रांची : झारखंड जगुआर फोर्स ने अपने आप को इतना काबिल बना लिया है कि इसके अभियान पर निकलने की खबर भर सुनते ही नक्सलियों में खलबली मच जाती है. साल 2008 में जब झारखंड में नक्सलवाद अपने चरम पर था, तब झारखंड जगुआर का गठन हुआ और तब से लेकर आज तक इस एंटी नक्सल फोर्स ने नक्सलियों का जीना हराम किया हुआ है.
झारखंड का सहारा बना जगुआर
झारखंड में जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत 80 के दशक में हुई. अविभाजित बिहार में रोहतास, कैमूर की पहाड़ी से नक्सली गतिविधियों का संचालन होता था. धीरे-धीरे इस सशस्त्र आंदोलन की चपेट में झारखंड का पलामू जिला आया और फिर आधे से अधिक झारखंड में नक्सलवाद की आंधी ने जमकर तबाही मचाई. जिसका शिकार पुलिस वालों के साथ-साथ आम लोग भी हुए.
नक्सलवाद से निपटने में जब झारखंड पुलिस फेल होने लगी तब केंद्रीय बलों को झारखंड बुलाया गया और कुछ हद तक नक्सलवाद पर काबू पाया गया. लेकिन इसके एवज में सीआरपीएफ सहित दूसरी एजेंसियों को अपने जवानों की शहादत भी देनी पड़ी.
2008 में हुआ था गठन
नक्सल को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा माना जाता है. इनसे निपटने के लिए झारखंड में एक ऐसे बल की जरूरत महसूस की जाने लगी जो जंगल और गुरिल्ला वार में माहिर हों. फोर्स ऐसी हो जो एक सप्ताह चलने वाले ऑपरेशन में पूरी तरह से सक्षम हो.
इसी को ध्यान में रखते हुए 2008 में झारखंड जगुआर का गठन किया गया. भारतीय सेना से आकर झारखंड जगुवार के एसपी ट्रेनिंग का पद संभाल रहे हैं. कर्नल जेके सिंह के अनुसार इस बल के गठन के पूर्व राज्य पुलिस पूरी तरह से सीआरपीएफ और जैप पर निर्भर थी. लेकिन जगुआर के गठन के बाद इस बल ने नक्सलियों के खिलाफ अभियान में बेहतर भूमिका निभाई है. इस बल को स्थानीय होने का लाभ भी मिलता है क्योंकि जवानों को भौगोलिक स्थिति की जानकारी होती है.
ग्रेहाउंड की तर्ज पर कठिन ट्रेनिंग
नक्सलियों के खिलाफ लोहा लेने वाली आंध्र प्रदेश की फोर्स ग्रेहाउंड के तर्ज पर ही झारखंड जगुवार का गठन किया गया है. ग्रेहाउंड के अफसरों के द्वारा समय-समय पर झारखंड जगुआर की कमांडोज को ट्रेनिंग भी दी जाती है. झारखंड जगुआर का गठन विशेषकर जंगल की लड़ाई के लिए ही किया गया है. सबसे पहले उन्हें यह सिखाया जाता है कि जंगल में कैसे सर्वाइव करना है.
अगर ऑपरेशन के दौरान कोई अवरोध आ जाए तो कैसे लक्ष्य तक पहुंचना है. जवानों को गुरिल्ला वार, विस्फोटकों का पता लगाने, जंगल में जान बचाने की टेक्निक समेत उग्रवादियों और नक्सलियों से लड़ने के लिए भी तैयार किया जाता है. इनके स्पेशलाइज्ड ट्रेनिंग प्रोग्राम में जंगल वार, ऑपरेशन की प्लानिंग और उसे पूरा करना, शारीरिक क्षमता, मैप रीडिंग, जीपीएस और इंटेलीजेंस शामिल होता है.
24 घंटे ऑपरेशन के लिए रहते हैं तैयार
कमांडो को कोंबो फ्लाइंग यानी जमीन के रंग और पत्तियों के अनुरूप ढलकर दुश्मन पर हमला और बचाव करना सिखाया जाता है. जगुआर कमांडो को इस तरह की ट्रेनिंग मिली होती है कि वह जमीन, पानी, पहाड़ कहीं भी आसानी से ऑपरेशन कर सकते हैं. अपने हथियार और जरूरत के सामान के साथ पानी में तैरकर इस पार से उस पार पहुंचना इनके लिए कोई मुश्किल का काम नहीं है. दिन हो या रात हर समय ऑपरेशन के लिए तैयार रहते हैं.
