नई दिल्ली : नई शिक्षा नीति (एनईपी)2020 एक प्रभावशाली और महत्वाकांक्षी दस्तावेज है, जो हर तरफ से चमक-दमक के साथ आशावादी भविष्य को भी सामने लाता है. मैंने समिति के कुछ सदस्यों से मिलकर योजनाओं के बारे में चर्चा की तो दस्तावेज़ के भविष्य की ओर झुकाव वाली प्रकृति से कोई आश्चर्य नहीं हुआ.
ऐसा लगता है कि यह स्वाभाविक और अपेक्षित है. जिन लोगों के साथ मुझे विचार-विमर्श करने का अवसर मिला, उनमें जानेमाने वैज्ञानिक डॉ. कस्तूरीरंगन और व्यापार प्रबंधन की पृष्ठभूमि वाले विद्वान एम.के. श्रीधर माकाम हैं. माकाम अभी बेंगलुरु में उच्च शिक्षा अनुसंधान और नीति केंद्र के प्रमुख हैं. लेकिन संभवत: समिति में अभिनव विचार के सबसे अनोखे प्रतिनिधि प्रिंसटन गणित के प्रोफेसर और फील्ड्स मेडल के विजेता मंजुल भार्गव थे, जो अपने अधिकतर गणितीय कौशल का श्रेय भारतीय शास्त्रीय संगीत को देते हैं.
भारत जैसे देश को भविष्य की ओर खींचना भी एक उल्लेखनीय महत्वाकांक्षी उपक्रम है. इसलिए इसकी सफलता संसाधनों के पर्याप्त आवंटन और बहुत सारे लोगों के सहयोग पर निर्भर करेगी. अकसर जैसा कि दोहराया जाता है- कोई नीति केवल उसके कार्यान्वयन से ही अच्छी होती है. जब उच्च शिक्षा की बात आती है तो कई ध्यान आकर्षित करने वाली विशेषताएं सामने आती हैं.
समीक्षकों ने सबसे पहले तो दस्तावेज में पाठ्यक्रमों के सख्ती से अलग किए जाने की तीखी आलोचना की है. हम लोगों में से बहुत सारे लोगों ने जिन्होंने देश के सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई की है और जो लोग आज भी कर रहे हैं, उनके लिए निस्संदेह एक पहले से तय बक्से के सांचे में पढ़ाई के विषय शास्वत तरह से चला आ रहा है. पहले से ही सांचा बना हुआ है -आर्ट्स, साइंस और कॉमर्स. हाई स्कूल के समय से ही ये है. यह वास्तव में ये आपके जीवन, करियर के चरित्र को आकार देने के लिए एक खतरा है.
स्पष्ट रूप से यह ऑक्सब्रिज मॉडल नहीं ब्रिटिश औपनिवेशिक विश्वविद्यालय लंदन विश्वविद्यालय की परीक्षा संचालित पाठ्यक्रम की विरासत है - जो दक्षिण एशिया या उत्तरी अफ्रीका के भूरे पुरुषों को सक्षम क्लर्कों में बदलने की बात कहता है. ये एक ऐसी प्रणाली है जो आज तक नहीं बदली है. इस बीच दुनिया आगे बढ़ गई है - ज्ञान की 21 वीं सदी की पीढ़ी के लिए स्टैनफोर्ड की अपनी प्रयोगशालाओं और विभागों में गणित, संगीत और साहित्य का शानदार मिश्रण सिलिकॉन वैली की नवीन संस्कृति को सक्रिय करता है.
इस दस्तावेज़ में अंत: विषयता पर ध्यान केंद्रित किया गया है - जिसे मैं दूसरी जगह विरोधाभासीपन कहता हूं, इसमें अलग तरह के सहयोग की प्रकृति की संभावना शामिल है. अंतत: हमारे पास 21 वीं सदी की नवीन ज्ञान अर्थव्यवस्था के लिए भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली के जरिए जगाने का वादा है.
अनुसंधान और शिक्षण को एकजुट करने वाले बहु-विषयक विश्वविद्यालयों का अनुष्ठान समिति के इस विचार के एक प्राकृतिक परिणाम के रूप में आता है. न केवल विषयों की सख्ती से अलग करना व अध्यापन और अनुसंधान के कट्टर ध्रुवीकरण भी 19 वीं सदी से औपनिवेशिक मॉडल भी संरचनात्मक विरासत थी. अनुसंधान संस्थानों में शोध किया गया था. चाहे ये एशियाटिक सोसाइटी या विशेष वैज्ञानिक खोज के केंद्र थे और पढ़ाने के काम को कॉलेजों के लिए छोड़ दिया गया था.
अलेक्जेंडर वॉन हम्बोल्ट द्वारा डिज़ाइन किए गए जर्मन मॉडल में एक ही स्थान पर अनुसंधान और शिक्षण दोनों को मिलाता है. इसी मॉडल ने 20वीं शताब्दी में उच्च-शक्ति वाले अमेरिकी विश्वविद्यालयों को प्रेरित किया था. कुछ अपवादों को छोड़कर, यह हमारे विश्वविद्यालयों से लगभग गायब है. एनईपी 2020 खुद को इस आवश्यकता के प्रति संवेदनशील दिखाता है.
इसके साथ ही यह अनुसंधान और शिक्षण के लंबे समय से लंबित पढ़ाई के विषयों के विभाजन की सीमा को तोड़कर एकीकरण पर जोर देता है. दस्तावेज उदाहरण के तौर पर मानविकी और एसटीईएम विषयों के बीच सहयोग की बात करता है.
