हैदराबाद : एक भजन है 'दुनिया चले न श्रीराम के बिना और रामजी चलें न हनुमान के बिना.' यही सत्य 135 वर्ष पुरानी और स्वतंत्र भारत पर सर्वाधिक समय सत्तासीन रही कांग्रेस पार्टी पर भी लागू होता है. पार्टी चले न गांधी नाम के बिना, गांधी चलें न दरबार के बिना. दरबार मतलब आधा दर्जन विश्वस्त प्रबंधक, जिन्हें दर्द भी देना आता है और उसकी दवा भी. यह लोग वो सज्जाद हैं, जो मजार के पीर की शान में उर्स लगाते रहते हैं. जायरीनों की जियारत का मुकम्मल इंतजाम करते हैं. मीडिया की भाषा में इन्हें 'कोटरी' या 'चौकड़ी' भी कहते हैं. यह ही असली हाईकमान होते हैं, जो सुझाव भी देते हैं, फैसले भी करवाते हैं और नेतृत्व की जिंदाबाद भी करवाते रहते हैं. इंदिरा गांधी के जमाने में भी यह व्यवस्था थी. फर्क इतना था कि वह स्वयं पूरे देश की जमीनी हकीकत से खुद वाकिफ रहती थी. पार्टी में किसकी क्या उपयोगिता है, कौन क्षत्रप वाकई में अपने सूबे में मजबूत जनाधार रखता है, इसकी जानकारी और समझ दोनों उन्हें थी. क्योंकि वह संगठन के दांव-पेंच भी भली भांति समझती थी और जनता की नब्ज पर भी नजर रखती थीं. इसलिए तमाम चुनौतियों का पार्टी और राजनीति के मैदान में भी मुकाबला करना जानती थीं.
सोनिया गांधी से हमको यह उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए. इसलिए उन्हें पार्टी चलाने के लिए सभी फैसलों के लिए 'चौकड़ी' पर ही निर्भर रहना पड़ता है. इसका फायदा उन्हें अपनी हैसियत कायम रखने में तो हुआ, लेकिन नुकसान इस विशाल पार्टी को हो गया. चाटुकारों की पिछले दो दशक में जमकर पौ बारह रही. दस वर्ष की केंद्र सरकार के दौरान भी हाईकमान का हव्वा बना कर रखा गया. जवाबदेही सिर्फ डॉ मनमोहन सिंह की बनाकर रखी गई और पर्दे के पीछे से 'प्रतिष्ठान ही सक्रिय रहा.
यह संक्षिप्त इतिहास मैं यहां इसलिए दोहरा रहा हूं, जिससे कि आपको यह समझने में आसानी हो सके कि आखिर कांग्रेस नाम का जहाज क्यों डूब रहा है? इन दिनों क्यों हिचकोले खा रहा है? नरेंद्र मोदी और उनके साथ आए नए राजनीतिक तूफान का सामना क्यों नहीं कर पा रहे हैं? राहुल गांधी आखिर क्यों 'पप्पू' की गढ़ी गई छवि को तोड़ पाने में नाकाम हैं? क्यों प्रबंधक भी दिखावटी सक्रियता दिखा रहे हैं, जबकि कोई ठोस सामूहिक प्रयत्न नहीं कर रहे हैं कि राहुल गांधी को सफल बनाएं? क्योंकि राहुल सोनिया नहीं हैं. उन्होंने एक प्रभावशाली जननेता की हैसियत भले ही हासिल नहीं की है, लेकिन पार्टी अध्यक्ष पद पर आसीन होने के बाद अंदरूनी दांव पेंच, 'चौकड़ी' का दखल, देशभर के संगठन की पेचीदगियों को समझ लिया. खासतौर पर 2014 के आम चुनाव में मिली करारी हार के बाद उन्होंने जो समीक्षा बैठकें कीं, कई दिन तक हर राज्य के नेताओं-कार्यकर्ताओं से मिलकर उनकी शिकायतें, सुझाव सब सुने, तो उनके सामने पार्टी की पूरी तस्वीर स्पष्ट हो गई. वो समझ गए कि पार्टी को प्रबंधकों की जकड़ से मुक्त किए बगैर नई जान फूंकना संभव नहीं है. यहीं से कांग्रेस में घमासान शुरू हुआ.
