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एक सरपंच ऐसी भी! घर से शुरु की कुरीतियों को खत्म करने की पहल, लड़कियों के लिए बनीं मिसाल - Sarpanch of Jhanjhar village of Burhanpur

जहां चाह, वहां राह की कहावत को चरितार्थ करती इस गांव की सरपंच और उनके पति के द्वारा कि गई पहल की कहानी ये बताती है कि किसी भी गलत प्रथा को खत्म करने की शुरुआत खुद से की जाती है.

Burhanpur
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Published : Oct 18, 2020, 5:00 PM IST

Updated : Oct 18, 2020, 6:10 PM IST

बुरहानपुर। कहते हैं जहां चाह होती है, वहां राह निकल ही आती है, यह कहावत बुरहानपुर जिला मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर ग्राम झांझर में चरितार्थ हुई है. दरअसल पांचवी पास एक महिला सरपंच कमला चारण ने गांव की बेटियों को प्रेरणा देकर नारी सशक्तिकरण की मिसाल पेश की है. बेटियों को शिक्षा से दूर घरों में कैद रखने की आदिवासी समाज में फैली कुरीति को उन्होंने गांव से लगभग खत्म कर दिया है. इसके लिए उन्होने पहले अपनी बेटियों को घर से बाहर पढ़ाई के लिए भेजा, जिसका परिणाम यह हुआ कि मौजूदा समय में गांव की करीब 80 से ज्यादा आदिवासी लड़कियां स्कूल और कॉलेज में पढ़ाई कर रही हैं.

महिला सरपंच ने पेश की मिसाल

पांच दशक की सोच में बड़ा बदलाव

बुरहानपुर के ग्राम पंचायत झिरी के झांझर गांव की नींव सन् 1970 में रखी गई, उस समय गांव में आदिवासियों के 5-6 ही परिवार थे. अब यहां आबादी बढ़कर 3,800 के पार पहुंच चुकी है. मगर 50 साल के बाद भी यहां के आदिवासी समाज की सोच में तब्दीली नहीं आई. वे मानते हैं कि घर से बाहर जाने पर लड़की हांथ से निकल जाएगी, इस रूढ़ीवादी सोच के चलते बेटियां प्राइमरी स्कूल में पांचवी तक ही पढ़ाई कर पाती थीं. इसके बाद उन्हें घरेलू कामकाज सिखा कर कम उम्र में ही शादी कर दी जाती थी. लेकिन 50 साल के इतिहास में यह पहला मौका है, जब गांव की 40 लड़कियां गांव के आसपास और शहर के स्कूलों में पढ़कर 12वीं कक्षा तक पहुंची हैं, साथ ही करीब 40 बेटियों ने आगे पढ़ाई के लिए कॉलेजों में दाखिला लिया है. ये सपना साकार किया है महिला सरपंच कमला चारण ने.

ये है असल बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ अभियान

सरपंच कमला चारण की बेटी अपने मां-बाप पर गर्व करती हैं कि उन्होंने उसे पढ़ाई के लिए रोका नहीं. उनके परिजन की वजह से गांव की करीब 40 लड़कियां बाहर निकल पाईं. इस रूढ़ीवादी सोच को बदलने वाली सरपंच कमला की सोच ही गांव के बदलाव में नींव का पत्थर है, लेकिन वे इसका श्रेय अपने पति को देती हैं. कमला ने पति के साथ मिलकर लोगों को प्रेरित किया और यहीं से सोच में बड़ा बदलाव आया. बिना किसी सरकारी नारे के ही कमला चारण ने बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ के सपने को सच साबित कर दिखाया. आज इलाके की लड़कियां आगे बढ़ स्कूली ही नहीं कॉलेज की शिक्षा भी ले रही हैं.

पहला बदलाव घर की दहलीज से

इस गांव में सबके लिए कमला चारण आदर्श बन चुकी हैं. सरपंच के पति राजू चारण कहते हैं कि उनकी पत्नी ने बदलाव की शुरुआत अपने घर से की. इससे लोगों को अपनी बेटियों को पढ़ाने के लिए हौसला मिला और गांव के लोगों ने उनका अनुसरण किया. उनकी इस पहल के बाद गांव की लगभग 80 से ज्यादा लड़कियां अब अपनी जिंदगी को शिक्षा की रोशनी में आगे बढ़ा रही हैं. देश भर में सरकार लगातार बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान चला रही है, लेकिन आज भी कई पिछड़े गांव ऐसे हैं जहां बेटियों को आगे नहीं बढ़ने दिया जाता. ऐसे में सरकार की योजनाएं बिना सामाजिक जागृति के इन क्षेत्रों में कितनी सफल हैं इसका अनुमान लगाना थोड़ा कठिन है. लेकिन इस बीच राजू चारण और कमला चारण जैसे लोग प्रेरणा बनकर उभरे हैं, जिनकी एक पहल की वजह से गांव का भविष्य बदल रहा है, और समाज विकास की ओर बढ़ रहा है.

