हैदराबाद : भारत के सबसे पुरानी पार्टी 2014 के बाद से ही कई मुश्किलों से जूझ रही है. अभी हालात ऐसे हैं कि ओल्ड ग्रैंड पार्टी में एक विवाद खत्म भी नहीं हो रहा और दूसरा शुरू हो जाता है. कई महीने तक पार्टी विवाद से जूझती है, मगर समाधान नहीं होता. नतीजा, विपक्ष के तौर पर भी उसकी परफॉर्मेंस को न तो नोटिस किया जाता है और न ही पब्लिक मुद्दों पर उसका साथ देती है. आप गौर करें 2014 के बाद से ही मजबूत विपक्ष की भूमिका में कभी CAA विरोधी संगठन नजर आते रहे हैं तो कभी किसान. राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी के खिलाफ लड़ाई लड़कर खुद को सशक्त कर रही है. जिन राज्यों में कांग्रेस अपने दम पर सरकार में है, वहां के क्षत्रप प्रदेश प्रभारी की नहीं सुनते. आखिर करीब 55 साल देश पर राज करने वाली कांग्रेस में प्रॉब्लम क्या है?
प्रॉब्लम जानने के लिए विवेचना की शुरुआत कांग्रेस शासित राज्यों से करते हैं? पंजाब में प्रदेश अध्यक्ष बनने के बावजूद नवजोत सिंह सिद्धू पार्टी हाईकमान की नहीं सुनते हैं. मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह विधायकों के साथ अलग ही खेमेबंदी करते नजर आते हैं. प्रदेश प्रभारी हरीश रावत के पास भी कोई फॉर्मूला नहीं है, जिससे दोनों नेताओं के बीच चल रही जुबानी जंग खत्म हो. राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच मतभेद जगजाहिर है. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के बीच भी सीएम पद को लेकर तनातनी है. शुक्रवार को भुपेश के समर्थन में 35 विधायक दिल्ली भी पहुंच गए. प्रदेश प्रभारी पीएल पुनिया भी बघेल-सिंहदेव के शक्ति प्रदर्शन के बीच हाईकमान की तरफ देख रहे हैं.
सीएम पद छोड़कर भूपेश बघेल क्या दांव पर लगाएंगे भविष्य : पॉलिटिकल एक्सपर्ट मानते हैं कि हाईकमान यानी राहुल गांधी और सोनिया गांधी के निर्णय नहीं लेने के कारण राज्यों में यह दिक्कत हुई है. जब इन राज्यों में सरकार बनी, तभी शीर्ष नेता प्रदेश नेतृत्व को लेकर स्पष्ट रहते तो असंतोष जैसी स्थिति पैदा नहीं होती. दूसरी बात यह है कि छत्तीसगढ़ में सरकार गठन के समय ढाई-ढाई साल के लिए सीएम बनाने का आश्वासन देना भी गलत निर्णय था. अब भूपेश बघेल अगर पद छोड़ते हैं तो अगले चुनाव तक वह पार्टी का सीएम चेहरा नहीं रह पाएंगे. छत्तीसगढ़ में अगला विधानसभा चुनाव भी टी एस सिंहदेव के चेहरे पर लड़ा जाएगा. यानी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के भीतर बवाल जल्द खत्म होने वाला नहीं है. हाईकमान ने इसे जल्द नहीं सुलझाया तो इसका असर अगले चुनाव परिणाम पर भी पड़ना तय है.
पंजाब में बीजेपी से आए सिद्धू को बनाया प्रदेश अध्यक्ष : पंजाब में क्या हुआ. बीजेपी से कांग्रेस में आए नवजोत सिद्धू ने चुनाव जीतने के बाद से सीएम पद की दावेदारी कर दी. कैप्टन अमरिंदर पार्टी के आजमाए हुए नेता हैं. गुटबाजी और बयानबाजी इस कदर हुई कि अमरिंदर सिंह को सीएम पद से हटने की अटकलें लगनी लगीं. मामला फिर सोनिया-राहुल के दरबार में पहुंचा. दरवाजे तक आए सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाकर हाईकमान ने कैप्टन अमरिंदर के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी. घर आए मेहमान को खुश करने की पॉलिसी के कारण पंजाब में चुनाव से पहले कांग्रेस में गुटबाजी चल रही है.
राजस्थान में पायलट-गहलोत विवाद की अनदेखी : राजस्थान में सचिन पालयट और अशोक गहलोत की कहानी जगजाहिर है. जानकार मानते हैं कि राजस्थान में चुनावी समर थोड़ा दूर है, इसलिये पायलट और गहलोत की कलह पार्टी आलाकमान की प्राथमिकता में बहुत नीचे है. पार्टी की अनदेखी के कारण मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार जा चुकी है और ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा की तरफ से केंद्र में मंत्री बन चुके है. जिन राज्यों में कांग्रेस गठबंधन की सरकार में शामिल है, वहां भी पार्टी में अमन-चैन नहीं है. महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से भी स्थानीय नेताओं की नहीं बन रही है.
