श्योपुर। कोरोना महामारी में दूसरे शहर और राज्यों में फंसे मजदूरों के दुख के सफर का अंत कब होगा, ये कहना शायद मुश्किल होगा, लेकिन इनकी गुहार सुनने के लिए शायद जिम्मेदारों को या तो फुर्सत नहीं है या फिर आंख में पट्टी बांधकर और कान में रूई डालकर इनती गहरी नींद ले रहे हैं, कि इन मजदूरों के दर्द की अवाज उन लोगों तक पहुंच नहीं रही है.
मालिक ने नौकरी से हटाया
कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन में अहमदाबाद से पैदल सफर करके वापस लौटे मजदूरों के कहानी के सफर को सुनकर शायद हर किसी की आखें नम हो जाएगी. दरअसल ये मजदूर अहमदाबाद की एक फैक्ट्री में काम करते थे. और अपना साधारण जीवन जीते थे. रात को लॉकडाउन का फरमना आया. लेकिन इनको नहीं पता था कि ये फरमान इन्हें किस अंजाम पर पहुंचाएगा.खैर सुबह जब हुई. और ये अपने दफ्तर पहुंचे तो इनके मालिक इन्हें अगला फरमान सुना दिया और वह फरमान ये था कि कल से कारखाने में काम करने नहीं आना है. ये सुनते ही इन मजदूरों को दिन में अंधेरा तो दिखने लगा था.
नहीं मिली मजदूरी
अगला झटका तो इन्हें तब मिला जब इनकी मेहनत की मजदूरी तक नहीं दी गई.इन मजदूरों ने जब अपने मालिक से कहा कि साहब आप मुझे एक लेटर दे दीजिए कि जब सबकुछ सामान्य हो जाएगा तो मुझे नौकरी दे दी जाएगी, लेकिन साहब तो इन्हें सीधा इंकार कर दिया. इसके बाद ये सब मजबूर होकर अपने परिवार के साथ कोटा के रास्ते 728 किलोमीटर का पैदल सफर किया. इस सफर में मजदूरों के साथ महिलाएं और मासूम बच्चे थे. लेकिन इस सफर में किसी की न तो नजरें गई, और न हीं किसी को इनके दर्द का एहसास हुआ.
दिन और रात किया पैदल सफर
लगातार 5 दिन और रात चलकर अहमदाबाद से श्योपुर पहुंचे 12 मजदूरों पर जब नगरपालिका के कर्मचारियों की नजर पड़ी. इसके बाद नगरपालिका के ने इनका हाल जाना. इसके बाद नगरपालिका टीम ने सभी मजदूरों को कलेक्टोरेट पहुंचाया. जहां उन्हें पहले भोजन कराया गया और इसके बाद इन्हें मुरैना जाने वाली बस में बैठाकर कोलारस तक भेजा गया.
मासूम बच्चों ने किया पैदल सफर
728 किलोमीटर पैदल चलने में पुरुष मजदूरों के साथ महिलाएं गोद में बच्चे लिए भी पैदल चली. कुछ बच्चे 10-12 साल के हैं. जो बच्चे खड़े होना भी नहीं जानते उन्हें गोद और कंधों पर रखकर लाया गया. पैदल आईं महिला व बच्चों के पांवों में बड़े-बड़े छाले हो गए जिनके कारण उनसे चला भी नहीं जा रहा है.
पैरों में पड़े छाले
पैदल सफर कर रहे सोनम जाटव का कहना है कि सभी के पैरों में छाले पड़ गए हैं. बच्चे चलने से मना कर रहे हैं और रोते हैं, लेकिन मजबूरी थी चलकर आना पड़ा. रास्ते में कई स्वयंसेवी और कुछ पुलिसकर्मी मिले जिन्होंने खाने के पैकेट उपलब्ध कराया.
घर पहुंचने की चिंता
प्रवासी मजदूर रिंकू जाटव का कहना है कि हम जिस कपड़ा फैक्ट्री में काम करने गए थे उसके डीएम ने हमें 10 दिन के काम की मजदूरी भी नहीं दी, और एक लेटरपेड भी उपलब्ध नहीं कराया जिससे हम प्रशासन को बताकर अपने लिए मदद ले सकते थे. 5 दिन और रात लगातार चलने के बाद श्योपुर पहुंचे हैं. अभी भरोसा नहीं कब अपने गांव पहुंचेंगे.