झाबुआ। सिर पर पगड़ी और बदन पर पारंपरिक परिधान, चेहरे पर सरल मुस्कान के साथ लोगों से बातचीत करते इस शख्स की पहचान बड़े आदिवासी नेता के तौर पर होती है. जिसे मध्यप्रदेश की राजनीति में कांतिलाल भूरिया के नाम से जाना जाता है. रतलाम-झाबुआ संसदीय सीट से 7वीं बार सियासी दंगल में ताल ठोक रहे भूरिया प्रदेश के दिग्गज कांग्रेसियों की जमात में शामिल हैं, जिनके राजनीतिक कुशलता का लोहा दिल्ली दरबार में भी माना जाता है.
झाबुआ जिले के मोर डूंडिया गांव के एक साधारण परिवार में जन्मे भूरिया ने एनएसयूआई से सियासी पारी शुरु की थी. भूरिया उस दौर में युवा आदिवासी नेता के तौर पर अपनी पहचान बना रहे थे. तभी कांग्रेस ने उन्हें विधानसभा के सियासी पिच पर बैंटिग करने का मौका दिया और भूरिया ने पूरे दम के साथ पहली ही बार में सियासी बॉल को विधानसभा के अंदर पहुंचा दिया था. इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. कांतिलाल भूरिया के राजनीतिक सफर पर नजर डालें तो.
1980 में कांतिलाल पहली बार में ही विधानसभा चुनाव जीते
1980 से 1996 तक लगातार पांच बार विधायक चुने गये
दिग्विजय सिंह की सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाए गये
1996 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़े और जीते
यूपीए-1, यूपीए-2 में केंद्रीय मंत्री का पद संभाला
2011 में मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने
पांच बार लोकसभा चुनाव जीत चुके हैं
सातवीं बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं
2014 के मोदी लहर में अपनी परंपरागत सीट रतलाम-झाबुआ से चुनाव हारने वाले कांतिलाल भूरिया की रणनीतिक क्षमता और कुशलता का लोहा इसी बात से माना जा सकता है कि 2016 में इस सीट पर हुए उपचुनाव में उन्होंने अपनी खोई हुई सल्तनत पर दोबारा कब्जा कर लिया. उस वक्त ये जीत कांग्रेस के लिए संजीवनी की तरह थी क्योंकि 2014 में प्रचंड बहुमत हासिल करने वाली बीजेपी पहले ही उपचुनाव में चित हो गयी थी. कांतिलाल के सियासी कुशलता से ही ऐसा संभव हो पाया था.
इस सीट को भूरिया ने कांग्रेस के मजबूत गढ़ के रुप में स्थापित कर दिया है, जबकि इस बार उनका मुकाबला बीजेपी के गुमान सिंह डामोर से है, जिनका गुमान वह हर हाल में तोड़ना चाहेंगे क्योंकि विधानसभा चुनाव में डामोर ने उनके बेटे विक्रांत की सियासी पारी पर ब्रेक लगा दिया था. भूरिया को इस बार अपनी सीट भी बचानी है और बेटे की हार का बदला भी चुकाना है.