार्टी को 85 सीटों पर जीत मिली थी और भैरोंसिंह शेखावत राज्य में बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री बने थे. उसके बाद 1993 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और मजबूती से उभरी और उसे 95 सीटों पर जीत मिली. ऐसे में भैरोंसिंह शेखावत लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. हालांकि, इसके बाद राजस्थान में ऐसा रिवाज बना कि किसी भी पार्टी की सरकार रिपीट नहीं हो सकी.

अशोक गहलोत vs वसुंधरा राजे : पिछले करीब 3 दशक में राजस्थान की एक पूरी पीढ़ी ने मुख्यमंत्री के ओहदे पर सिर्फ दो चेहरे को देखा है. 1998 विधानसभा चुनाव में बीजेपी सिर्फ 33 सीटों पर सिमट गई थी और कांग्रेस ने 133 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की और अशोक गहलोत पहली बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने. 2003 में कुछ ऐसी ही वापसी बीजेपी ने 120 सीटों के साथ की और राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में वसुंधरा राजे का उदय हुआ. इसके बाद हर 5 साल में ये सत्ता का ताज बीजेपी और कांग्रेस के सिर सजता रहा. 2008 और 2018 में गहलोत फिर से मुख्यमंत्री बने, जबकि 2013 में वसुंधरा राजे ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी.

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इस बार रिवाज बदलेगा या राज : वैसे तो इस सवाल का जवाब 3 दिसंबर के गर्भ में छिपा है, लेकिन वरिष्ठ पत्रकार मनीष गोधा के मुताबिक पिछले साल के मुकाबले मतदान में हुई बढ़ोतरी बीजेपी के लिए फायदेमंद हो सकती है. मनीष मानते हैं कि इस बार मुकाबला बहुत कड़ा है. साल 2018 में एक फीसदी से भी कम के अंतर से सरकार बदल गई थी, लेकिन इस बार ये अंतर उससे भी कम हो सकता है.

उधर, वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी मानते हैं कि बढ़े हुए मतदान का फायदा कांग्रेस को मिलेगा. प्रदेश में महिलाएं और युवा साइलेंट वोटर की भूमिका में है, जिन्हें साधने की कोशिश तो हर दल ने की है, लेकिन वो जिसके साथ जाएंगे उसकी जीत पक्की है. खासकर 22 लाख नए मतदाताओं का वोट बहुत मायने रखेगा. ओम सैनी के मुताबिक इस बार राजस्थान की जनता रिवाज बदल देगी और कांग्रेस सत्ता में रिपीट होगी. इसमें सबसे बड़ी भूमिका गहलोत सरकार की वो योजनाएं हैं जो लोगों को सामाजिक और स्वास्थ्य की गारंटी के साथ युवाओं को जॉब की गारंटी दे रही है.

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बीजेपी और कांग्रेस की अपनी-अपनी परेशानियां : बीजेपी और कांग्रेस के चुनाव जीतने को लेकर भले अपने-अपने दावे हों, लेकिन सियासी पंडित इस बार के चुनावी नतीजों के अप्रत्याशित होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं. ओम सैनी के मुताबिक हवा-हवाई दावे करने वाली बीजेपी के सामने गहलोत की धरातल पर लाई गई योजनाएं हैं, जिसका फायदा सीधे-सीधे कांग्रेस को मिलेगा.

OPS और जातिगत जनगणना पर चुप्पी भाजपा को पड़ सकती है भारी : मनीष गोधा के मुताबिक चुनाव प्रचार में दोनों पार्टियों ने भले राजस्थान पर राज करने की बात कही हो, लेकिन बीजेपी और कांग्रेस दोनों की अपनी-अपनी परेशानियां हैं. कांग्रेस के लिए अंदरूनी कलह, खासकर पायलट और गहलोत की तकरार, लाल डायरी जैसे मुद्दे भारी पड़ सकते हैं. वहीं, पेपर लीक प्रकरण के कारण युवाओं की नाराजगी का असर भी नतीजों पर दिख सकता है. उधर, विपक्षी दल बीजेपी को 5 साल का हिसाब-किताब तो नहीं देना, लेकिन ओपीएस और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों पर पार्टी की चुप्पी उसके लिए परेशानी का सबब बन सकती है. ओम सैनी भी मानते हैं कि अग्निवीर जैसी योजनाओं का नुकसान भी बीजेपी को झेलना पड़ सकता है.

कुल मिलाकर रिवाज बदलेगा या राज के सवाल का जवाब भले कांग्रेस और बीजेपी अपने जीत के दावे के साथ दें, लेकिन सियासी पंडितों के मुताबिक इस बार के सियासी समर और बीते 30 सालों के इतिहास को देखते हुए इस बार के नतीजे हर किसी को चौंकाने वाले हो सकते हैं.

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