भारत को पेशेवर दिमाग में एक ही स्थान पर अंतः विषय अनुसंधान और शिक्षण को एकजुट करने वाली सोच को बैठाने में काफी समय लगेगा. इसके लिए उच्चतम स्तर पर अनुसंधान को पूरी तरह से दुरुस्त करने की आवश्यकता है, जो भविष्य के संकाय को प्रशिक्षित करेगा. प्रस्तावित राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन यदि अपने वादे के अनुसार काम करने लगता है तो वह हर हाल में इस महत्वपूर्ण आवश्यकता को पूरा करेगा.
इस महत्वाकांक्षा को ध्यान में रखते हुए स्वाभाविक रूप से यह अपेक्षा की जाती है कि अनुसंधान और संकाय विकास में बहुत अधिक निवेश की मांग की जाए. एनईपी इस मुद्दे पर निराश नहीं करता है. दस्तावेज़ में इसका बहुत स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है. इस देश में अनुसंधान प्रशिक्षण की खराब संस्कृति को देखते हुए - आंद्रे बेटिले ने एक बार हमारी डॉक्टरेट संस्कृति को प्रशिक्षित अक्षमता का उत्पादन कहा था- यह एक दुखदायी जरूरत है. ये कुछ ऐसी स्थिति है जिसे रातोंरात नहीं बदला जा सकता है. यह प्रशासनिक बदलाव का नहीं बल्कि एक संस्कृति को नया रूप देने का मामला है. इसलिए इस बारे में सफलता की भविष्यवाणी की अपेक्षा करना बहुत कठिन है.
प्रस्तावित नई उच्च शिक्षा के परिदृश्य की सबसे बड़ी खासियत यह है कि पढ़ाई छोड़ने के कई विकल्पों के साथ स्नातक डिग्री कार्यक्रमों के लिए लचीलेपन की पेशकश की गई है. मैंने हमेशा महसूस किया है कि एक अच्छी तरह से स्नातक की शिक्षा जो सीमा के साथ गहराई को जोड़ती है, वह चार साल की होनी चाहिए जो अब नए दस्तावेज़ के साथ वास्तविकता हो गई है. चार वर्षों में से प्रत्येक में पढ़ाई छोड़ने का विकल्प - डिप्लोमा, उन्नत डिप्लोमा और तीन और चार वर्ष बी.ए. डिग्री वास्तव में ध्यान आकृष्ट करने वाला है, मैं कहता हूं कि कुछ हद तक जोखिम भरा है. कोई इस चिंता में मदद नहीं कर सकता.
नई नीति प्रमुख अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों (मानकीकृत रैंकिंग प्रणालियों में शीर्ष 100 के भीतर) को भारत में परिसर स्थापित करने की अनुमति देती है. यह एक बड़ा कदम है. निश्चित रूप से भारतीय उच्च शिक्षा का उदारीकरण है. इसके परिणाम या तो सकारात्मक या नकारात्मक होंगे. अभी इसकी भविष्यवाणी करना बहुत दूर की बात है. उच्च शिक्षा के घरेलू परिदृश्य के लिए इसका जो भी अर्थ है, यह स्पष्ट है कि पश्चिमी देश विशेष रूप से अमेरिका और ब्रिटेन में उच्च शिक्षा के संस्थानों के लिए इसका बहुत बड़ा महत्व होगा, जहां विश्वविद्यालय अब आर्थिक रूप से बहुत सारी प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझ रहे हैं. पैसे की कमी, सिकुड़ते बजट, घटता नामांकन और शत्रुतापूर्ण सरकारी नीतियां प्रमुख बाधाएं है.
ये अपने पैसे के महत्वपूर्ण हिस्सों के लिए अंतरराष्ट्रीय नामांकन पर लंबे समय से निर्भर हैं. एक विशाल शैक्षिक बाजार में अंतरराष्ट्रीय परिसरों के आने की संभावना है क्योंकि भारत पर्याप्त निवेश और सहयोग के लिए बुलाएगा. महत्वपूर्ण बात यह है कि यह उनके लिए धन के नए स्रोत खोल सकता है. सिंगापुर में येल-एनयूएस, और मध्य पूर्व में न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के विभिन्न परिसरों ने पहले ही असाधारण मिसालें कायम की हैं. इसमें आश्चर्य नहीं है कि टाइम्स हायर एजुकेशन भारतीय उच्च शिक्षा के इस उदारीकरण पर पहले ही बढ़त ले चुका है.
घरेलू परिदृश्य के लिए इसका क्या अर्थ होगा? क्या यह स्वदेशी विश्वविद्यालयों के लिए पढ़ाई के स्तर का मानदंड ऊंचा कराएगा? क्या यह उन्हें अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा के माहौल में डाल देगा ? क्या यह उच्च शिक्षा के प्रति जनता की मानसिकता को पुनर्जीवित करेगा? यह किसे प्रभावित करेगा, बस एक विशेषाधिकारों वाले अल्पसंख्यकों को जो बहुत कम हैं? क्या इसका पूरे देश की विशाल युवा आबादी से कोई मतलब होगा? इन सवालों का जवाब केवल समय दे सकता है. भविष्य का दृष्टिकोण महत्वाकांक्षी तो है लेकिन महंगा भी है.
(सैकत मजूमदार अशोक विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर और रचनात्मक लेखन विभाग के प्रमुख हैं. भारत और अमेरिका में पढ़े सैकत एक उपन्यासकार और आलोचक हैं. अशोक विश्वविद्यालय में योगदान देने के पहले स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में कई वर्षों तक पढ़ा चुके हैं).