बुरहानपुर। कहते हैं जहां चाह होती है, वहां राह निकल ही आती है, यह कहावत बुरहानपुर जिला मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर ग्राम झांझर में चरितार्थ हुई है. दरअसल पांचवी पास एक महिला सरपंच कमला चारण ने गांव की बेटियों को प्रेरणा देकर नारी सशक्तिकरण की मिसाल पेश की है. बेटियों को शिक्षा से दूर घरों में कैद रखने की आदिवासी समाज में फैली कुरीति को उन्होंने गांव से लगभग खत्म कर दिया है. इसके लिए उन्होने पहले अपनी बेटियों को घर से बाहर पढ़ाई के लिए भेजा, जिसका परिणाम यह हुआ कि मौजूदा समय में गांव की करीब 80 से ज्यादा आदिवासी लड़कियां स्कूल और कॉलेज में पढ़ाई कर रही हैं.

महिला सरपंच ने पेश की मिसाल

पांच दशक की सोच में बड़ा बदलाव

बुरहानपुर के ग्राम पंचायत झिरी के झांझर गांव की नींव सन् 1970 में रखी गई, उस समय गांव में आदिवासियों के 5-6 ही परिवार थे. अब यहां आबादी बढ़कर 3,800 के पार पहुंच चुकी है. मगर 50 साल के बाद भी यहां के आदिवासी समाज की सोच में तब्दीली नहीं आई. वे मानते हैं कि घर से बाहर जाने पर लड़की हांथ से निकल जाएगी, इस रूढ़ीवादी सोच के चलते बेटियां प्राइमरी स्कूल में पांचवी तक ही पढ़ाई कर पाती थीं. इसके बाद उन्हें घरेलू कामकाज सिखा कर कम उम्र में ही शादी कर दी जाती थी. लेकिन 50 साल के इतिहास में यह पहला मौका है, जब गांव की 40 लड़कियां गांव के आसपास और शहर के स्कूलों में पढ़कर 12वीं कक्षा तक पहुंची हैं, साथ ही करीब 40 बेटियों ने आगे पढ़ाई के लिए कॉलेजों में दाखिला लिया है. ये सपना साकार किया है महिला सरपंच कमला चारण ने.

ये है असल बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ अभियान

सरपंच कमला चारण की बेटी अपने मां-बाप पर गर्व करती हैं कि उन्होंने उसे पढ़ाई के लिए रोका नहीं. उनके परिजन की वजह से गांव की करीब 40 लड़कियां बाहर निकल पाईं. इस रूढ़ीवादी सोच को बदलने वाली सरपंच कमला की सोच ही गांव के बदलाव में नींव का पत्थर है, लेकिन वे इसका श्रेय अपने पति को देती हैं. कमला ने पति के साथ मिलकर लोगों को प्रेरित किया और यहीं से सोच में बड़ा बदलाव आया. बिना किसी सरकारी नारे के ही कमला चारण ने बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ के सपने को सच साबित कर दिखाया. आज इलाके की लड़कियां आगे बढ़ स्कूली ही नहीं कॉलेज की शिक्षा भी ले रही हैं.

पहला बदलाव घर की दहलीज से

इस गांव में सबके लिए कमला चारण आदर्श बन चुकी हैं. सरपंच के पति राजू चारण कहते हैं कि उनकी पत्नी ने बदलाव की शुरुआत अपने घर से की. इससे लोगों को अपनी बेटियों को पढ़ाने के लिए हौसला मिला और गांव के लोगों ने उनका अनुसरण किया. उनकी इस पहल के बाद गांव की लगभग 80 से ज्यादा लड़कियां अब अपनी जिंदगी को शिक्षा की रोशनी में आगे बढ़ा रही हैं. देश भर में सरकार लगातार बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान चला रही है, लेकिन आज भी कई पिछड़े गांव ऐसे हैं जहां बेटियों को आगे नहीं बढ़ने दिया जाता. ऐसे में सरकार की योजनाएं बिना सामाजिक जागृति के इन क्षेत्रों में कितनी सफल हैं इसका अनुमान लगाना थोड़ा कठिन है. लेकिन इस बीच राजू चारण और कमला चारण जैसे लोग प्रेरणा बनकर उभरे हैं, जिनकी एक पहल की वजह से गांव का भविष्य बदल रहा है, और समाज विकास की ओर बढ़ रहा है.

Last Updated : Oct 18, 2020, 6:10 PM IST
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