हैदराबाद: भारत ने टोक्यो ओलंपिक में भारोत्तोलक मीराबाई चानू के रजत पदक से शानदार शुरूआत की, जिसके बाद बीच में कुछ कांस्य पदक मिलते रहे. लेकिन देश के अभियान का अंत नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक से धूमधड़ाके के साथ हुआ. ट्रैक एवं फील्ड स्पर्धा में भारत को पहला पदक मिला, जो 13 साल बाद पहला स्वर्ण पदक भी था.
इसके अलावा हॉकी में 41 साल से चला आ रहा पदक का इंतजार भी खत्म हुआ, भारोत्तोलन में पहला रजत पदक और नौ साल बाद मुक्केबाजी में पहला पदक भारत की झोली में आया. जबकि बैडमिंटन स्टार पीवी सिंधू दो ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली महिला खिलाड़ी बनीं. ज्यादातर पदार्पण कर रहे खिलाड़ियों ने पोडियम स्थान हासिल किये और एक ओलंपिक में सबसे ज्यादा पदक भी मिले और देश के लिए इतना सब कुछ एक ही ओलंपिक के दौरान हुआ.
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यह सब भी उस ओलंपिक में हुआ, जिन्हें उद्घाटन समारोह से पहले कोविड- 19 महामारी के कारण मुश्किलों से भरा खेल माना जा रहा था. इस महामारी के कारण लगे लॉकडाउन के चलते ही इन्हें एक साल के लिए स्थगित किया गया. जबकि ज्यादातर ट्रेनिंग और टूर्नामेंट का कार्यक्रम बिगड़ गया था. ओलंपिक खेलों में प्रतिस्पर्धाओं के पहले दिन ही मीराबाई ने देश का पदक तालिका में खाता खोल दिया, जो पहले कभी नहीं हुआ था.
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मणिपुर की यह भारोत्तोलक चार फीट 11 इंच की हैं. लेकिन उसने 202 किग्रा (87 + 115) का वजन उठाकर रजत पदक हासिल किया और दुनिया को दिखा कि क्यों आकार मायने नहीं रखता और इसे मायने नहीं रखना चाहिए. वह अपने प्रदर्शन के दौरान आत्मविश्वास से भरी हुई थीं, जबकि पांच साल पहले वह आंसू लिए निराशा में इस मंच से विदा हुई थी, जिसमें वह एक भी वैध वजन नहीं उठा सकी थीं. 24 जुलाई को वह भारोत्तोलन में पहली रजत पदक विजेता बनकर मुस्कुरा रही थीं.
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देश को इसी तरह की शुरूआत की जरूरत थी, लेकिन इसके बाद पदकों की शांति छा गई. कुछ प्रबल दावेदार प्रभाव डाले बिना ही बाहर हो गए, जिसमें सबसे बड़ी निराशा 15 सदस्यीय मजबूत निशानेबाजी दल से मिली. सिर्फ सौरभ चौधरी ही फाइनल्स में जगह बना सके और वह भी पोडियम तक नहीं पहुंच सके, जिससे उनकी तैयारियों पर काफी सवाल उठाए गए. किसी के पास भी स्पष्ट जवाब नहीं था कि क्या गलत हुआ. पर इसके बाद गुटबाजी, अहं के टकराव और मतभेदों की बातें सामने आने लगीं.
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ऐसा लग रहा था कि भारतीय अभियान इससे उबर नहीं सकेगा. लेकिन सिंधू ने कांस्य पदक जीतकर चीजों को पटरी पर ला दिया. हैदराबादी बैडमिंटन खिलाड़ी 2016 ओलंपिक में अपने रजत का रंग बेहतर करना चाहती थीं. लेकिन वह ऐसा तो नहीं कर सकीं, पर दो ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली महिला खिलाड़ी बन गईं. इसके बाद दोनों (पुरूष और महिला) हॉकी टीमों ने शुरूआती झटकों के बावजूद टक्कर देने का जज्बा दिखाया. महिला खिलाड़ियों ने भारतीय दल के अभियान की जिम्मेदारी संभालना जारी रखा, जिसमें मुक्केबाजी रिंग में असम की 23 साल की लवलीना बोरगोहेन (69 किग्रा) ने चार अगस्त को कांस्य पदक हासिल किया.
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अगले ही दिन रवि कुमार दहिया ओलंपिक में रजत हासिल करने वाले दूसरे भारतीय पहलवान बने. वह ओलंपिक में पदार्पण पर ऐसा करने वाले पहले खिलाड़ी बने. इससे कुछ ही घंटों पहले कांसे से पुरुष हॉकी टीम का पदक का लंबे समय से चला आ रहा इंतजार खत्म हुआ. मनप्रीत सिंह और उनकी टीम ने जर्मनी के खिलाफ प्ले-ऑफ में वापसी करते हुए ऐसी पीढ़ी के लिए देश में हॉकी के फिर से फूलने फलने के बीज बो दिए, जिसने सिर्फ आठ स्वर्ण पदक जीतने की दास्तानें सुनी थीं और खेल की दर्दनाक गिरावट को देख रही थी. इसे देखकर आंखों में आंसू थे, खुशी थी और सबसे बड़ी चीज गर्व था. क्योंकि हॉकी भारत का खेल था, लेकिन इसके गिरते स्तर ने क्रिकेट इसकी जगह लेता चला गया.
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अभियान शानदार समापन की ओर बढ़ रहा था, जिसमें नीरज चोपड़ा के भाला फेंक के स्वर्ण पदक ने चार चांद लगा दिए, जिससे भारत ने 13 साल बाद स्वर्ण और एथलेटिक्स में पहला पदक हासिल किया. स्वर्ण पदक के दावेदार माने जा रहे बजरंग पूनिया मायूसी के बाद कुश्ती मैट पर कांस्य पदक जीतने में सफल रहे. फिर चौथे स्थान के फेर ने भी कुछ खिलाड़ियों की उम्मीद तोड़ी, जिसमें गोल्फर अदिति अशोक शामिल रहीं. भारतीय महिला हॉकी टीम भी पोडियम पर स्थान से करीब से चूक गईं. इसलिए भारत का ओलंपिक में प्रदर्शन इन सात पदकों से ज्यादा महत्वपूर्ण रहा. इसमें आत्मविश्वास की चमक थी, जो चोपड़ा के प्रदर्शन में दिखी.