राहुल गांधी ने सोनिया गांधी की 'चौकड़ी' को दरकिनार करते हुए एक नई टीम बनानी शुरू की. साफ शब्दों में कहें, तो सर्वशक्तिमान सोनिया के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल और उनके सिपहसालारों को राहुल ने किनारे लगाना शुरू किया. उद्देश्य तो उनका अच्छा था, लेकिन राजनीति का पर्याप्त अनुभव न होने से वो गलतियां करते चले गए. अपनी टीम में उन्होंने ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़कर लौटे पश्चिमी राजनीतिक तौर तरीकों से प्रभावित टेक्नोलॉजी पर निर्भर लोगों से खुद को घेर लिया. यह 'नए लड़के' सवा सौ साल से ज्यादा पुरानी पार्टी के परंपरागत सिद्धांत समझते ही नहीं हैं. 'सर्वे', 'इंटरव्यू' और 'पैरामीटर्स' जैसे तरीकों से पार्टी चलाने की कोशिशें हुईं. छात्र एवं युवा कांग्रेस के संगठन में मनोनयन की स्थापित पद्धति को बंद करके चुनाव कराए गए. जाहिर है पुराने घाघ नेताओं को यह नागवार गुजरा. फिर राहुल ने एक कदम आगे बढ़ते हुए अपनी पसंद के युवाओं को प्रदेशों में अध्यक्ष नियुक्त करना शुरू किया. राज्यों के जमे हुए दिग्गजों ने इस कदम को अपने वर्चस्व के लिए चुनौती माना. एक उदाहरण से ही समझ लें कि हरियाणा में दस साल मुख्यमंत्री रहे भूपेंदर सिंह हुड्डा ने अशोक तंवर को कभी अध्यक्ष नहीं समझा. विवाद लाठी-डंडे की लड़ाई तक चला और अंततोगत्वा राहुल के बनाए अध्यक्ष को पार्टी छोड़कर जाना पड़ा.
2014 से 2019 तक राहुल गांधी ने पार्टी को अपने तरीके से पुनर्गठित करने के सभी प्रयास किए. इसी दौरान उनके सामने देश में विपक्ष के प्रभावी नेता के तौर पर भी स्वयं को प्रमाणित करने की चुनौती थी. राहुल एक अच्छे वक्ता नहीं हैं. संसदीय राजनीति के मंच पर वह बगैर होमवर्क के जगहंसाई के पात्र बन जाते हैं, क्योंकि उनके अंदर राजनीति का घाघपन, चतुराई और जमीनी संघर्ष का अनुभव नहीं है. इसीलिए जब वो संसद में अप्रत्याशित रूप से नरेंद्र मोदी के गले मिलने चले जाते हैं, तो बजाय प्रशंसा के उनके इस कदम से जमकर भद्द पिटी. मोदी जैसे साम, दाम, दंड, भेद के पारंगत महारथी के सामने जाहिर है, राहुल 'पप्पू' ही साबित होते रहे. पार्टी के बुजुर्गों ने सोचा अच्छा है, लौट के बुद्धू घर को आ जाए. नए तौर-तरीकों को छोड़कर हमें 'अभिभावकों' वाली परंपरागत हैसियत दें, तो सही सलाह दें!
राहुल ठहरे युवा, जिद्दी. मानसिक रूप से तनावग्रस्त होकर विपश्यना शिविर में जाना बेहतर उपाय समझते हैं, बजाय इस खांटी बेदर्द राजनीति में उलझने के. मां सोनिया सब कुछ समझ रहीं थीं. इसीलिए बीच-बीच में अपने वफादारों को विधानसभा चुनावों के प्रत्याशी चयन के लिए बनाई गई स्क्रीनिंग कमेटी, सेलेक्शन कमेटी में नियुक्त करती रहीं, जिससे कि इन नेताओं की 'दुकान' चलती रहे. 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की फिर शर्मनाक हार हुई. राहुल गांधी मीडिया और पार्टी दोनों की तीखी आलोचना के निशाने पर आ गए. अपने नेतृत्व की असफलता को स्वीकार करते हुए उन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया. यह कांग्रेस के लिए अप्रत्याशित था, लेकिन 'चौकड़ी' की मंशा पूरी हो गई. अहमद पटेल, पी चिदंबरम, ए के एंटोनी, मोतीलाल वोरा इन सब ने मिलकर सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनवा लिया. यहां यह बता दूं कि अगर रणनीति के तहत समय से 'चौकड़ी' ने प्रियंका को महासचिव बनवा कर हाईकमान का हिस्सा न बनवाया होता, तो राहुल अपनी जिद से अपनी पसंद के किसी नेता को पार्टी अध्यक्ष बना देते, जो कि 'चौकड़ी' कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी. प्रियंका ने मां को अंतरिम अध्यक्ष पद स्वीकार करने के लिए राजी किया, जिससे कि पार्टी की कमान गांधी परिवार के पास ही रहे.
अब आते हैं ताजा घटनाक्रम यानी पार्टी के 23 नेताओं के लिखे पत्र से मचे बवाल पर. अगर मैं कहूं कि यह सुप्रीम प्रबंधक अहमद पटेल की एक सुनियोजित चाल थी, तो संभव है बहुत से लोगों को बात हजम नहीं हो, लेकिन जैसा कि मैं ऊपर बता चुका हूं, यह दर्द भी देते हैं और दवा भी. मुख्य महाप्रबंधक हैं. इन्हें राहुल लंबे समय से दरकिनार करते आ रहे हैं, जबकि प्रियंका और सोनिया आज भी पूरी तरह से इन्हीं की सलाह पर चलती हैं. डर इनको यह था कि राहुल अब भी किसी गैर गांधी को पार्टी की कमान सौंपने के पक्ष में हैं. यह नहीं होने देना है. सारा खाका इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर बुना गया.
