शहडोल। एक दौर था जब बरसात आने से पहले बैल गाड़ियों से किसान खाद की ढूलाई करता था, बारिश होते ही हल से खेतों की जुताई करना शुरू कर देता था गांव में बड़े-बड़े चारागाह हुआ करते थे और चरवाहे सैकड़ों की संख्या में मवेशियों को चराते मिलते थे और गांव की यही तो खूबसूरती थी. लेकि अब गांव का स्वरूप बदलता जा रहा है. इस बदलते स्वरूप जो जानने के लिए ईटीवी भारत पहुंचा शहडोल के गांवों में जहां अधिकतर खेती बारिश पर आधारित होती है.
अब बदलते वक्त के साथ सब कुछ बदल चुका है. गांव भी आधुनिकता की ओर जा रहे हैं किसान कम समय में ज्यादा काम करना चाह रहे हैं, इसके पीछे उनकी भी मजबूरी है, लेकिन इन सब बातों ने अब बैलों और भैंसा को बेकार कर दिया है.
ट्रैक्टर से खेती की परंपरा बढ़ी, हल चलवाना अब मजबूरी
अनिल साहू ने पिछले 2 साल से खेती करना शुरू किया है करीब 20 एकड़ में धान की खेती इस साल वह कर रहे हैं काफी उत्साहित हैं और उनका कहना है, जब से उन्होंने खेती की शुरुआत की है तो वह एक ट्रैक्टर खरीद कर ही खेती कर रहे हैं. उसकी एक वजह है कि बैलों से खेती करने में वह समय से खेती नहीं कर पाएंगे पिछड़ जाएंगे क्योंकि ज्यादातर खेती वर्षा आधारित होती है, ऐसे में समय के साथ और कम समय में ज्यादा काम करना पड़ता है और वैसे भी अब बारिश का भरोसा भी पहले की तरह नहीं रहा, अनिल कहते हैं, आज के समय में हल से खेती की बात करें तो महज 20 से 25 पर्सेंट लोग ही हल से खेती करते होंगे. अधिकतर लोग अब ट्रैक्टर या फिर दूसरे मशीनों से खेती करना ही पसंद करते हैं.
शहर जैसे हालात अब ग़ांव में भी
जातेंद्र तिवारी युवा किसान हैं और उनके पास ज्यादा खेत भी नहीं है, उनके पास ट्रैक्टर भी नहीं है, लेकिन वह किराए में ट्रैक्टर लेकर समय से अपना खेती कर रहे हैं उनका कहना है कि अब लोग हल से खेती करना पसंद नहीं कर रहे हैं उनका भी यही मानना है कि ट्रैक्टर से खेती करने से समय से खेती हो जाती है साथ ही मवेशियों को साल भर रखना उनका रखरखाव इतना आसान आज के समय में नहीं है ना अब चरवाहे आसानी से मिलते हैं ना उतने चारागाह रह गए हैं और ना ही इन मवेशियों को खिलाने के लिए जो चारा इस्तेमाल होता है वह इतना सस्ता रह गया है, और मजदूरों की समस्या तो साल दर साल बढ़ती ही जा रही है.
जहां कई सैकड़ा रहते थे मवेशी अब सिमट गई संख्या
रद्दू बैगा बताते हैं कि करीब 30 से 40 साल से वह सिर्फ मवेशियों को ही चराने का काम करते हैं, उनकी जिंदगी रोजी रोटी इसी से चल रही है. गांव में यह परंपरा रही है कि गांव में जितने भी मवेशी होते हैं, चरवाहा रद्दू बैगा अपनी ही भाषा में बताते हैं कि वे करीब 40 साल से मवेशियों का चराने का काम कर रहे हैं और इन चालीस सालों में उन्होंने ये सब बदलाव देखे हैं. 100 से 200 मवेशियों को चराने वाले रद्दू अब महज 25 से 50 को ही चरा रहे हैं ..और उन्हें लगता है, ये भी कुछ समय बाद 2 या पांच की संख्या में होंगे.
हल बनाने वालों पर संकट
राजकुमार सिंह कहते हैं, गांव में हल बनाने वाले राजकुमार कर रहे हैं कि बरसात के सीजन से पहले ही उनके यहां हल बनवाने और मरम्मत करवाने के लिए किसानों की भीड़ लग जाति थी, लेकिन अब वह परंपरा ही खत्म हो गई है, इसलिए अब वे भी सिर्फ चरवाहे का काम कर कमा रहे हैं.
अब गांवों में भी बेसहारा मवेशियों का रेस्क्यू
अटल कामधेनु गौ सेवा संस्थान के फाउंडर गौरव राही मिश्रा कहते हैं, 'उन्होंने कुछ साल पहले इस संस्थान की शुरुआत की थी तो शहरों में ही लावारिस बेसहारा जानवरों को लाते थे जो घायल बीमार होते थे, जो तकलीफ में रहते थे उनको लाकर इलाज करते थे. अब यह देखने को मिल रहा है कि उन्हें और उनकी टीम को गांव में भी रेस्क्यू करने जाना पड़ता है. अब तो गांव में भी ऐसे आवारा लावारिस मवेशी बेसहारा जानवर मिल जाते हैं, जिनका कोई मालिक ही नहीं है और जो तकलीफ में रहते हैं. गांव में भी उनकी संस्था रेस्क्यू करने जाती है और दिन भर में अगर वह तीन-चार जानवरों का रेस्क्यू करते हैं.
गांवों में भी तेजी से बदलाव
कृषि वैज्ञानिक डॉ मृगेंद्र सिंह कहते हैं, वह लगातार जिले में घूमते रहते हैं और पिछले कई साल से यह देख रहे हैं कि अब हल से खेती करना किसान पसंद नहीं कर रहा है. मवेशियों को घरों पर रखना किसान पसंद नहीं कर रहा है और उसकी एक वजह भी वह बताते हैं कि ट्रैक्टर से खेती करने से कम समय में खेती हो जाती है. बदलते वक्त के साथ आधुनिकता के कारण अब चारागाह की भी कमी हो रही है. मवेशियों को चारा खिलाने और अन्य जरूरी सामान भी महंगे हो चुके हैं. सबसे बड़ी बात मजदूर नहीं मिल रहे हैं, मवेशियों को रखने के लिए एक व्यक्ति नियुक्त करना पड़ता है, जो दिन भर उनकी देखरेख करता है. चरवाहे भी अब नहीं मिल रहे हैं. कई सारी समस्याएं अब किसानों के सामने भी आ रही हैं. जिससे किसान मवेशियों को पालने में इंटरेस्ट नहीं ले रहा है. यही वजह है कि बैल-भैंसा बेकार हो रहे.