झाबुआ। जिले में बनने वाली अनूठी गुड़िया भील और भिलाला आदिवासियों की कला की विरासत है. यह गुड़िया आदिवासी जीवन तथा अनुभूतियों का कलात्मक संकलन है. इसकी विशेषता यह है कि यह जनजाति जीवन के विभिन्न रूपों के साथ-साथ उनके दैनिक निर्वाह के साधनों को भी दर्शाती है. आदिवासी गुड़िया परंपरागत पोशाक, चांदी के आभूषणों, तीखे नैन नक्श, काली गहरी आंखें, माथे पर बिंदी पारंपरिक पहनावे के साथ-साथ उत्तरजीविता के साधन जैसे धनुष्कोटी तथा ढोलक और बांसुरी आदि से सुसज्जित रहती है.
ऐसे बनती है गुड़िया
गुड़िया कला के निर्माण को लेकर अनेक दावे किए जाते रहे हैं. सर्वप्रथम आदिवासियों ने अपने तात्कालिक राजा को उपहार स्वरूप यह गुड़िया भेंट की थी, जिसमें शतरंज के मोहरों को तात्कालिक परिवेश में उपलब्ध संसाधनों द्वारा आकार देकर कपड़े में लपेटकर बनाया गया था. इसी से प्रभावित होकर झाबुआ में गुड़िया निर्माण की प्रक्रिया शुरू की गई थी. शुरूआत में आदिवासी गुड़िया का अनुपयोगी कपड़ों के वासियों में लपेटकर निर्माण किया जाता था, लेकिन वर्तमान में व्यावसायिक रूपों के कारण इसे ट्रेन्ड किए हुए शिल्पीकारियों द्वारा किया जाता है.
आदिवासी संस्कृति को बचा रहे हैं श्री गिदवानी
दरअसल आदिवासी गुड़िया की कीमत लगभग 200 से 500 रुपये तक होती है. इसे गुजराती गरबा शादी का जोड़ा राधा कृष्ण जैसी कई प्रकार की क्रियाओं के रूप में विक्रय किया जाता है. जिला मुख्यालय के पास स्थित शक्ति एंपोरियम में भी बीते 35 सालों से इस गुड़िया की बिक्री का व्यवसाय हो रहा है, जो खुद भी ट्राइफेड द्वारा जीआई टैग मिलने की कोशिश में जुटा है. इसे बनाने वाले शक्ति गिदवानी का कहना है कि गुड़िया को मिली अंतरराष्ट्रीय पहचान की तरह ही इसे बनाने वाले स्थानीय कलाकारों की आईडी बढ़ रही है. यह कला पिछड़े समुदाय को नए आर्थिक अवसर देने के साथ ही देश की सांस्कृतिक पूंजी को भी दर्शाती है. दरअसल आदिवासी अंचल में उनकी जनजातियों कि अपनी विशेष संस्कृति और सभ्यता है.