गुलाम नबी आजाद कांग्रेस में इंदिरा गांधी के जमाने से महत्वपूर्ण नेता रहे हैं और उन्हें ग्रेट सर्वाइवर माना जाता है. पार्टी के अकेले ऐसे नेता हैं, जो लगातार कार्य समिति के सदस्य हैं और महासचिव के नाते हर प्रदेश के प्रभारी रहे हैं. उनकी राज्यसभा सांसदी का कार्यकाल समाप्ति की ओर है. आजाद अहमद पटेल तो हैं नहीं कि पांचवीं बार भी राज्यसभा सीट मिल जाए. दिग्विजय सिंह तो हैं नहीं कि जिनके पास अपने पर्याप्त विधायक हों,और जिन्हें राज्यसभा भेजने से पार्टी मना करने का रिस्क नहीं ले सकती. न ही वो मनमोहन सिंह हैं.
अब परेशानी यह खड़ी हो गई कि राहुल गांधी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके पिछले दिनों अपने करीबी के सी वेणुगोपाल और राजीव सातव को राज्यसभा सदस्य बनवा लिया. गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, आनन्द शर्मा जैसे नेताओं को लगा कि यह गलत हो रहा है. मल्लिकार्जुन खड़गे को राहुल गांधी पसंद करते हैं. उन्हें पहले लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया था. अब राज्यसभा में नामित किया है और गुलाम नबी आजाद के रिटायर होने पर सम्भावना है कि राहुल उनको राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष बना देंगे. यही असंतुष्टों का दर्द है.
लोकसभा में राहुल ने पश्चिम बंगाल के अधीर रंजन चौधरी को नेता प्रतिपक्ष बना दिया. मनीष तिवारी को लगता है उन्हें बनाना चाहिए था, जबकि राहुल उनसे इसलिए नाराज हैं कि 2014 के चुनाव के समय मनीष ने बीमारी का बहाना बनाकर चुनाव लड़ने से मना कर दिया था, क्योंकि उन्हें हार का डर था. विवेक तनखा को गलतफहमी है कि वो बड़े नेता हैं और उन्हें मध्य प्रदेश अध्यक्ष पद मिलना चाहिए. इन सभी ने अपनी नाराजगी निजी तौर पर व्यक्त की. प्रबंधकों ने हवा दी. राहुल के खिलाफ चिंगारी सुलगने दी.
दरअसल, योजना यही बनी कि सोनिया गांधी के अंतरिम कार्यकाल की समाप्ति के मौके पर बम फोड़ दो, जिससे कि अगर राहुल गांधी अपनी पसंद के किसी नेता को अध्यक्ष बनाने का कदम उठाएं, तो उससे पहले उन्ही की नेतृत्व क्षमता, कार्यशैली पर सवाल खड़े कर दो. तीर निशाने पर लगा है. राहुल गांधी के न चाहते हुए भी सोनिया को ही पार्टी के पूर्णाधिवेशन (जिसमें कार्यसमिति सदस्यों का और फिर पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होता है) तक पद पर बने रहने के लिए घोषित कर दिया गया है. अब समायोजन के समीकरण बैठाए जाएंगे. गांधी परिवार के खिलाफ ही बगावत हो सकती है. यह हव्वा खड़ा करके सोनिया को दबाव में ले लिया जाएगा. राहुल की टीम के साथ-साथ बुजुर्गों का भी समायोजन हो जाएगा. फिर भले ही राहुल गांधी अध्यक्ष बन जाएं. वीटो के लिए सोनिया और प्रियंका हैं ही. कांग्रेस की ढाक के तीन पात. सोनिया, राहुल और प्रियंका.
यह भी सत्य है कि गांधी परिवार के लिए भी कांग्रेस की बादशाहत छोड़ना कोई आसान बात नहीं है. राहुल भी अपनी साख बनाने के लिए पद त्याग की बात कर रहे हैं. प्रियंका की महत्वाकांक्षा किसी से छिपी हुई नहीं है. 2024 के लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस अपना ही घर ठीक करती रहेगी और नरेंद्र मोदी राम मंदिर के पूजन के साथ फिर एक कार्यकाल के लिए निकल पड़ेंगे वोट मांगने. वैसे यह बता दूं कि कांग्रेसी से ज्यादा आशावादी आपको पृथ्वी पर दूसरा नहीं मिलेगा. सड़क पर संघर्ष के बजाय अपनी पार्टी में वर्चस्व के लिए खूब संघर्ष करेंगे और यह कहते मिलेंगे 'मोदी या भाजपा कभी भी गलती कर सकते हैं, तब हम ही विकल्प हैं. फिर सत्ता में आएंगे.'
(लेखक : संजीव आचार्य, वरिष्ठ पत्रकार)