ट्रेनिंग के दौरान इन जवानों को रात की परिस्थितियों में ढलने की भी ट्रेनिंग कराई जाती है. एक बार जगुआर कमांडो बनने के बाद हर साल एक महीने की ट्रेनिंग करनी होती है. जब जवान ऑपरेशन नहीं कर रहे होते हैं तो उस दौरान वह ट्रेनिंग करते हैं ताकि खुद को हर ऑपरेशन के लिए फिट रख सकें. वर्तमान में झारखंड जगुआर में 40 एसाल्ट ग्रुप है. पहले 20 एसाल्ट ग्रुप के ही गठन का प्रस्ताव था, लेकिन बाद में अतिरिक्त 20 एसाल्ट ग्रुप के गठन को स्वीकृति दे दी गई थी.
21 जगुआर दे चुके हैं शहादत
अपने बलिदान और शौर्य के बल पर झारखंड जगुआर ने बहुत कम समय में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. साथ ही झारखंड में नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई में केंद्रीय बलों के प्रति निर्भरता भी कम हुई है. 14 साल के इतिहास में झारखंड जगुआर के जवानों ने कई नक्सलियों को मार गिराया है. वहीं, कई को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया है. नक्सलियों के खिलाफ जंग में अब तक 21 झारखंड जगुआर के जवान वीरगति को प्राप्त हुए हैं. झारखंड जगुआर के अधिकारी और जवान विशिष्ट सेवा के लिए झारखंड राज्यपाल पदक, वीरता के लिए झारखंड मुख्यमंत्री पदक और सराहनीय सेवा के लिए झारखंड पुलिस पदक से नवाजे गए हैं.
बम सबसे बड़ा खतरा
एक समय था जब नक्सलियों के द्वारा लगाए गए लैंडमाइंस का पुलिस के सामने कोई उपाय नहीं था. लेकिन वर्तमान समय में झारखंड जगुआर के पास ही एक दर्जन बम निरोधक दस्ते हैं. झारखंड जगुआर की बीडीएस टीम ने समय रहते सड़क के बीचों बीच लगाए गए लैंडमाइंस को निष्क्रिय कर कई जवानों की जान बचाई है. झारखंड जगुआर में सबसे अहम ट्रेनिंग बम निष्क्रिय करने की होती है क्योंकि बम निष्क्रिय करने वाला कमांडो सबसे विशेष होता है.
जगुआर कैंपस में बने एक विशेष रूम में हर तरह के बमों को डिस्प्ले कर जवानों को उसके बारे में जानकारी दी जाती है.इन जवानों को ऑपरेशन के दौरान इतिहास में हुई गलतियों से सबक लेना सिखाया जाता है. रात को नक्सली पेड़ काटकर गिरा देते हैं, जैसे ही कोई हटाने की कोशिश करेगा तो आईडी ब्लास्ट हो जाता है. डेड बॉडी के अंदर प्रेशर बम लगा देते हैं ताकि इन शवों को उठाने वाले को भी नुकसान पहुंचा सकें. इसके अलावा केन बम, कुकर बम के साथ-साथ सीरीज और सिरिंज बम के बारे में भी जवानों को सिखाया जाता है.
अपने दम पर पहचान बना रही जगुआर
झारखंड जगुआर वैसे तो झारखंड पुलिस का एक सशस्त्र बल है. इसे विशेषकर नक्सल विरोधी अभियान के लिए तैयार किया गया है. इसका दूसरा नाम एसटीएफ यानी स्पेशल टास्क फोर्स भी है. विशेष रूप से प्रशिक्षित झारखंड जगुआर के जवानों की 200 से अधिक स्मॉल एक्शन टीम झारखंड के जंगलों में नक्सलियों के खिलाफ अभियान चला रही है. इन्हें ग्रेहाउंड, सीआरपीएफ और सेना के विशेषज्ञों द्वारा विशेष प्रशिक्षण प्राप्त है. यह गुरिल्ला युद्ध जैसे अभियान चलाने में भी एक्सपर्ट हैं. इनकी ट्रेनिंग सेंटर भी बेजोड़ है. लगभग डेढ़ सौ एकड़ के क्षेत्र में बना झारखंड जगुआर का मुख्यालय जंगल और पहाड़ियों के बीच है. यहां रहने वाले जवानों को तमाम तरह की सुविधाएं मुहैया करवाई जाती है. जो कुछ थोड़ी बहुत कमियां बाकी है उसे भी आने वाले दिनों में पूरा करने का प्रयास किया जा रहा है.
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अत्याधुनिक हथियारों और तकनीकों से लैस है जगुआर
वर्तमान समय में नक्सलियों के पास काफी अत्याधुनिक हथियार हैं. उनसे निपटने के लिए झारखंड जगुआर के पास भी हर वह आधुनिक हथियार मौजूद है जो जंगल की लड़ाई में जरूरी है. मसलन रात में दिखाई दे इसके लिए यंत्र भी जगुआर के पास उपलब्ध है. इसके अलावा एक-47 के साथ-साथ टेबेरो एक्स 95 हथियार भी जगुआर के खेमे में है. झारखंड जगुआर के पास निशानेबाज भी हैं जो अपने स्नाइपर राइफल के बदौलत नक्सलियों के छक्के छुड़ा देते हैं.