आखिर राहुल और सोनिया क्यों नहीं कर पा रहे हैं मैनेज : नरसिंह राव के कार्यकाल के बाद सोनिया गांधी अपनी राजनीतिक पारी पार्टी के पुराने विश्वस्तों की मदद से शुरू की थी. सीताराम केसरी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटने के बाद उन्होंने राजीव गांधी के सहयोगी रहे नेताओं की मदद ली. नारायण दत्त तिवारी, प्रणब मुखर्जी, गुलाम नबी आजाद और अर्जुन सिंह जैसे दिग्गज पार्टी और हाईकमान की साख को बचाते रहे. वह पार्टी नेताओं और हाईकमान के बीच संवाद कायम करते रहे. गांधी परिवार तक संवाद पहुंचाने वाली कड़ी में अहमद पटेल आखिर कांग्रेसी थे.
हाईकमान के सामने बौना हुआ प्रदेश प्रभारी का पद : कांग्रेस का हर नेता और कार्यकर्ता मानता है कि गांधी परिवार ही पार्टी का अंतिम सत्य है. जब कोई पेंच फंसता है तो नेता प्रदेश प्रभारी को दरकिनार कर सीधे दिल्ली सोनिया या राहुल गांधी के दरबार में पहुंचते हैं. पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने प्रभारी से कभी बात नहीं की. वह दिल्ली से प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी लेकर आ गए. भूपेश बघेल और टी. एस सिंहदेव का विवाद प्रदेश प्रभारी पीएल पूनिया के हाथ से निकलकर राहुल गांधी तक पहुंच गया. उत्तराखंड में कांग्रेस प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव कई महीनों तक यह तय नहीं कर पाए कि विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष कौन होगा. जनवरी 2021 में बिहार प्रभारी भक्त चरण दास के सामने ही विधायकों में हाथापाई हुई. ऐसे मामलों में कोई कार्रवाई भी नहीं हुई.
जी-23 की अनदेखी से भी कमजोर हो रही है पार्टी : कांग्रेस के शीर्ष 23 नेताओं ने अगस्त 2020 में चिट्ठी लिखकर हंगामा खड़ा कर दिया था. उन्होंने चिट्ठी में संगठन में चुनाव, 2019 के चुनाव में हार की समीक्षा जैसे विषय उठाए थे. चिट्ठी लिखने वाले इन्हीं नेताओं को ग्रुप-23 (G-23) कहा गया. इसके बाद हाईकमान ने इस ग्रुप में शामिल गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, शशि थरूर, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा, पीजे कुरियन, रेणुका चौधरी, मिलिंद देवड़ा, मुकुल वासनिक, भूपेंदर सिंह हुड्डा, राजिंदर कौर भट्टल, एम वीरप्पा मोइली, पृथ्वीराज चव्हाण, राज बब्बर जैसे नेताओं की अनदेखी शुरू की. गुलाम नबी को राज्यसभा में दोबारा मौका नहीं मिला. ये नेता कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में शामिल रहे हैं. संसद में इनकी अनदेखी का असर देखा जा सकता है, जहां पार्टी बड़े मुद्दों को ठीक से रख नहीं पाती है. वहां भी इसकी भरपाई क्षेत्रीय दल करते हैं.
गुहार नहीं सुनने के कारण पार्टी छोड़कर जा रहे हैं नेता : जैसा पहले बताया कि कांग्रेस में हर मर्ज का इलाज सोनिया गांधी और राहुल गांधी के पास माना जाता है. आज कांग्रेस के कई बड़े नेता हेमंत बिस्व सरमा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, नारायण राणे, खुशबू, रीता बहुगुणा जोशी, वीरेंद्र सिंह, राव इंद्रजीत सिंह, सतपाल महाराज, विजय बहुगुणा भाजपा में हैं. इन सभी नेताओं की शिकायत रही कि केंद्रीय नेतृत्व ने उनकी गुहार नहीं सुनी. फिर ये सभी अपनी राजनीतिक भविष्य की तलाश में दूसरे दलों में चले गए. इसके अलावा अन्य दलों में भी नेताओं का पलायन हो रहा है.
फैसलों का असर संगठन पर, पीके क्या करेंगे : आजादी के पहले से लेकर नरसिंह राव के जमाने तक कांग्रेस सेवा दल संगठन का एक्टिव प्रकोष्ठ हुआ करता था. इसके अलावा यूथ कांग्रेस की भी अलग साख थी. इन दोनों प्रकोष्ठ के पदाधिकारियों की पहुंच 7 रेसकोर्स और 10 जनपथ तक हुआ करती थी. मगर वक्त के साथ पार्टी के प्रकोष्ठ ही निष्क्रिय हो गए. अब चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस के चुनाव अभियान का जिम्मा संभाला है. पीके चुनाव अभियान के अलावा संगठन में भी दखल देते हैं. यह भी चर्चा है कि प्रशांत किशोर कांग्रेस से काफी लंबे समय के लिए जुड़े हैं. ऐसे में पार्टी की कार्यशैली में बदलाव की उम्मीद की जा रही है. मगर क्या पीके 'सबसे महान, हाईकमान' की नीति को बदल पाएंगे.